'मैसेंजर ऑफ़ आर्ट' लेकर आई है, नारीवादी कवयित्री सुश्री जया यशदीप की मशहूर नारीवादी कविता 'सुनयना' की अगली किश्त.... हालाँकि 'सुनयना' की पिछली कड़ी अन्यत्र प्रकाशित है, तथापि प्रस्तुत कविता 'हर स्त्री एक अलार्म होती है' स्वयं में भी पूर्ण कविता है , अब पढ़िए:-
'सुनयना' (कविता) : सुश्री जया यशदीप (कवयित्री)
'हर स्त्री एक अलार्म होती हैं'
हर स्त्री में एक अलार्म होता है
जो खुद निर्धारित करता है समय
लालसाओं का, कामनाओं का, महत्वाकांक्षाओं का,
और कुछ अनियंत्रित तूफानों का।
स्त्री को पसंद होता है तूफानों से खेलना
पर समय समय पर बज उठता है यह अलार्म
जब थोड़ा और, थोड़ा और
की समय सीमा खुद मस्तिष्क बढा देता है ।
जब बढता है लालच
आवाज़ सुनने का
आंखों की टोह लेने का
और सीने पे इक उंगली रख कर कहने का 'ऐ! सुनो! '
चाय पीते तुम्हारे गर्म होठों को, छू देने भर का लालच!
लालच ये शाल हटा देने का,
जो तुम सुबह सैर पर ले जाते हो ।
और लालच तुम्हारा कांधा पकड़ के तसल्ली से तुम्हें कुर्सी पर बैठाने का ।
और पूछने का "क्यों है इतनी हलचल ? "
नहीँ नहीँ...
तुम्हारे गीतों में नहीँ
तुम्हारी आवाज़ में नहीँ
पर कही तो है कंपन!
इतना कहकर धीमे से तुम्हारी आंखें ढांप लेने का लालच
अपनी हथेलियों से ।
तुम्हें संपूर्ण जान जाने का लालच ।
पर अब अलार्म बज उठता है
समय समाप्ति का ।
अब बोलो तुम "मैं लांघ जाऊं क्या यह समय ?"
तुम कहोगे "नहीँ सुनयना, वही रहो,
अलार्म सुनो ।
और तुम्हारी आंखों पर ,अब तक रखे मेरे हाथ तुम थाम लोगे ।
फिर कहोगे "ये समय सीमा रहने दो, मैं तुम्हें स्वर्ण सा रक्त तप्त देखना चाहता हूँ, प्रेम में "
परिपूर्ण ! आकाश सी विस्तृति लिये ।
और मैं उम्र भर चुटकी चुटकी इस स्वर्ण भस्म को
जिह्वा में स्पर्श कराये अमर बनूँगा ।
कितने निष्ठुर !! मैं कोसूंगी जी भर तुम्हें । तुम ऐसे निर्मोही हो और तुम वही दाहिनी कलाई मोड़ दोगे, तुम्हारी माँ ने पहनाने हैं जिसमें कंगन । कहोगे " सुनयना !जो तुम नहीँ सुनोगी, तो लांघ जाओगी समय " और लांघे हुऐ समय के पार अलार्म नहीँ बजते। फिर कैसे लौट पाओगी वापस?
बोलो ! सुनयना...
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खिला बुरांश चेहरे पे...
और दबी दूब ह्रदय के आँगन में।
सालों साल वो चढ़ाती रही
हर पूजा हर अनुष्ठान में यही सब
सुबह झूठे बर्तन साफ़ करने से
रात पानी का लौटा सिरहाने रखने तक।
साँझ होते रोज़ हरा भरा करती
ह्रदय के आगाँन की दूब
सपने दिखाती उन्हें वो।
"एक जोगी " के अस्तित्व में होने का यकींन दिलाती उन्हें।
और फिर सब सच हुआ !
एक गाँव से आया एक जोगी ,उसके घर।
वो आनन्दित था हर्षित था उसके सेवा भाव से।
विस्मित था उसकी विद्वता से।
और रूप !!
अभी वो दिखा कहाँ था!
साँझ होती, तब फिर हरी भरी होती हृदय की दूब।
और वो जोगी बैठता पास उसके ,कहता
"सुनयना ! सुबह जब तुम गुनगुनाती हो कबीर को, मैं सुध बुध खोता हू "
कुशल ग्रहणी हो, सिद्धहस्त तुम।
कभी तुम्हे दीक्षा दूंगा।
ये कह बस उसकी घूघट पड़े चेहरे की ,ठुड्डी भर देख पाता।
जाने क्या था इस जोगी की बातों में!
ज्ञान से दूर ,वो बस प्रेम में थी।
वो ! सुलगती रहती दिन ब दिन ,वो और भी महकती
साँझ होते ही।
वो सरकाने लगी पल्लू सर से थोड़ा और ऊपर
आँखों तक बस।
अधर दिखे, पहली बार सुनयना के ,जब सुना रहा था फिर वो दुनिया भर के किस्से।
सम्मोहित करता और रोज एक जादू दे देता उसे चबाने रात भर ।
फिर एक सांझ कुछ यू हुआ कि संग में हो गयी रात भी
जोगी ज्ञान बांचता रहा, जादू दिखाता रहा और कुछ जादू रखता रहा उसके अधरों पे।
बोला 'सुनयना ! तुम योग्य हो तुम्हे दीक्षा दूंगा "
संरक्षित करूँगा अपनी प्राणऊर्जा के अंश से तुम्हारी सब शक्तियां।
सब निभा पाओगी क्या ?
सुनयना दहक उठी और भी ,उस कार्तिक पूर्णिमा की रात
सम्मोहित सी बोल पड़ी
पल्लू सर से सरकाती
"ओ जोगी ! जूड़े से कर्णफूल का कांटा तो निकालो पहले !
"ओ जोगी ! जूड़े से कर्णफूल का कांटा तो निकालो पहले !
खोल दो जुड़ा !
तुम्हारी बातों से ह्रदय की दूब खिल खिल गयी ,ये वृक्ष बन रही है
चीरती मेरा संयम ,ह्रदय और मस्तिष्क के काबू नहीं है अब यह दूब ...
चुप रहो !
आओ !
"खेलने दो अंगिया के फीतों से हवा को
खोल दो इन्हे, झूलने दो कमर से दाएं , बाएं "
अब कमर पे धरो हाथ
करधनी उतारो और अपना नाम लिखो पीठ पे मेरी।
आओ! मैं बतलाऊ तुम्हे सम्मोहन का काट क्या होता है ?
अब पायल उतारो।
और चूम लो तलवा मेरा ,जहाँ वो कांटा चुभा था।
उतना ही हिस्सा देह का माँगा था प्रेम ने
और मैंने तुम्हे तिल तिल भर नाप के सब दिया आज।
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खेतों में घूमते घूमते...
मेरी उँगलियों में पहना दी तुमने
मटर की स्पर्शिकाओं से अंगूठी
और जाने कब पीछे से आ कर
मुझे बाँहों में भर...!
किसी जंगली फूलो की बेल का ताज बना
पहना दिया मेरे सर पर...
तब से मुझे होश नहीं है !
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