"लाइव इंटरव्यू : पारस-पत्थर से ?"
मैंने प्रपोज़ की, पत्थरों से
जो किनारे थे पड़े-पड़े,
थे सभी श्यामल, किशोरवय
देखते वे हरदिन प्रबुद्ध प्रवाह
हर रातें व्योम की गप-शप,
वहीं किनारे नदी के पड़े-पड़े
बाढ़-कटाव से बचाने को ।
बाँध के नीचे वे सभी / कब से पड़े थे,
रोज-ब-रोज / ये सभी पत्थर के ढेर,
दिखाई पड़ जाती मुझे / स्कूल जाते समय
किसी सहकर्मी ने मुझे ऐसा निहारती
कह उठी थी--ये 'निर्जीव पत्थर'
हमारे जन्म से पहले के हैं सभी ।
एक दिन की है बात--
वैसे उसे मैं रोज देखती / पत्थरों की ढेरी पर
कि एक छोटा-सा गोल-मटोल 'चमचौआ' पत्थर
ना-ना पत्थर का बच्चा कहिये--
ढेरी से लुढ़क कर नदीजल में चले जाते,
किन्तु हरदिन की तरह जलधारा
पुनः उसी गति से ढेरी पर ही भेज देते ।
लेकिन उसदिन ऐसा नहीं हो सका
वह नदी में गिरकर विलीन हो गया था
और अगले दिन देखी / नदी भी सूखने लगी थी
सप्ताहभर में वो नदी भी सूख गयी
और पंद्रह दिन आते-आते
नदी की सूखी धारा भी / नहीं दिखाई पड़ने लगी
उस होते अब रास्ता भी बन गयी थी / शॉर्टकट ।
एक दिन मैं अकेली / उसी नयी रास्ते से जा रही थी
....मैं यहाँ हूँ, मास्टर दी....
लगा कोई मुझे आवाज दे रहे हैं,
भ्रम समझ नज़रअंदाज़ कर दी
परंतु अगले दिन वही आवाज़--
....मास्टर दी, मुझे नहीं पढ़ाएंगे....
सप्ताहभर मेरी साथ, ऐसे ही बीतने पर
फिरभी मैं इस विचित्र क्षण को जताई नहीं किसी से
और इतवार की छुट्टी के बाद स्कूल जाने के क्रम में
वही आवाज़ आने पर / निडर हो मैं / जवाब दी--
'हाँ, पढ़ाऊँगी ! तुम है कौन ? कहाँ हो ? दिखाई नहीं पड़ रहे !'
....मास्टर दी, मैं परसा हूँ....
'परसा !!!! कौन !!!!'
....मैं वही पत्थर का बच्चा 'चमचौआ' पत्थर....
निर्जीव में निकली आवाज़ से हुई सिहरन से परे
मैं टोक बैठी-- 'किन्तु तुम्हारा भी नाम है, परसा है.....'
....नहीं मास्टर दी, मेरे माँ-बाप और परिवार के लोग
ऐसा तो प्यार से कहते हैं....
....मेरा नाम तो पारस है, पारस पत्थर....
मैं चिहुँकी---- 'पारस पत्थर !!!!'
'अरे, जिसे छूने से कोई वस्तु सोना हो जाती है....'
....हाँ, मास्टर दी, वही पारस....
'पर, हो कहाँ तू ?'
....मैं नदी में गिरकर सोना में बदल गया हूँ....
....जो यह मिट्टी है, वही सोना हो गयी है
कि मेरी धरती सोना उगले....
....इस पर फसल उगे, तो अनाज की कमी नहीं होगी....
....मास्टर दी, यही सन्देश आपको पढ़ाने हैं....
....कि पारस पत्थर तो नदी जल के साथ,
मिट्टी में मिल गयी है और हाँ, मेरे ये परिवार के लोग,
यहीं रह, कालान्तर में चट्टान हो जाएंगे, अब चलती हूँ, दी !
जब भी याद आये मेरा / तो दुःख में भी मुस्कराते याद कर लेना,
मैं हाज़िर हो जाऊंगा....
