"देखना है, तो चींटियों में एकता देखिये; हम मानव उनके पगधुलि भी नहीं"
बात गर्म-ठंड मौसम की भरी दुपहरिया की है । जैसे- आज समझो तो 'हंड्रेड परसेंटेज' खाँटी । मैंने अचानक देखा-- अपने आँगन के साइड में कुछ चींटियों के ग्रुप अलग-अलग झुण्ड में एक दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं । मेरी दोनों आँखों की गोलकी हिली, नेत्र - स्थानिका कटोरी में व्यवस्थित हुई , प्रकाश - पुंज दृढ हुई , फिर मेरे दोनों भौंह के उभरे मांसल हिस्से ने मेरी कृत्रिम आँखसा यानी ऐनक यानी चश्में को लेंस सहित कर्ण-परत को सलीके से प्रतिस्थापित किया और चीटियों के झुण्ड के पीछे लग गयी । देखा- कुछ ही दूरी पर एक मृत मकड़ा पड़ा है, जो एक चींटी के वजन से हजार गुने जरूर होंगे ! कई तरफ से आये सैंकड़ों ग्रुप चीटियों के झुण्ड उसपर चारों तरफ देखते हुए सावधानीपूर्वक टूट पड़ते हैं । सावधानीपूर्ण इसलिए मानों मकड़े को कोई चोट नहीं पहुँचे और चारों तरफ देखने से तात्पर्य अपने दुश्मनों को गिद्धदृष्टि से देखकर परीक्षण करना है । फिर ये सैंकड़ों चीटियाँ मकड़े के लंबे टाँगों को अपने विविध रण-कौशल से जकड़कर मोर्चा सँभाल लेते हैं तथा एकतरफ खींचकर सुरक्षित स्थान की ओर ले जाते हैं । मेरी नजर कुछ दूरी तक पीछा करते हैं । जब मेरा / मेरी कृत्रिम आँख उर्फ़ चश्मा का 'प्रकाश वर्ष' काम करना बंद कर देता / देती है, तब मेरा पग (पाँव) बिना चाप (आवाज़) किये चींटियों के जाने की दिशा में बढ़ जाता है । लगभग 500 मीटर, लगभग का लदभग नहीं , वरन् वास्तविक में 500 मीटर आने पर मुझे लगा चींटियाँ उसे छोड़ सुस्ताने के मूड में हैं, परंतु कुछ ही क्षणों में मेरे ये विचार भ्रान्ति लगा । सही भी है , चींटियाँ आराम नहीं करते ! देखता हूँ , विपरीत दिशा में पेड़ है, जिनसे उतर कर सैकड़ों की संख्या में चींटी आकर उस मृत मकड़े के पास रुकते हैं और दोनों तरफ की चींटियाँ खड़े से होते हैं व इसी ढंग से मेरे चश्में को दिखाई पड़ते हैं । मुझे लगता है शायद, दोनों के बीच दुआ-सलाम हो रहे हैं या किसी व्यावसायिक वार्त्ता को अंजाम दिए जाने की बात उदभूत हो रही हैं ! लेकिन वार्त्ता जब यहीं पर समाप्त-सी लगी, तो लगा कोई व्यावसायिक वार्त्ता न होकर निःस्वार्थ 'पंचायती मीट' भर था । अब मेरा पीछा किये चींटी-दल वापस लौट रहे थे और अतिथ्यागत चींटी-दल मकड़े को आगे ले जाने के लिए अपने सैन्य-बल के साथ मोर्चा सम्भाल लिए थे , यहाँ समय न लेकर मैं इस वस्तुस्थिति के प्रति असमंजस में आ गया कि किनके तरफ अपना अभियान जारी रखूँ ? मैंने नया दल के साथ आँख-मिचाई शुरू की । फिर उसी भाँति उनके साथ मैं भी आगे बढ़ गया । ठीक 500 मीटर आने के बाद धरती में मुझे 2 अंगुली भर छेद दिखाई दिया । वे सब उनके पास रुक ठिठके, क्योंकि वे उस मकड़े को उस छिद्र में से प्रवेश कराकर नहीं ले जा सकते थे , वे चाहते तो मकड़े को टांग-हाथ अलगाकर व छिन्न-भिन्न