आज से मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में विश्वफूल की कविता की कुछ कड़ी हम शुरू करने जा रहे हैं, आइये हर सप्ताह उन्हें पढ़ते है ...
"एग्ज़िट पोल : सौ फीसदी 'मर्त्यलोक"
"एग्ज़िट पोल : सौ फीसदी 'मर्त्यलोक"
नदियों का बहना,
झरनों का गिरना,
बर्फों का जमना,
कोई रोक नहीं पाया इसे--
पर्वत-पठारों / नद-निर्झर / लता-पादपों के
आपसी सामंजस्य को
कोई समझ नहीं सका आजतक ।
नदियों के बहने से रोकना,
उनकी धारा को मोड़ना
झरनों को गिरने से रोकना
बर्फों को जमने से रोकना
है यह, प्रकृति से छेड़छाड़--
जीवन-मृत्यु के कदमताल में
यह सिर्फ मृत्यु ही हो सकती है,
इसे बदलने का साहस किसी में नहीं !
किन्तु मृत्यु में भी,
मेरी पदचाप अनसुनी नहीं रह सकती !!
मंदिर की घंटियाँ सुन....बढ़
मस्जिद के अज़ान सुन....बढ़
क्योंकि / विवशता-- मेरी कृतज्ञता है,
कायरता-- मेरी भूख है,
छुआछूत-- मेरी गरीबी है,
अस्पृश्यता-- मेरी जवानी है,
लाचार नहीं, मैं तो सबला हूँ,
नारी नहीं, नरता हूँ,
अंतिम पंक्ति में हूँ ,मौन हूँ / पर महाशक्ति हूँ ।
समय का इतिहास नहीं, परिहास हूँ,
नर्त्तन करते शिव की इति हूँ,
आकाश/पाताल/मंगल/शनि/सूर्य/शशि/ तारे
और गुरु शुक्र/वृहस्पति से बिछोह है किन्तु
कि ब्लैक हॉल हो या आकाशगंगा....
उस अंतरिक्ष में क्या रखा है, उस ब्रह्माण्ड में क्या रखा है,
जो स्वर्ग की सैर करूँ ।
गतिशून्य व अपराजिता भी हो जाऊँ, मगर
एक नारी / एक स्त्री के लिए है, धरती प्यारी
क्योंकि / धरती भी नारी है,
भार उठाकर भी जो, नदियाँ-पहाड़ के दर्द में हैं शामिल
और यहीं हैं चन्दन, वंदन, क्रंदन....
कि इस मर्त्यलोक से / इन खुली आँखों से,
निहारती खुला गगन ।
×× ×× ××
झरनों का गिरना,
बर्फों का जमना,
कोई रोक नहीं पाया इसे--
पर्वत-पठारों / नद-निर्झर / लता-पादपों के
आपसी सामंजस्य को
कोई समझ नहीं सका आजतक ।
नदियों के बहने से रोकना,
उनकी धारा को मोड़ना
झरनों को गिरने से रोकना
बर्फों को जमने से रोकना
है यह, प्रकृति से छेड़छाड़--
जीवन-मृत्यु के कदमताल में
यह सिर्फ मृत्यु ही हो सकती है,
इसे बदलने का साहस किसी में नहीं !
किन्तु मृत्यु में भी,
मेरी पदचाप अनसुनी नहीं रह सकती !!
मंदिर की घंटियाँ सुन....बढ़
मस्जिद के अज़ान सुन....बढ़
क्योंकि / विवशता-- मेरी कृतज्ञता है,
कायरता-- मेरी भूख है,
छुआछूत-- मेरी गरीबी है,
अस्पृश्यता-- मेरी जवानी है,
लाचार नहीं, मैं तो सबला हूँ,
नारी नहीं, नरता हूँ,
अंतिम पंक्ति में हूँ ,मौन हूँ / पर महाशक्ति हूँ ।
समय का इतिहास नहीं, परिहास हूँ,
नर्त्तन करते शिव की इति हूँ,
आकाश/पाताल/मंगल/शनि/सूर्य/शशि/
और गुरु शुक्र/वृहस्पति से बिछोह है किन्तु
कि ब्लैक हॉल हो या आकाशगंगा....
उस अंतरिक्ष में क्या रखा है, उस ब्रह्माण्ड में क्या रखा है,
जो स्वर्ग की सैर करूँ ।
गतिशून्य व अपराजिता भी हो जाऊँ, मगर
एक नारी / एक स्त्री के लिए है, धरती प्यारी
क्योंकि / धरती भी नारी है,
भार उठाकर भी जो, नदियाँ-पहाड़ के दर्द में हैं शामिल
और यहीं हैं चन्दन, वंदन, क्रंदन....
कि इस मर्त्यलोक से / इन खुली आँखों से,
निहारती खुला गगन ।
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