जहाँ एक ओर 'पटरियों पर दुर्घटना' रुकने का नाम ले रही हैं , वहीँ दूजी ओर लेखिका सुश्री आकांक्षा अवस्थी ने 'रेल की पटरियों' पर ऐसा क्या देखा... ? पढ़ते है उन्हीं की जुबानी ... उनकी रूहानी कलम से इस 'अतिथि कलम' में । होइए रू-ब-रू......
"रेल की पटरियां : सुश्री आकांक्षा अवस्थी"
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हमेशा की तरह इस बार भी उनसे मिलने का दिन तय हुआ।
ये बात और है कि इस बार कुछ अलग ही मंजर था। बस का सफर था। यही कोई ढाई-तीन घंटे का सफर, ज्यादा से ज्यादा।
समय काटे ना कटे, इस बार ये अधीरता उल्लास की न थी, डर की थी। उसे खोने का डर जिसने 'मुझे मुझ से मिलाया'।
समय और बस दोनो ही आगे बढ़ रहे थे। पर मेरा मन पीछे को दौड़ा। आखिर क्यूँ हुआ ऐसा। मेरी गलती है, पर कहां ? फिर से इसी बात पर आकर अटक गया।
दिल और दिमाग की इस जंग में एक रिश्ता हारता सा दिख रहा था मुझे। “नहीं, ये क्या हो रहा है? क्यों तुम्हें खुद पर काबू नहीं है? ये क्या खोने जा रही हो?”…… मेरा दिल मानो सफर के शोर-शराबे में चीख चीख कर मुझसे कह रहा था।
मेरी आंखो के सामने सारे प्रकरण एक साथ ऐसे बिखरे मानो मुनीम के हाथों से बही-खातों के पन्नें गिर के बिखकर गए हों। जिस पन्ने पर नजर पड़ती मेरी खामियां दिखाई देती। इतना गंभीर स्व-अवलोकन तो तब भी न हुआ था जब उसने बार बार कहा था- ‘’रिकन्साइल योरसेल्फ’’।
असली अवलोकन तो अब हुआ। हर गलती के लिए क्षमा मांगना चाहती थी। पर मुझे पता था उसे मेरी माफी से कोई सरोकार नहीं। वो तो सिर्फ मेरे बदलते स्वभाव से हैरान था। आज मैं भी हूँ। वो शायद जानता था कि मेरे दर्द का कारण मैं स्वयं हूँ(और उसके भी) और निवारण भी मैं ही कर सकती हूं। मैने सोच लिया था मुझमें उसे खोने का सामर्थ्य नहीं हैं। मैं माफी मांग लूंगी। मना लूंगी। “आगे से कभी ऐसा न होगा। पर तुम मुझसे घृणा न करना। मुझे छोड़ के मत जाना"।...
इन शब्दों को पाठ की तरह मन में दोहरा रही थी। और शब्द जोड़े, कभी घटाये। उसे खोने का भय हर चीज से ज्यादा बड़ा हो गया।(इसी कारण माफी के वक्तत्व याद करने पड़े,शायद अभी भी मन के किसी कोने में खुद के सही होने का अभिमान था)
फोन की घंटी ने मेरी पाठ याद करने की साधना को तोड़ दिया। मोबाइल की स्क्रीन पर नाम न दिखा, शायद आंखों की कोर पर नमी अभी भी ठहरी थी। फोन उठाते ही एक आवाज ने ज्ञान की धरा से सपनों के आकाश पर ले फेंका।
हां, उसी ने याद किया। और फिर मैं सब भूल गई। फिर किसी अभिमान ने मेरे विवेक पर कब्जा कर लिया। ये गलत भी तो नहीं, हृदय के संबधों में कैसा विवेक? (पर ये बात तब तक ही तो लागू हो सकती थी जब तक कोई दहलीज न लांघी जाए।)
मन विचलत सा हो गया। पिछले दिनों की कटवाहट आंखों में खटकने लगी।
और आंसुओं को छुपाने की मेरी सारी कोशिशों पर आंसू फिर गए। इस बार मैंने रोका भी नहीं। आंसुओं से दिल की जलन नहीं कम करनी थी। बस पिछला सब कुछ बहा देना चाहती थी। बगल की खाली सीट ने मुझे खुल के रोने का मौका दिया। फिर भी एहतियात तो बरतनी ही थी, कोई देख न ले।(छुप के रोने में महारथ तो हासिल थी ही)
मेरी मंजिल आ गई। बस से बाहर तो आ गई पर सारी बातें वहीं भूल गई, शायद ही कुछ याद रहा हो (आंसू पोछने के सिवाय)
हम दोनों नियत रास्ते पर चल दिए। वही सड़क जो न जाने मेरे कितने भावों की साक्षी रही है। कार सड़क के एक ओर खड़ी हो गई। सामने के शीशे से देखा,सड़क के दूसरे छोर से कोहरा मुंह बाए चला आ रहा था।
हम दोनो ही मौन थे। शुऱूआत उसने ही की (हमेशा से एक अभिमानी चाहता है पहल सामने से हो, शायद मेरी भी यही इच्छा थी या शायद कुछ भी बोलने का साहस न था)
