*" हो भइया ! का कहना, जबू आईल ब्रत महाना "*
दुनिया के विभिन्न बाशिंदे उगते हुए सूर्य को प्रणाम करते हैं, लेकिन बिहार ही ऐसा जगह है जहाँ के लोग डूबते हुए सूर्य को भी प्रणाम करते है और इसे धार्मिक भाषा में 'छठ पर्व' के रूप में जाना जाता है और राजनीतिक भाषा में 'दमघोंटू लोगों और दलघट्टू शहाबु-तेजू' जैसे व्यक्तियों के रूप में। मैं नास्तिक विचार पाले एक आम इंसान हूँ ।
'छठ' की तरह "जिउतिया" भी बिहार में एक नामी व्रातिक-पर्व है, जहाँ विवाहित महिलाएँ और माँएं जहाँ पुत्र की आकाँक्षा, पुत्रों की सुख-समृद्धि तथा पुत्रों की लंबी आयु के लिए निर्जला, निर्हारा व्रत करती हैं। जिउतिया की कहानी भी अन्य कहानियों की तरह रोचक है। सार प्रस्तुत करती ये कहानियाँ :-
विवाहित महिलाये जिन्हें पुत्र नहीं है , वे पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए भगवान् जीमूतवाहन की पूजा करती हैं । ये जीमूतवाहन राजा शालिवाहन के पुत्र थे । इसमें माताएं अपनी पुत्र की भलाई , कल्याण और आशीर्वाद प्राप्ति के लिए भी भगवान् जीमूतवाहन की पूजा करती हैं । जिउतिया या जितिया व्रत इसी जीमूतवाहन से निकला नाम है, जो कि प्रतिवर्ष विक्रमी संवत् के आश्विन महीना के कृष्णपक्ष अष्टमी तिथि को प्रदोष काल के दौरान किया जाता है, जो कि इस साल के अनुसार 23.09.2016 को रहा, जहाँ छठ पर्व में 36 घंटों का निर्जला,निर्हारा उपवास रखा जाता है, वहीं जिउतिया या जीतिया पर्व में वैसे तो 24 घंटों का निर्जला, निर्हारा उपवास होता है , लेकिन कभी-कभार यह 48 घंटों तक खिसक सकता है, एकदम पृथ्वी की परतों की तरह ! जिनकी कहानी कुछ ऐसी है--
दुनिया के विभिन्न बाशिंदे उगते हुए सूर्य को प्रणाम करते हैं, लेकिन बिहार ही ऐसा जगह है जहाँ के लोग डूबते हुए सूर्य को भी प्रणाम करते है और इसे धार्मिक भाषा में 'छठ पर्व' के रूप में जाना जाता है और राजनीतिक भाषा में 'दमघोंटू लोगों और दलघट्टू शहाबु-तेजू' जैसे व्यक्तियों के रूप में। मैं नास्तिक विचार पाले एक आम इंसान हूँ ।
'छठ' की तरह "जिउतिया" भी बिहार में एक नामी व्रातिक-पर्व है, जहाँ विवाहित महिलाएँ और माँएं जहाँ पुत्र की आकाँक्षा, पुत्रों की सुख-समृद्धि तथा पुत्रों की लंबी आयु के लिए निर्जला, निर्हारा व्रत करती हैं। जिउतिया की कहानी भी अन्य कहानियों की तरह रोचक है। सार प्रस्तुत करती ये कहानियाँ :-