मैं इस खामोशी के बाद स्कूल आ गयी,
घटना किसी को बतायी नहीं / वैसे कौन विश्वास करते
किन्तु उसी दिन से प्रयास करती हूँ, बच्चों को यह बताने-पढ़ाने
कि भाग्य या अलादीन-चिराग 'मृग-मरीचिका' है,
'पारस पत्थर' और कुछ नहीं, अपना खलिहान है
और धरती उतना अवश्य देती है कि हम भूखे नहीं रहे ।
×× ×× ××
जो किनारे थे पड़े-पड़े,
थे सभी श्यामल, किशोरवय
देखते वे हरदिन प्रबुद्ध प्रवाह
हर रातें व्योम की गप-शप,
वहीं किनारे नदी के पड़े-पड़े
बाढ़-कटाव से बचाने को ।
बाँध के नीचे वे सभी / कब से पड़े थे,
रोज-ब-रोज / ये सभी पत्थर के ढेर,
दिखाई पड़ जाती मुझे / स्कूल जाते समय
किसी सहकर्मी ने मुझे ऐसा निहारती
कह उठी थी--ये 'निर्जीव पत्थर'
हमारे जन्म से पहले के हैं सभी ।
एक दिन की है बात--
वैसे उसे मैं रोज देखती / पत्थरों की ढेरी पर
कि एक छोटा-सा गोल-मटोल 'चमचौआ' पत्थर
ना-ना पत्थर का बच्चा कहिये--
ढेरी से लुढ़क कर नदीजल में चले जाते,
किन्तु हरदिन की तरह जलधारा
पुनः उसी गति से ढेरी पर ही भेज देते ।
लेकिन उसदिन ऐसा नहीं हो सका
वह नदी में गिरकर विलीन हो गया था
और अगले दिन देखी / नदी भी सूखने लगी थी
सप्ताहभर में वो नदी भी सूख गयी
और पंद्रह दिन आते-आते
नदी की सूखी धारा भी / नहीं दिखाई पड़ने लगी
उस होते अब रास्ता भी बन गयी थी / शॉर्टकट ।
एक दिन मैं अकेली / उसी नयी रास्ते से जा रही थी
....मैं यहाँ हूँ, मास्टर दी....
लगा कोई मुझे आवाज दे रहे हैं,
भ्रम समझ नज़रअंदाज़ कर दी
परंतु अगले दिन वही आवाज़--
....मास्टर दी, मुझे नहीं पढ़ाएंगे....
सप्ताहभर मेरी साथ, ऐसे ही बीतने पर
फिरभी मैं इस विचित्र क्षण को जताई नहीं किसी से
और इतवार की छुट्टी के बाद स्कूल जाने के क्रम में
वही आवाज़ आने पर / निडर हो मैं / जवाब दी--
'हाँ, पढ़ाऊँगी ! तुम है कौन ? कहाँ हो ? दिखाई नहीं पड़ रहे !'
....मास्टर दी, मैं परसा हूँ....
'परसा !!!! कौन !!!!'
....मैं वही पत्थर का बच्चा 'चमचौआ' पत्थर....
निर्जीव में निकली आवाज़ से हुई सिहरन से परे
मैं टोक बैठी-- 'किन्तु तुम्हारा भी नाम है, परसा है.....'
....नहीं मास्टर दी, मेरे माँ-बाप और परिवार के लोग
ऐसा तो प्यार से कहते हैं....
....मेरा नाम तो पारस है, पारस पत्थर....
मैं चिहुँकी---- 'पारस पत्थर !!!!'
'अरे, जिसे छूने से कोई वस्तु सोना हो जाती है....'
....हाँ, मास्टर दी, वही पारस....
'पर, हो कहाँ तू ?'
....मैं नदी में गिरकर सोना में बदल गया हूँ....
....जो यह मिट्टी है, वही सोना हो गयी है
कि मेरी धरती सोना उगले....
....इस पर फसल उगे, तो अनाज की कमी नहीं होगी....
....मास्टर दी, यही सन्देश आपको पढ़ाने हैं....
....कि पारस पत्थर तो नदी जल के साथ,
मिट्टी में मिल गयी है और हाँ, मेरे ये परिवार के लोग,
यहीं रह, कालान्तर में चट्टान हो जाएंगे, अब चलती हूँ, दी !
जब भी याद आये मेरा / तो दुःख में भी मुस्कराते याद कर लेना,
मैं हाज़िर हो जाऊंगा....
मैं इस खामोशी के बाद स्कूल आ गयी,
घटना किसी को बतायी नहीं / वैसे कौन विश्वास करते
किन्तु उसी दिन से प्रयास करती हूँ, बच्चों को यह बताने-पढ़ाने
कि भाग्य या अलादीन-चिराग 'मृग-मरीचिका' है,
'पारस पत्थर' और कुछ नहीं, अपना खलिहान है
और धरती उतना अवश्य देती है कि हम भूखे नहीं रहे ।
××
0 comments:
Post a Comment