"ये कोहरा देख रही हो, कैसे हमारी ओर बढता जा रहा है जल्द ही हमें ढ़क लेगा।" उसने कहा,मैं मौन रही।
उसके बात करने की कोशिशों में मैं बस इतना ही कह पाई, ‘’ मेरी ही गलती है। मुझे एहसास हो गया है। माफ कर दीजिए।’’
"बात माफी की नहीं है", वो बोला।
फिर पिछले कुछ समय की ख़ामोशी ऐसे टूटी मानो बादल फट पड़ा हो,जब उसने कहा- "चलो अपने रिश्ते को निर्धारित कर लेते है। मुझे लगता है इसी वजह से सारी परेशानियां है। तुम बताओ , 'क्या रिश्ता है मेरा-तुम्हारा'।"
शब्द हैं ही नहीं मेरे पास ये बताने को की क्या गुजरी मुझ पर। उसके ये शब्द मेरे कान में ऐसे गए जैसे कोई गरम पारा घोल दे।
जो इस सम्बन्ध को समजिक बंधनों से मुक्त बताता हो। जो खुद आजतक हमारे वास्ते का सुनियोजित नामकरण न कर पाया हो वो आज रिश्ते को नियत करने को कह रहा था।
मैँ किसी और ही दुनिया में थी,कुछ बोलने की हिम्मत न थी। मैंने सोचा रिश्ता उसका है तो नाम भी उसे ही देना चाहिए। (मैंने तो कभी सोचा ही न था की अधरों और बांसुरी के सम्बन्ध का कोई नामकरण भी हो सकता है)
उसकी कोई भी बात सुनने की मेरी कोई अभिलाषा न थी। मेरे लिए वो आज भी वही था । जैसा पहली बार एहसास हुआ था जब मेरा हाथ थामा था उसने, हक़ से कहा था- "अपना हाथ देना"....
खैर आगे वो हमारे रिश्ते को नियत करने लगा। और मेरा मन ऐसे व्याकुल हो रहा था उसके सीने से लग जाने को जैसे आज ये मेरे संबंधो का अंत है, और उसके रिश्ते का आरम्भ।मुझे पता था वो मुझसे ज्यादा देर दूर न रह पायेगा। मन से तो आज भी वो वही है ना। मैंने ही मजबूर किया है उसे ये सब व्यवहारिकता और औपचारिकता करने को।
आखिर उसने नाम रख दिया हमारे रिश्ते का--- "रेल की पटरियां"।
वो बोला,
"रेल की पटरियों सा रिश्ता है हमारा। जीवन भर साथ रहना है हमे। मगर समानंतर रूप से।
हम रेल की पटरियों से साथ चलेंगे हमेशा...हमेशा.....
मगर 'सामानांतर'......."
ह्म्म्म! सच ही तो है। गलत क्या है इसमें? मेरे लिए तो साथ जरुरी है। उसी का अस्तित्व है। बाकि से क्या मतलब मुझे। मैंने हामी भर दी।
इस तरह हमने एक साल पीछे जन्मे एक सम्बन्ध का नामकरण किया (हालाँकि ऐसा सुना है कि नवजात शिशु का नामकरण हो जाये तो ही अच्छा क्योंकि उसके नाम के अनुरूप ही उसका आचरण बनने लगता है।)
मुझे ख़ुशी हुई और इस बात का एहसास भी के वो भी मेरा साथ चाहता है, मेरी ही तरह...। हम जुदा हो ही नहीं सकते।
मैंने उसकी हर बात मान ली,उसने मेरी।
उसने हमेशा की तरह मुझे बाँहों में भर लिया, इसी एहसास का इंतजार था कब से मुझे.....
कुछ पल के लिए सब बेईमानी लग रहा था। सबंध,रिश्ता-नाता सब फ़िज़ूल । लगा ये पल ही सत्य है यही साकार।
मेरी आँखों के सामने एक चित्र आया,मेरी कल्पना या मेरा भय था शायद....
" रेल की पटरियां बड़ी दूर से एक दूसरे का साथ निभाती चली आ रही थी। एक वो भी तो जगह होती है जहां पर दो अलग अलग पटरियां रास्ता बनाने को आपस में जुड़ जाती हैं। अद्भुद था वो दृश्य कभी न मिलने वाली पटरियां कैसे एक दूजे से मिल गयी।
मगर जब उन पटरियों ने दो नए रस्ते बनाये तो कुछ समझ ही नही आया। कौन किसके साथ हो लिया?
पहले से चला आ साथ बरकरार है? या दूसरे के साथ बदल गया।"
खैर जो भी है अभी तो साथ ही है।
इस ख्याल के साथ जैसे ही आँखे खुली तो देखा, कोहरे ने हमे घेर लिया था। कुछ भी न नजर आ रहा था हर तरफ धुंध ही धुंध....मानो कोई भाप वाली रेल गाड़ी पीछे छोड़ गयी हो,धुँआ ही धुँआ .....और वो पटरियां...
अच्छा है , पटरियां न मिले न सही कम से कम एक दुसरे के साथ होने का अहसास तो बना ही रहता है ।
ReplyDeleteअच्छा है , पटरियां न मिले न सही कम से कम एक दुसरे के साथ होने का अहसास तो बना ही रहता है ।
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