विवाहित महिलाये जिन्हें पुत्र नहीं है , वे पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए भगवान् जीमूतवाहन की पूजा करती हैं । ये जीमूतवाहन राजा शालिवाहन के पुत्र थे । इसमें माताएं अपनी पुत्र की भलाई , कल्याण और आशीर्वाद प्राप्ति के लिए भी भगवान् जीमूतवाहन की पूजा करती हैं । जिउतिया या जितिया व्रत इसी जीमूतवाहन से निकला नाम है, जो कि प्रतिवर्ष विक्रमी संवत् के आश्विन महीना के कृष्णपक्ष अष्टमी तिथि को प्रदोष काल के दौरान किया जाता है, जो कि इस साल के अनुसार 23.09.2016 को रहा, जहाँ छठ पर्व में 36 घंटों का निर्जला,निर्हारा उपवास रखा जाता है, वहीं जिउतिया या जीतिया पर्व में वैसे तो 24 घंटों का निर्जला, निर्हारा उपवास होता है , लेकिन कभी-कभार यह 48 घंटों तक खिसक सकता है, एकदम पृथ्वी की परतों की तरह ! जिनकी कहानी कुछ ऐसी है--
महिलायें एवं माताएं जितिया पर्व के दिन निर्जला व्रत करती हैं , अर्थात् व्रत के दौरान एक बूंद जल तक ग्रहण नहीं करती हैं । व्रत अहले सुबह सूर्यदर्शन से बहुत पहले ही शुरू होती है और अगले दिन अष्टमी के समाप्त होने पर वे अपना व्रत तोड़ती है । व्रत तोड़ने से पहले महिलाएं एवं माताएं आम के पल्लव के दातुन से मुंह धोती हैं । कभी-कभी अष्टमी अपराह्न से शुरू होता है । ऐसी स्थिति में उन्हें दो दिन तक निर्जला व्रत करना पड़ता है । इसे खर - जितिया भी कहा जाता है, जो बेहद कठिन माना जाता है , लेकिन दिन-भर के उपवास में भी "सूर्य भगवान्" अपनी तापात्मक रोशनी को कम तो नही करते, अपितु सेल्सियस में और बढ़ा देते हैं ।
लोगों में ऐसी धारणा है कि माताओं के व्रत रखने से जीमूतवाहन के आशीर्वाद से बच्चे दुर्घटनाग्रस्त होने से बच जाते हैं , लेकिन क्या बिहार के उन माताओं ने 'जितिया' नहीं की होंगी, जिनके पुत्र 'उरी हमलों' में 'शहीद' हुए ! उन माताओं ने निश्चित ही छठ भी की ही होंगी !! यानी पर्व बच्चों की ज़िन्दगी नहीं बचाती, बस यह महिलाओं में "डर" डलावाकर पर्व करवाती हैं ।
जहाँ एक ओर संवैधानिक शक्ति 'पुरुष और महिलाओं' में कोई भेद नहीं करते , वही दूजे यह महिलाओं द्वारा सिर्फ "पुत्ररत्न की प्राप्ति" और सिर्फ पुत्रों के लंबी आयु की कामना करना जहाँ कई सवालों को जन्म देते हैं कि "सिर्फ पुत्र प्राप्ति की इच्छा" ही , पुत्री की क्यों नहीं ! वो भी खासतौर पर महिलाओं द्वारा । क्या है ये सब ?? महिला द्वारा महिला का ही शोषण.....।
"भगवान के टंकित डायरी" को देखें तो हमें मालूम होता है कि आजतक जितने भी 'भगवान' हुए हैं, वे सब 'पितृसत्तात्मक' सोच लिए हैं कि हर जगह बस 'पुरुष' ही भगवान कहलाये, कभी कोई 'स्त्री' भगवान नहीं कहलायी, फ़ख़त 'भगवती' नाम लिए स्त्रीलिंग सोच के बिम्बित भर ही .........!!
यानी इससे यह बात साबित होती है कि यह सिर्फ 'पुरुष वातावरण' को आगे बढ़ाने के लिखी गयी "किताबों" की श्रृंखला-मात्र है और उन किताबों की श्रृंखला के काल्पनिक चरित्र को 'भगवान् नाम' से मान लिया गया, क्योंकि उनकी शक्ति 'सुपरहीरो' जैसी दिखाई गयी, कई कॉमिक्सों की भाँति !!
