शाम 7:30 बजने ही वाले थे पूरा भारतवासी 'P.V' के मैच देखने के लिए "T.V' पर आँखे 'टकाटक' गड़ाये हुए थे , क्योंकि वे यदि मैच जीतती तो 'गोल्डन गर्ल' बनती और नहीं जीत पाती तो 'सिल्वर गर्ल' बनने का सफ़र उसने फाइनल में जगह बनाकर जीत जो ली थी, लेकिन दोनों में कुछ भी हो पर 'भारतीय' पन्नों में 'इतिहास' लिखा जाना तय था और इतिहास लिखा भी गया, परंतु 'गोल्डन गर्ल' के रूप में नहीं अपितु 'रजतधारिका' के रूप में , 1st सेट '21-19' से जीतने के बाद सभी को विश्वास हो गया कि 'सिंधु' की 'विजय' पक्की है पर यहाँ भी क्रिकेट की तरह प्रोबेबिलिटी कायम है व कयास लगाना मुश्किल है, 2nd सेट में संघर्षपूर्ण चले मुकाबलें '12-21' के बाद सभी की साँसे थम ही गयी थी कि अब क्या होगा ?.......होगा क्या ?आखिरी सेट में "21-15" से मुकाबला जीतकर जहाँ विश्व की नंबर-1 खिलाड़ी स्पेन की 'मरीन' 'गोल्डन गर्ल' बनीं , वही भारतीयों में 'इमोशनल' का माहौल क्षणिक समय तक छाया रहा , लेकिन 'भारत' फिर भी खुश है, क्योंकि बैडमिंटन में "रजत" पाने वाली 'P.V' प्रथम भारतीय महिला जो है बनी ।
पर इनकी शुरुअात तो "12 वें दिन के साक्षी' के जोश कारण संभव हुआ, क्योंकि 31 वें ओलिंपिक की रंगारंग शुरुअात 'रियो' में तो बड़े धूम-धाम से हुआ , पर 11 दिन बीत जाने के बाद जब कोई पदक न मिला तो भारतीयों ने 'पदक' की 'आश' एकदम से छोड़ दिये , लेकिन 12 वे दिन डीटीसी- बस कंडक्टर की बेटी ने रियो ओलंपिक में इतिहास रच दिया और देशवासियों के मन में 'पदक' की लालसा जगा दी , कांस्य पदक के साथ 'साक्षी' जहाँ 'पहलवानी' में पदक जीतने वाली 'प्रथम भारतीय' हैं, वही सच तो ये है कि ओलंपिक क्वालीफाइंग की सूची में इनका नाम ही नहीं था। हुआ यूं कि 2012 के लंदन ओलिंपिक में खेलने वाली देश की पहली महिला पहलवान गीता फौगाट अप्रैल में मंगोलिया में ओलिंपिक क्वालीफाइंग टूर्नामेंट में कांस्य के लिए हुए बाउट में नहीं उतरीं। इसलिए उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया था।
चूंकि साक्षी भी उसी 58 किग्रा भार वर्ग में खेलती हैं, इसलिए टीम में उन्हें मौका मिला। इसके बाद कोटा हासिल किया और साक्षी ने अपने चयन को सही साबित कर दिखाया। जहाँ पदक जीतने के बाद 'भारत सरकार और राज्य सरकार' काफी करोड़ रुपये, जॉब और ढेर सारी सुविधायें देने की बात कर रहे हैं, वहीं यदि इस 'टाइप के रुपयों' का इस्तेमाल 'पहले' से ही 'स्कूल और कॉलेज' में लगाकर करते तो ऐसी कितनी 'साक्षी और सिंधु' भारत के लिए 'कांस्य और रजत' से बढ़कर 'स्वर्ण' ला पातीं, लेकिन 'सरकार' बस जीतने वाले इन्सानों को 'आगे बढाने' में रुचि लेती हैं, लेकिन क्या लड़की को पदक, मर्दों को चूड़ियाँ मिलना चाहिए,यह तो भारतीय खेल की दुर्दशा का परिचायक है ?
यदि 'भारतीय खेलों' को और सुविधा मिला होता, तो 'दीपा करमाकर' भी पदक लेकर ही दम मारती, लेकिन 'निम्न मानसिकता' , 'गंदे राजनीतिज्ञ' और 'कुप्रबंधन' के कारण भारत में उस तरह के ही खिलाड़ी तैयार हो पाते हैं, जैसे की कोई छात्र 'एडमिट कार्ड' पाते ही परीक्षा हेतु गेस पेपर पढ़ने बैठ जाते हैं ।
जहाँ खिलाडियों को आगे बढाने में हमलोग 'कोच' की भूमिका को याद करना भूल रहे हैं हम , वहीं इन्ही कोच के कारण हमें 'कुछ मेडल' मिल पाते है, लेकिन गोपीचंद , कृपाशंकर सहित कितने ही कोच व्यवस्था के शिकार हो जाते हैं और ऐसे कोच कुव्यवस्था से उबर कर जब सफल होते हैं, तो हम इसके बरक्स ही 'आकस्मिक याद' करने लग जाते हैं ।
जहाँ एक ओर लड़कियाँ तरक्की कर रही हैं, वही दूजे तरफ 'इंडियन पॉलिटिक्स' और 'द्वेष' के कारण 'पहलवान नरसिंह यादव' जैसे अच्छे पहलवान 'को' अकल्पनीय रूप से 'फँसा' कर '4 साल' का प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है ? उनके क्रंदन के सामने साक्षी और सिंधु के पदक भी विलीन लगते हैं । नरसिंह के रोने को कोई रोक पाएंगे ! उन्हें आप क्या आश्वासन दीजिएगा ?
एक कहावत है 'पुरुष को आगे बढाने में महिला' का सहयोग रहता है लेकिन युग के साथ कहावते भी बदलते है और अब यह कहावत कहा जाता है 'हर महिला' को आगे बढ़ाने में 'एक पुरुष' का हाथ होता है ।
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