साइंस 'मंगल' पर बस्ती बसाने को दृढ़ोत्सुक व जद्दोजहद में है, पर प्रेम ,अकेलापन ,दर्द, प्यास, तड़प इत्यादि शे'र, ग़ज़ल, नज़्म बन न केवल 'स्पेस', अपितु हर जगह , यहांतक की ब्लैकहॉल में भी अपनी बस्ती बगैर पूछे ही बसा लेती है, क्योंकि 'रूह' अगर पूछे, तो किनसे पूछे ? रूह तो रूह हैं, ऊर्जा के संरक्षण-सिद्धांत सहित 'ब्लैक-हॉल' में भी जगह बना लेती है । हम आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट के अंक में लेकर आएं हैं :- सयाने सफ़र को ढूंढ़ती बस्ती की अनसुनी कविता 'मेरी रूह', जो कवयित्री नंदिता तनुजा से प्यार पाकर वे कभी ख़ामोशी में, तो कभी खुद में क्या ढूढ़ रही हैं , तो आइये आप खुद निदान ढूंढकर इसे पढ़िए:-
'ब्लैकहॉल में सफ़ेद-आत्मा'
मेरी रूह
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आ गये हम कहां ?
ख़ामोशी तेरे-मेरे दरम्यां
बीते लम्हों की कसक यहां
फासलों से मिला सूना जहां
देख बिछड़ ,आ गये हम कहां !
क़बूल कर हर सितम-ए-वफ़ा
मुस्करा के भी दर्द लिया यहां
विघ्न काँटो से सीखा सहना
दर्द को ले, आ गये हम कहां !
कभी इक नज़र के लब प्यासे
ले जाय तुमसे बहुत दूर कहाँ
तिश्नगी बन तू यूं साथ चलना
इश्क़ बन, आ गये हम कहां !
हक़ीक़त क्या बयां करे अपना
कहो तो खामोश हो जाये यहां
चाहा जब कभी तुमसे कहना
रोक लिए कदम, आ गये हम कहां !
भुलाने से भी न भूले वो दास्तां
सजा बनी वक़्त की रज़ा यहां
सारी उम्र इंतज़ार इन्तेहां यहां
यादों को छेड़, आ गये हम कहां !
बेशक ! बेरुखी में नाराज़ यहां
अपनी राहें नसीबन जुदा यहां
वक़्त की बात है जवाब अपना
पूछेंगी वफ़ा , आ गये हम कहां !
होता न तय 'गर इश्क़ का सफां
एकबारगी रूह तन्हा करते यहां
होगा तो कबूल , इश्क बन यहां
'नंदिता' कहती ,आ गये हम कहां !
नमस्कार दोस्तों !
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