सदियों से लेकर अभी तक 'रामायण' से गुजरते हुए 'कुरआन' तक सभी ग्रंथों में नारी के साथ व्यथा नाम जुड़ी हुई पाई गई हैं, लेकिन 'श्रीमती सीमा भाटिया' ने कौन-सी ऐसी प्रश्न उठाई है कि इस 'व्यथा' पर समाज की व्यवस्था और साहित्य की 'कु या सु व्यवस्था' आंदोलित हो चुकी है, 'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' के इस अंक में उनकी जुबानी ही पढ़िए ...
'नारी व्यथा या कविता'-एक प्रश्न : 'सीमा भाटिया'
बहुत खूबसूरत सवाल। पर जवाब किसी के पास नही शायद। सदियों से नारी के बारे लिखते रहे महान कविवर, साहित्यकार। भरी पड़ी किताबें बाजार में नारी की सुंदरता को बयान करतीं, उसके वजूद का जायजा लेती, उसके गुणों का बखान करती हुई, उसकी कमजोरियों को भुनाने की कोशिश करती हुई।
बातें कड़वी जरूर हैं, पर हैं तो सच। कबीर, तुलसीदास से लेकर निराला, हरिवंशराय बच्चन हों या आज के समय के लेखक या कवि, सबने नारी मन को पढ़ते हुए बहुत कोशिश की नारी की स्थिति संभालने की, उसे सम्मान दिलाने की।पर क्या सच में उनके प्रयास काफी रहे स्थिति संभालने में?
आज औरतें पढ़ लिख गई हैं , स्वावलंबी बन गई हैं, फिर भी कहाँ है अस्तित्व उसका खुद का। आज भी उसका आगे बढ़ना या नही बढ़ना सब उसके माता पिता की मर्जी से शुरू होती।उसे पढ़ाने लिखाने से लेकर उसकी उच्च विद्या तक का फैसला माता पिता के ही हाथ रहता ।
सबसे बड़ी दिक्कत उसे उच्च विद्या या नौकरी से लिए घर से बाहर भेजने में महसूस होती। फिर उसकी शादी का मुद्दा, अच्छा रिश्ता ढूँढने के साथ २ शादी बयाह के खर्चों के चलते बेटियाँ हमेशा बोझ ही रही माँ बाप के लिए।
और आगे चलकर ससुराल में अपना वजूद ढूँढने की लड़ाई, जो कभी उसका अपना घर नहीं बनता। जरा जरा बात पर यह धमकी कि यह तुम्हारा मायका नही जहाँ रौब चलेगा तुम्हारा। पति, बच्चों, ससुराल की जरूरतें पूरी करने में कब जिंदगी बीत जाती उसकी, पता भी नही चलता उसे।
यह स्थिति नारी की कल भी थी. आज भी है और आगे भी रहेगी, शायद थोड़ी modification जरुर हो गई है। वो भी जब परिवार के लिए पैसा कमाने की बात हो , या बच्चों की परवरिश कुछ जिम्मेदारियों डाल कर उसे आजादी का एहसास दे दिया बस।
यही पर कहाँ खत्म होती है व्यथा? घर परिवार हर जगह अपनी अस्मिता को बचाने की लड़ाई भी तो लड़नी पड़ती उसे घर में, दफ्तर में - समाज के हर क्षेत्र में उसे सिर्फ़ जिस्म के रूप में देखने वालों की कमी नही। चाँद तक पहुँच गया चाहे इंसान, पर अपनी घटिया सोच से कभी नही उभर पाया पुरातन काल से लेकर यह Social Media के समय तक भी।
फिर सवाल यही उठता कि यह हमारा बुद्धिजीवी वर्ग कब तक नारी व्यथा को कविता के रूप में प्रस्तुत कर सिर्फ वाहवाही बटोरने में लगा रहेगा? क्या खुद भी कभी हम सब अपने गिरेहबान में झाककर यह जानेंगे कि हम खुद भी नारी को सम्मान देकर उसकी व्यथा को कम करने का प्रयास क्या सच्चे मन से कर रहे हैं?
कहीं हम भी उसकी व्यथा को बयान कर बदले में सिर्फ likes और comments की अपनी भूख ही तो नही शांत कर रह या बदले में महिला मित्रों का दायरा बढ़ा कर अपनी अधूरी वासनाओं की पूर्ति का रास्ता तो नही तलाश रहे ??यह मनन का प्रश्न है...
पाठकों से निवेदन हैं , वे अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से हमें अवगत कराएँगे : धन्यवाद ।
-- MESSENGER OF ART .
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