मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट में आज के अंक में कवि अनूप शर्मा की एक ज़िंदगानी वाली कविता पढ़िये और स्वयं संपादक और पाठक बन कविता के जज्बे को सलाम कीजिये ... तो पढ़ ही डालिये ...
बचपन के स्वप्न मेरे ,स्वपनिल-अनुभूति कैसा ??
रूप का एहसास जैसा ,चकित हूँ मैं हुआ कैसा ??
उत्साह की नूतन प्रवर्तक सी मुझे तुम लग रही हो !
सत्य मिथ्या से परे मैं पूछता, क्या तुम वही हो ??
तर्क बुद्धि क्षीण मेरी हो रही कैसे अचानक !!
चेतना को छेड़ती है , आज फिर कैसे कथानक !
ख्वाब के सत्यांश से मैं ,डर रहा हूँ फिर भयानक !
मौन हो सागर के जैसी ,फिर भी तुम कह रही हो
सत्य मिथ्या से परे मैं पूछता ,क्या तुम वही हो ??
लिख रहा था अब तलक मैं ,प्रेम के ही गीत सारे
सोच कर तुमको तुरत ही , गूंजने थे शब्द प्यारे ।
क्या कहूँ उस रूपसी पर, थे कभी सुख चैन हारे
रात की जैसे हिफ़ाज़त ,कर रहे हो, चाँद-तारे ।
अब स्वयं के ही गगन का ,सोचता था मैं रवि हूँ
पर तुम्हारी प्रेरणा से,हो गया छोटा कवि हूँ ।
लग रहा है मुखर नयनो को मेरे तुम ,पढ़ रही हो
सत्य मिथ्या से परे मैं पूछता, क्या तुम वही हो ??
इस धरातल में चिरंतन कब से तुमको गढ़ रहा था
स्वप्न की कितनी कहानी ,में तुम्हे मैं पढ़ रहा था
भावना पथ पर निरंतर ,मैं अकिंचन चढ़ रहा था
कैसे कर लू मैं भरोसा, हुबहु बिल्कुल वही हो
सत्य मिथ्या से परे मैं पूछता , क्या तुम वही हो ??
"क्या तुम वही हो"
बचपन के स्वप्न मेरे ,स्वपनिल-अनुभूति कैसा ??
रूप का एहसास जैसा ,चकित हूँ मैं हुआ कैसा ??
उत्साह की नूतन प्रवर्तक सी मुझे तुम लग रही हो !
सत्य मिथ्या से परे मैं पूछता, क्या तुम वही हो ??
तर्क बुद्धि क्षीण मेरी हो रही कैसे अचानक !!
चेतना को छेड़ती है , आज फिर कैसे कथानक !
ख्वाब के सत्यांश से मैं ,डर रहा हूँ फिर भयानक !
मौन हो सागर के जैसी ,फिर भी तुम कह रही हो
सत्य मिथ्या से परे मैं पूछता ,क्या तुम वही हो ??
लिख रहा था अब तलक मैं ,प्रेम के ही गीत सारे
सोच कर तुमको तुरत ही , गूंजने थे शब्द प्यारे ।
क्या कहूँ उस रूपसी पर, थे कभी सुख चैन हारे
रात की जैसे हिफ़ाज़त ,कर रहे हो, चाँद-तारे ।
अब स्वयं के ही गगन का ,सोचता था मैं रवि हूँ
पर तुम्हारी प्रेरणा से,हो गया छोटा कवि हूँ ।
लग रहा है मुखर नयनो को मेरे तुम ,पढ़ रही हो
सत्य मिथ्या से परे मैं पूछता, क्या तुम वही हो ??
इस धरातल में चिरंतन कब से तुमको गढ़ रहा था
स्वप्न की कितनी कहानी ,में तुम्हे मैं पढ़ रहा था
भावना पथ पर निरंतर ,मैं अकिंचन चढ़ रहा था
कैसे कर लू मैं भरोसा, हुबहु बिल्कुल वही हो
सत्य मिथ्या से परे मैं पूछता , क्या तुम वही हो ??
Adbhut rachana
ReplyDeleteAdbhut rachna
ReplyDeleteGreat poetry, quite impressive Mr anup sharma
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