कर उक्त छेद में ले जा सकते थे । खैर, वे मानवी कुकृत्य का दोहरीकरण नहीं किये, अन्यथा यहां भी लाशें टूटती ! .... फिर मैं उन चींटियों का पीछा किया, परंतु मेरा दुर्भाग्य कि मैंने चींटियों के ऐसे कृत्य का और भी अवलोकन नहीं कर सका, क्योंकि किसी पत्ता पर पहुँचे मृत मकड़े और चींटी-दल ऐसे हिल गया और उसी ढंग से बगल में बहती नाली में गिर गया । ओह, मैंने सोच लिया, यह इतिश्री हो गया , फिर मैं वापस अपने आँगन की तरफ हो गया । वापसी क्रम में ही मुझे लगा ..... ये चींटियाँ कहीं मुझे देख तो नहीं लिया था या उन्हें मेरा होने का अहसास तो नहीं हो गया था या वे सब किसी प्लानिंग के तहत पत्ता को नाव बनाकर कहीं दूर-सुदूर निकल तो नहीं गया ! मेरे मन में जब ऐसा क्रौंधा , तो उस तरफ जाने के लिए मैं लपका, जिधर को चींटियाँ सुसाइडकल उछाल भर नाले में पत्ते सहित कूदे थे , लेकिन वहाँ पहुँचकर मैं ऐसे चींटियों की नाव को नहीं देखा । नाली के साथ कुछ दूर और आगे बढ़ा ... और आगे बढ़ा... कहीं पत्ते वाली नाव मुझे दिखाई नहीं पड़े । अगर पत्ता 'नाव' नहीं बना होता, तो नाली पर उनका कुछ न कुछ अस्तित्व जरूर रहता ! मैंने गुलिवर के अभियान सदृश्य अभियान को गंवाया था । ....... इतना होने के बावजूद ये चींटियाँ मानवों के लिए यह सीख दे गया कि चींटियाँ की एकता के पगधूलि तक भी मानव-मात्र पहुँच नहीं सकते हैं !
'राष्ट्रीय एकता दिवस' (31 अक्टूबर) की ढेरों शुभकामनायें ।
बात गर्म-ठंड मौसम की भरी दुपहरिया की है । जैसे- आज समझो तो 'हंड्रेड परसेंटेज' खाँटी । मैंने अचानक देखा-- अपने आँगन के साइड में कुछ चींटियों के ग्रुप अलग-अलग झुण्ड में एक दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं । मेरी दोनों आँखों की गोलकी हिली, नेत्र - स्थानिका कटोरी में व्यवस्थित हुई , प्रकाश - पुंज दृढ हुई , फिर मेरे दोनों भौंह के उभरे मांसल हिस्से ने मेरी कृत्रिम आँखसा यानी ऐनक यानी चश्में को लेंस सहित कर्ण-परत को सलीके से प्रतिस्थापित किया और चीटियों के झुण्ड के पीछे लग गयी । देखा- कुछ ही दूरी पर एक मृत मकड़ा पड़ा है, जो एक चींटी के वजन से हजार गुने जरूर होंगे ! कई तरफ से आये सैंकड़ों ग्रुप चीटियों के झुण्ड उसपर चारों तरफ देखते हुए सावधानीपूर्वक टूट पड़ते हैं । सावधानीपूर्ण इसलिए मानों मकड़े को कोई चोट नहीं पहुँचे और चारों तरफ देखने से तात्पर्य अपने दुश्मनों को गिद्धदृष्टि से देखकर परीक्षण करना है । फिर ये सैंकड़ों चीटियाँ मकड़े के लंबे टाँगों को अपने विविध रण-कौशल से जकड़कर मोर्चा सँभाल लेते हैं तथा एकतरफ खींचकर सुरक्षित स्थान की ओर ले जाते हैं । मेरी नजर कुछ दूरी तक पीछा करते हैं । जब मेरा / मेरी कृत्रिम आँख उर्फ़ चश्मा का 'प्रकाश वर्ष' काम करना बंद कर देता / देती है, तब मेरा पग (पाँव) बिना चाप (आवाज़) किये चींटियों के जाने की दिशा में बढ़ जाता है । लगभग 500 मीटर, लगभग