"लाइव इंटरव्यू : एक पक्षी से"
रोज की भाँति,
आज भी स्कूल जा रही थी मैं,
छाता ताने, पर्स लटकाये
और किसी पेड़ के नीचे से
तब गुजर रही थी,
उधर पेड़ पर पंछियों के चहचहाने जारी थे ।
कि सर पर तने छाते पर कुछ गिरा / नि:स्तब्ध,
छाते को मैंने आगे की ओर की
कि एक छोटी पक्षी 'फुर्र' उड़ती हुई
पर्स पर आ बैठी और कहने लगी--
....अरे दी, कहाँ जा रही हो ?....
'स्कूल जा रही हूँ, पढ़ाने !' मैंने उनकी भाषा में उत्तर दी ।
....क्या पढ़ाती हो, दी....
'अरे, अक्षर-ज्ञान कराती हूँ---
क ख ग घ ङ !'
....मैं भी पढूंगी, मुझे भी पढ़ाओ न दी....
....यहीं बगीचे में पढ़ लूँगी,
स्कूल जाकर वहाँ डिस्टर्ब भी नहीं करूँगी !....
''नहीं, तुम्हें अगर पढ़ाऊँगी तो--
तुम्हें ज्ञान-विज्ञान की जानकारी हो जायेगी,
और बहेलिये तुम्हें इसतरह से मनुष्य की भाषा में
बातें करते देख, तुम्हें पकड़ने को
और पागल हो जाएंगे !
वैसे भी तुम्हारी काया बहुत कमजोर है,
निरक्षरता में ही तो / इन मनुष्यों को
तुम्हारे गोश्त लज़ीज़ लगते हैं !
तुम्हारे पढ़-लिख लेने से ये मनुष्य तुम्हें,
पिंजरे में बंद रखकर तुमसे चौकीदारी कराएंगे,
तुम अपने सखा 'सुग्गे' की गत देख ही रही हो
और उनके भाँति तुम्हारी भी आज़ादी निचुड़ जायेगी,
अगर तुम्हें यह सब पसंद है, तो चलो मचान पर
मैं ज़रा स्कूल से हाज़िरी बना आती हूँ"
--इतना कह मैं ज़रा साँस ली, तब तक वह चिड़िया
पर्स से कूदते हुए घास पर बैठ चुकी थी
और कहने लगी..... " नहीं दीदी ! तब छोड़ो,
मुझ पंछियों को मेरी ही भाषा में रहने दो....
....मैं आज़ादी खोना नहीं चाहती 'दी,
रंग-बिरंगी पंख है मेरी, यही मेरी साक्षरता है....
और मेरी चहचहाना ही मेरी एम.ए., पी-एच.डी. डिग्री है...."
फिर वो 'फुर्र' उड़ पेड़ की उसी डाल पर बैठ गयी
और मेरी मुख से अनायास निकली--
'मेरी तितली, कितनी सयानी ?'
×× ×× ××
आज भी स्कूल जा रही थी मैं,
छाता ताने, पर्स लटकाये
और किसी पेड़ के नीचे से
तब गुजर रही थी,
उधर पेड़ पर पंछियों के चहचहाने जारी थे ।
कि सर पर तने छाते पर कुछ गिरा / नि:स्तब्ध,
छाते को मैंने आगे की ओर की
कि एक छोटी पक्षी 'फुर्र' उड़ती हुई
पर्स पर आ बैठी और कहने लगी--
....अरे दी, कहाँ जा रही हो ?....
'स्कूल जा रही हूँ, पढ़ाने !' मैंने उनकी भाषा में उत्तर दी ।
....क्या पढ़ाती हो, दी....
'अरे, अक्षर-ज्ञान कराती हूँ---
क ख ग घ ङ !'
....मैं भी पढूंगी, मुझे भी पढ़ाओ न दी....
....यहीं बगीचे में पढ़ लूँगी,
स्कूल जाकर वहाँ डिस्टर्ब भी नहीं करूँगी !....
''नहीं, तुम्हें अगर पढ़ाऊँगी तो--
तुम्हें ज्ञान-विज्ञान की जानकारी हो जायेगी,
और बहेलिये तुम्हें इसतरह से मनुष्य की भाषा में
बातें करते देख, तुम्हें पकड़ने को
और पागल हो जाएंगे !
वैसे भी तुम्हारी काया बहुत कमजोर है,
निरक्षरता में ही तो / इन मनुष्यों को
तुम्हारे गोश्त लज़ीज़ लगते हैं !
तुम्हारे पढ़-लिख लेने से ये मनुष्य तुम्हें,
पिंजरे में बंद रखकर तुमसे चौकीदारी कराएंगे,
तुम अपने सखा 'सुग्गे' की गत देख ही रही हो
और उनके भाँति तुम्हारी भी आज़ादी निचुड़ जायेगी,
अगर तुम्हें यह सब पसंद है, तो चलो मचान पर
मैं ज़रा स्कूल से हाज़िरी बना आती हूँ"
--इतना कह मैं ज़रा साँस ली, तब तक वह चिड़िया
पर्स से कूदते हुए घास पर बैठ चुकी थी
और कहने लगी..... " नहीं दीदी ! तब छोड़ो,
मुझ पंछियों को मेरी ही भाषा में रहने दो....
....मैं आज़ादी खोना नहीं चाहती 'दी,
रंग-बिरंगी पंख है मेरी, यही मेरी साक्षरता है....
और मेरी चहचहाना ही मेरी एम.ए., पी-एच.डी. डिग्री है...."
फिर वो 'फुर्र' उड़ पेड़ की उसी डाल पर बैठ गयी
और मेरी मुख से अनायास निकली--
'मेरी तितली, कितनी सयानी ?'
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