मुजफ्फरपुर , बिहार की कवयित्री डॉ. अनिता सिंह अक्सर तन्हाई में अतीत के पृष्ठों के साथ अपनी लेखनी से प्रेम-रोशनाई की शब्द-चित्र बनाती है । इस बार तीनों शब्द-चित्र नज्म अथवा कविता के रूप में मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट के पाठकों के लिए द्रष्टव्य है । कविता-त्रय से स्पष्ट होता है कि कवयित्री गंभीर लेखन क्षेत्र से जुड़ी है । शब्द विन्यास भी वही पुराने ढर्रे की है जो कभी महादेवी वर्मा की कविता में उपलब्ध हो जाती है । कविता में कुछ वचनीय भूल है , परंतु कविता के अंदाज को देखते हुए बिंदास कवयित्री को संदेह का लाभ दी जा सकती है । आगे पाठकगण स्वयं रू-ब-रू होइए ...
खुद की तन्हाई में ,आह भरते रहे
वो सितम पर सितम रोज करते रहे।
है ये उनका ठिकाना,है उनका शहर
सोंचकर बस्तियों में , ठहरते रहे।
देख लें अपनी खिड़की से वो इक नज़र
जानकर उस गली से , गुज़रते रहे।
एक दिन फिर अचानक ,बुलाएँगे वो
इसलिये हर घड़ी , हम संवरते रहे।
बिन तुम्हारे चमन है , परेशाँ बहुत
शाख़ से ख़ुद-ब- ख़ुद , फूल झरते रहे।
टूट जाये ना ये डोर है प्रीत की
हम इसी बात को ले के डरते रहे।
वो जगह रिक्त थी जो तुम्हारे बिना
हम उसी को हमेशा ही भरते रहे।
बैठो तो तुम्हें आज मैं थोड़ा सँवार दूँ
लेके बलाएँ आपकी,नज़रें उतार दूँ।
आँचल में भर लुँ , तेरे हिस्से का वीराना।
सारा चमन का गुल ,तुझपे ही वार दूँ।
मैं दूँ वसंत , पेड़ की दूँ कोपलें हरी
मैं दूँ तो पूरी आपको , फ़सले बहार दूँ।
पड़ने न दूँ तेरे कदम, कभी ज़मीन पर
तेरी डोली को अपने ,कंधे कहार दूँ।
मैं गीत लिखूँ दर्द का,या प्यार की ग़ज़ल
मैं लिखते लिखते ज़िंदगी पूरी गुज़ार दूँ।
कभी तो आज़मा ले ,मेरे करीब आकर
तेरे गले को अपने , बाँहों के हार दूँ।
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चहूँ ओर से गंध झरी है,
आज सुबह सौग़ात भरी है
नई नवेली सी कलियों की
उषा ले बारात खड़ी है ।
बहुत दिनो के बाद कहीं जा-
ख़ुशियों की अब नज़र पड़ी है।।
दूर-दूर तक फैली दूबा
बेहद सुन्दर, हरी-हरी है।
लाज़ ने अब घूँघट-पट खोले
अमवा डाल पपीहरा बोले।
कोयल, सुर में मिसरी घोले,
सोन चिरईया पर को तोले।
नई बहुरिया राह देखती
रूप निहारे घडी -घड़ी है।
अभी चली है,सर्द हवाएँ,
कुहरा भी है जमा जमा सा।
सूरज ठिठक गया राहों में,
दिन लगता है थमा थमा सा।
प्रीत पिरोयेगी फसलों में,
बरस रही बूंदों की लड़ी है।
डॉ.अनिता सिंह
मुजफ्फरपुर (बिहार ) ।
"तीन कविता : एक कवयित्री"
खुद की तन्हाई में ,आह भरते रहे
वो सितम पर सितम रोज करते रहे।
है ये उनका ठिकाना,है उनका शहर
सोंचकर बस्तियों में , ठहरते रहे।
देख लें अपनी खिड़की से वो इक नज़र
जानकर उस गली से , गुज़रते रहे।
एक दिन फिर अचानक ,बुलाएँगे वो
इसलिये हर घड़ी , हम संवरते रहे।
बिन तुम्हारे चमन है , परेशाँ बहुत
शाख़ से ख़ुद-ब- ख़ुद , फूल झरते रहे।
टूट जाये ना ये डोर है प्रीत की
हम इसी बात को ले के डरते रहे।
वो जगह रिक्त थी जो तुम्हारे बिना
हम उसी को हमेशा ही भरते रहे।
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लेके बलाएँ आपकी,नज़रें उतार दूँ।
आँचल में भर लुँ , तेरे हिस्से का वीराना।
सारा चमन का गुल ,तुझपे ही वार दूँ।
मैं दूँ वसंत , पेड़ की दूँ कोपलें हरी
मैं दूँ तो पूरी आपको , फ़सले बहार दूँ।
पड़ने न दूँ तेरे कदम, कभी ज़मीन पर
तेरी डोली को अपने ,कंधे कहार दूँ।
मैं गीत लिखूँ दर्द का,या प्यार की ग़ज़ल
मैं लिखते लिखते ज़िंदगी पूरी गुज़ार दूँ।
कभी तो आज़मा ले ,मेरे करीब आकर
तेरे गले को अपने , बाँहों के हार दूँ।
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चहूँ ओर से गंध झरी है,
आज सुबह सौग़ात भरी है
नई नवेली सी कलियों की
उषा ले बारात खड़ी है ।
बहुत दिनो के बाद कहीं जा-
ख़ुशियों की अब नज़र पड़ी है।।
दूर-दूर तक फैली दूबा
बेहद सुन्दर, हरी-हरी है।
लाज़ ने अब घूँघट-पट खोले
अमवा डाल पपीहरा बोले।
कोयल, सुर में मिसरी घोले,
सोन चिरईया पर को तोले।
नई बहुरिया राह देखती
रूप निहारे घडी -घड़ी है।
अभी चली है,सर्द हवाएँ,
कुहरा भी है जमा जमा सा।
सूरज ठिठक गया राहों में,
दिन लगता है थमा थमा सा।
प्रीत पिरोयेगी फसलों में,
बरस रही बूंदों की लड़ी है।
डॉ.अनिता सिंह
मुजफ्फरपुर (बिहार ) ।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 01 अप्रैल 2017 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
भावनापूर्ण अभिव्यक्ति। सुंदर
ReplyDeleteसुन्दर कविताएं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचनाएँ आपकी👌👌
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