का लदभग नहीं , वरन् वास्तविक में 500 मीटर आने पर मुझे लगा चींटियाँ उसे छोड़ सुस्ताने के मूड में हैं, परंतु कुछ ही क्षणों में मेरे ये विचार भ्रान्ति लगा । सही भी है , चींटियाँ आराम नहीं करते ! देखता हूँ , विपरीत दिशा में पेड़ है, जिनसे उतर कर सैकड़ों की संख्या में चींटी आकर उस मृत मकड़े के पास रुकते हैं और दोनों तरफ की चींटियाँ खड़े से होते हैं व इसी ढंग से मेरे चश्में को दिखाई पड़ते हैं । मुझे लगता है शायद, दोनों के बीच दुआ-सलाम हो रहे हैं या किसी व्यावसायिक वार्त्ता को अंजाम दिए जाने की बात उदभूत हो रही हैं ! लेकिन वार्त्ता जब यहीं पर समाप्त-सी लगी, तो लगा कोई व्यावसायिक वार्त्ता न होकर निःस्वार्थ 'पंचायती मीट' भर था । अब मेरा पीछा किये चींटी-दल वापस लौट रहे थे और अतिथ्यागत चींटी-दल मकड़े को आगे ले जाने के लिए अपने सैन्य-बल के साथ मोर्चा सम्भाल लिए थे , यहाँ समय न लेकर मैं इस वस्तुस्थिति के प्रति असमंजस में आ गया कि किनके तरफ अपना अभियान जारी रखूँ ? मैंने नया दल के साथ आँख-मिचाई शुरू की । फिर उसी भाँति उनके साथ मैं भी आगे बढ़ गया । ठीक 500 मीटर आने के बाद धरती में मुझे 2 अंगुली भर छेद दिखाई दिया । वे सब उनके पास रुक ठिठके, क्योंकि वे उस मकड़े को उस छिद्र में से प्रवेश कराकर नहीं ले जा सकते थे , वे चाहते तो मकड़े को टांग-हाथ अलगाकर व छिन्न-भिन्न कर उक्त छेद में ले जा सकते थे । खैर, वे मानवी कुकृत्य का दोहरीकरण नहीं किये, अन्यथा यहां भी लाशें टूटती ! .... फिर मैं उन चींटियों का पीछा किया, परंतु मेरा दुर्भाग्य कि मैंने चींटियों के ऐसे कृत्य का और भी अवलोकन नहीं कर सका, क्योंकि किसी पत्ता पर पहुँचे मृत मकड़े और चींटी-दल ऐसे हिल गया और उसी ढंग से बगल में बहती नाली में गिर गया । ओह, मैंने सोच लिया, यह इतिश्री हो गया , फिर मैं वापस अपने आँगन की तरफ हो गया । वापसी क्रम में ही मुझे लगा ..... ये चींटियाँ कहीं मुझे देख तो नहीं लिया था या उन्हें मेरा होने का अहसास तो नहीं हो गया था या वे सब किसी प्लानिंग के तहत पत्ता को नाव बनाकर कहीं दूर-सुदूर निकल तो नहीं गया ! मेरे मन में जब ऐसा क्रौंधा , तो उस तरफ जाने के लिए मैं लपका, जिधर को चींटियाँ सुसाइडकल उछाल भर नाले में पत्ते सहित कूदे थे , लेकिन वहाँ पहुँचकर मैं ऐसे चींटियों की नाव को नहीं देखा । नाली के साथ कुछ दूर और आगे बढ़ा ... और आगे बढ़ा... कहीं पत्ते वाली नाव मुझे दिखाई नहीं पड़े । अगर पत्ता 'नाव' नहीं बना होता, तो नाली पर उनका कुछ न कुछ अस्तित्व जरूर रहता ! मैंने गुलिवर के अभियान सदृश्य अभियान को गंवाया था । ....... इतना होने के बावजूद ये चींटियाँ मानवों के लिए यह सीख दे गया कि चींटियाँ की एकता के पगधूलि तक भी मानव-मात्र पहुँच नहीं सकते हैं !
'राष्ट्रीय एकता दिवस' (31 अक्टूबर) की ढेरों शुभकामनायें ।
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