चलिए आगे की कहानी पर आते है-
समुद्र के नजदीक नर्मदा नदी के किनारे कंचनबटी नाम का एक नगर था । वहां का राजा मलयकेतु था । नर्मदा नदी से पश्चिम का स्थल एक मरुभूमि था । जो बालुहटा नाम से जाना जाता था । वहां एक पाकड़ का पेड़ था । पेड़ के डाल पर एक चील रहती थी । पेड़ के जड़ में एक खोलर था, जिसमे एक सियारिन रहती थी । चील और सियारिन में घनिष्ठ मित्रता हो गयी थी । एकबार दोनों सहेली सामान्य महिला की तरह जितिया व्रत करने को ठानी और जीमूतवाहन की पूजा करने को सोची । उसी दिन नगर के बहुत बड़े व्यापारी का पुत्र मर गया और जिनका अंतिम संस्कार उसी मरुभूमि में किया जाना था । वह रात बहुत भयानक थी । भयंकर वर्षा हो रही थी । बादल भयावह हो गरज रहे थे । आंधी-तूफ़ान बहुत जोरों से चल रही थी । इधर सामान्य महिला बनी सियारिन मुर्दा देखकर अपनी भूख रोक नहीं सकी । जबकि चील ने लगातार व्रत की और अगले दिन सामान्य महिला की तरह व्रत तोड़ी ।
अगले जन्म में उन दोनों ने समोदर बहन के रूप में एक ब्राह्मण भास्कर के यहाँ जन्म ली । बड़ी बहन जो पूर्व जन्म में चील थी, अब शीलवती के नाम से जानी गयी और वह बुद्धिसेन के साथ ब्याही गयी । छोटी बहन जो पूर्व जन्म में सियारिन थी , अब कपुरावती के नाम से जानी गयी तथा वह उस नगर के राजा मलायकेतु के साथ ब्याही गयी अर्थात् कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बन गयी । शीलवती को भगवान् जीमूतवाहन के आशीर्वाद से सात पुत्र हुए । जबकि नगर की रानी कपुरावती को सभी बच्चे जन्म लेते ही मर गए, इसलिए कपुरावती बहुत उदास रहने लगी ।
इधर शीलवती के सातो पुत्र समय के साथ बड़े होकर उसी नगर के राजा मलयकेतु के राजदरबार में नौकरी करने लगे । जब रानी कपुरावती ने उन सात युवकों को देख कर ईर्ष्या से जल-भूनने लगी । उसके भीतर एक शैतान जाग उठी और उसने एक शैतानी योजना बनाई । उन सातों बहिनपुत्रों को मरवाने के लिए उसने राजा को राजी कर लिया । राजा की रजामंदी से सातों युवकों को मार दिया गया ।उनके सिर धर से अलग कर दिए गए । सात बर्तन मंगाए गए । सभी में एक-एक कटे सिर रख कर सभी बर्तनों को लाल कपड़े से ओढ़ा दिया गया और रानी कपुरावती ने सभी बर्तनों को अपनी बड़ी बहन शीलवती के घर भिजवा दी ।
पूर्वजन्म के पूजा-प्रसाद स्वरूप भगवान् जीमूतवाहन ने जब यह सब जाने, तो उन्होंने मिटटी से उन सातों मृत युवकों का सिर बनाकर प्रत्येक सिर को उसके धड़ से जोड़ दिए, फिर उनसबों पर अमृत छिड़क दिया । सातों युवक फिर से ज़िंदा हो उठे और सभी सातों भाई अपने घर लौट आये | इधर सातों युवकों की पत्नियों ने जैसे ही अपने पतियों के सिर अपने हाथों में ली कि सब कटे हुए सिर नारियल फल बन गए , उधर कपुरावती बुद्धिसेन के घर की सूचना पाने के लिए तरस रही थी । वह उन सातों युवकों की पत्नियों के रोने की आवाज सुनने के लिए व्याकुल थी । जब उसे अपने बड़ी बहन के घर से रोने की आवाज सुनाई नहीं दी तो उसने अपनी दासी को वहां से जानकारी लाने को भेजी । दासी जब वापस रानी के पास आयी और वहां का सारा वृतान्त कह सुनाई कि शीलवती के सातों पुत्र जीवित हैं और अपने-अपने घरों में प्रसन्नतापूर्वक हंसी-ठिठोली कर रहे हैं । रानी कपुरावती को पहले तो अपने पति पर शक हुआ कि राजा ने उन्हें धोखा दिया है , लेकिन राजा ने कहा कि मैंनें तो तुम्हारे कहने पर वैसा ही किया था । लगता है उस परिवार पर भगवान् जीमूतवाहन का आशीर्वाद प्राप्त है , इसलिए सातों बच गए हैं । कपुरावती अपनी बड़ी बहन के घर इस हेतु जांचने स्वयं गयी और अपनी बहन को सारी वृतान्त सुनाई और पूछ-ताछ की , कि कैसे उसके सातों पुत्र नहीं मरे ।शीलवती को अपनी तपस्या के कारण उसके पिछले जन्म की सारी बातें याद आ गयी । वह अपनी छोटी बहन कपुरावती को उस पेड़ के पास ले गयी और पिछले जन्म की सारी बातें उसे सुनाई । सारी बातें सुन कर कपुरावती बेहोश होकर गिर पड़ी और मूर्च्छित हो गयी , होश आने पर वे पछतावा करने लगी । उनकी यही प्रायश्चित जान बहन शीलवती ने उन्हें माफ़ी दे दी ।.... ऐसी गल्पगाथा मेरी दादी ने सुनाई थी ।
ऐसे में कालान्तर में "महात्मा गान्धी" भी भगवान है और संसद तब कोई भी लोक के पर्याय हो सकते हैं ।
--T.manu ..
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