'11 साल पहले 11 साल के बच्चे से बिछुड़ गये थे दादू'
मेरे दादू व दादाजी(Great Grandfather) 18 जनवरी 2006 को इस "दुनिया" को छोड़कर ....एक "अजीबो-गरीब" दुनिया में चले गए । जिसका पता शायद ही किसी को हो !!
नमन दादू !
आप 1942 संग्राम से लेकर स्वतंत्रता, फिर जीवनपर्यंत संग्राम के सेनानी अभी भी हैं, क्योंकि "स्वतंत्र" लोगों की सांसे कभी रूकती नहीं । आप "सत्संगी" अभी भी हैं, क्योंकि सत्य कभी पराजित होती नहीं । आप परमाराध्य महर्षिमेंही महाराज के शिष्य हैं, क्योंकि गुरु-शिष्य की परम्परा भी कभी ख़त्म होती नहीं । भारत की सबसे प्रख्यात साहित्यिक पत्रिका 'हंस' ने फरवरी , 2004 में मेरे दादाजी को 'आवरण पृष्ठ' पर जगह दिया है ।
आज दादा जी की पुण्यतिथि पर उनके कहें 'दो' बातें मुझे याद हो आई ।
वे अक्सर कहा करते थे :--
#बीमार से अवश्य प्रेम करो, उनके बीमारियों से नहीं ।
#दुनियाभर के सभी काम-धाम छोड़कर, प्रथमतः 'खाना' को प्राथमिकता देना चहिये, क्योंकि उसी खाने के पीछे ही इंसान काम करना सीखता है, लेकिन मानवता को छोड़कर कदापि खाना नहीं चाहिए, परंतु राष्ट्रसेवा से बढ़कर कोई नहीं ।
21 वीं सदी में भी परंपराएं "अजीब" रही है, जैसे हिन्दुओं में आग देने के बाद श्मशान घाट में अच्छे पकवान का खाना, उस समय मैं 11 साल का था और दादू के प्रिय और दुलारू पोता होने के कारण मुझे ही उन्होंने मुखाग्नि देने को कहा था और मैंने दिया भी, पर किसी इंसान के मुख में आग रखना, वो भी जिसे आप प्यार करते हो ....ये किस टाइप का धर्म है, रिवाज़ हैै, परम्परा व प्रथा है और इसेे कौन सी मानवता कहेंगे हम !!
दादाजी को सहस्त्रश: सादर नमन् ।
-- प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
0 comments:
Post a Comment