सुश्री अमृता अंजुम ने एक दुःखद संस्मरण की रचना की है । इस बार मैसेंजर ऑफ़ आर्ट की नजर इस रचना पर पड़ी । औरत को अबला कहा गया हैं, उसपर भी दुखियारी, मरने के बाद उनके प्रेमपाश में बंधे सम्बन्ध 'सास या ननद' के रिश्ते जो भी रहे हों , परंतु पति नामक जीव जो अपनी पत्नी से अनन्य प्रेम करते है,वो भी पत्नी के मरते ही 'दूसरी औरत' की कामना करने लग जाते हैं । सुश्री अंजुम की जुबानी पढ़िए यह दुःखद दास्ताँ ...
पिछले दिनों रिश्ते में एक भाभी जी का देहावसान हो गया ।युवा ही थी अभी । गरीबी और अभावों में आखिर एक बीमार कितना जी पाती ।सुना है उनके लिवर में लम्बे समय से दिक्कत चल रही थी ।
जब मैं पहुंची तो भाभी जी का पार्थिव शरीर आंगन के बीचोंबीच रखी थी ।पास ही कुछ औरतें दहाड़े मार मार कर विलाप कर रही थी,जिनमें पार्थिव की मां और सास भी थी ।
सास रोते हुए " सरीता मेरी बच्ची मेरी बेटी थी तू ,तेरे बिन सबकी दुनिया सूनी हो गई ।अब हम किसे देखकर जीएं ? "
मां चुपचाप ।सिर्फ आंसू की धारा बह रही थी ।
पास ही ननद, जेठानी और कुछ करीबी रिश्तेदार भी जोर जोर से विलाप करती रही ।
बाहर से कुछ रिश्तेदार स्त्रियां रोते हुए आती है कुछ देर विलाप कर पार्थिव भाभी जी की अच्छाइयों को याद करते हुए बात करती हैं ।
इधर एक तरफ पुरूष समाज बैठा हुआ था जिनमें दिलीप भाई साहब जिनकी मृतक बीवी थी नीचे सिर किए चुपचाप बैठे थे ।पास ही मृतका के ससुर भाई और जेठ देवर बैठे शोक में डूबे हुए थे ।मानो हर कोई शोक में डूब गया हो सबके नेत्र भीगे हुए थे ।
ऐसा माहौल देख मुझे भी भाभी जी के साथ मिलकर बिताए पल याद आ गई, जिससे मेरी भी आंखें बर्बस छलक आई ।पर मरने वाली तो मर चुकी है सिर्फ यादें ही बची है ।ये सोचा और मृतका की सास पर दृष्टि पड़ी जो दहाड़े मार कर रो रही थी ।मैंने सोचा कितना प्यार था सास बहू में "मेरी सरीता मेरी सरीता "हो रही है ।शायद बेटी की तरह थी ।
मां भी अनवरत आंसू बहा रही थी ।पूरे वातावरण में इतना दर्द भरा था कि कोई लाख रोना न चाहे तो भी आंसू न रूके ।
थोड़ी देर बाद ब्राह्मण आ गया मृतका को कुछ महिलाओं ने स्नान करने के बाद ब्राह्मण ने विधि से मंत्र जाप कर पार्थिव शरीर को कफन में बांधकर अर्थी पर लेटा दिया ।
महोल बहुत गमगीन हो गया ।अंतिम यात्रा का समय आ गया था ।
मृतका के बच्चे बिलख रहे थे मां को हमेशा के लिए दूर करना न बन पा रहा था ।
पतिदेव भी आंसू में डूबे हुए अर्थी के साथ चलने को तैयार हुए थे कि पीछे से किसी वृद्ध महिला ने आवाज लगाई कि दिलीप को न लेकर जाएं ।अभी इसकी उम्र ही क्या है ।फिर से घर बांधना है ।
सब ने स्वीकृति दी और दिलीप भाई जो अब तक पत्नी वियोग प्रलाप कर रहे थे चुपचाप इस बात को स्वीकार कर एक कोने में जाकर बैठ गए ।
मैं देखकर सन्न रह गई सोचने लगी -" बीस साल का पति-पत्नी का प्रेम के बंधन को टूटने में बीस क्षण भी न लगे ।
और वो सास जो अब तक बेटी बेटी चिल्लाकर रो रही थी उसके भी भाव इस समय बदलकर पुत्र का फिर घर बसाने की योजना तैयार करने लगा ।
मां अब भी चुप थी ।
पूरे समाज की स्वीकृति के साथ ।"
क्या था ये सब ?मेरा मन इस दृश्य से आंदोलित हो उठा ।
मेरे चेहरे के भाव एक बुजुर्ग ने पढ लिए ओर मेरा हाथ पकड़कर एक ओर लेजाकर बोले "बेटी दुःख न कर । एक औरत जात की बस इतनी ही कहानी है ।जीते जी सब अपने है और मरते ही सब चाहते है जल्दी ले जाओ किसी के जीवन पर इसका काला साया न पड़ जाए ।सबको अपनी अपनी कुशलता की फिक्र पड़ी होती है ।"
"क्या बेटा मर गया हो तो बहू को भी ये अधिकार है? "मेरे मुंह से निकल गया ।
"बिल्कुल नही बेटी! बहू से अपेक्षा की जाती है कि वो इस परिवार का ,इसके हर सदस्य का,सास ससुर का ख्याल रखे, बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बनाने हतु कर्म करे। इसी में ही समाज का उत्थान है ।"
मैं आवाक देखती रही और चुपचाप अर्थी के साथ चल पड़ी ।पूरे राह आवाजें कानों में पड़ती रही
"हे ईश्वर! इस राह पर एक दिन सबको जाना है ।"किसी की आवाज सुनाई दी ।
"बहुत ही अच्छी औरत थी क्या भगवान् का ये न्याय है? अभी तो बच्चे भी छोटे हैं "किसी की आवाज सुनाई दी ।
किसी ने कहा "हो गया सो हो गया अब दिलीप के बारे मे सोचो पहाड़ सी जिंदगी अकेले कैसे गुजरेगी "
पार्थिव शरीर को मुखाग्नि दे सब जब लौट रहे थे तब सबके चेहरे पर एक अजीब संतोष का भाव था जैसे मानो कोई बोझ सा उतार कर लौट रहे हों ।
अब मां की आंखों में आंसू न थे गहन मौन था ।
सास अन्य महिलाओं के साथ बेटे के भावी जीवन को लेकर चिंतित प्रतीत हो रही थी ।
अन्य स्त्री पुरुष भी पूरी तरह से भार मुक्त प्रतीत हो रहे थे ।
ये दृश्य भीतर न जाने क्यों आंदोलन कर रहा था रह रह कर कानों में एक ही वाक्य बार बार सुनाई पड़ रहा था " औरत जात की बस इतनी ही कहानी है ।" कैसे लिख दी इस समाज ने औरत जात की ये कहानी ?
जिसने जन्म दिया ?
घर चलाया ?
वंश बढाया ?
समाज के हर तुच्छ नियम को अपनाया भले स्वयं हजारों दुःख सहे ?
संतति को संस्कार दिया ?
जिसने समाज बनाया ?
उस स्त्री की बस इतनी कहानी ....................?
अमृता अंजुम
'अंतिम यात्रा : संस्मरण'
पिछले दिनों रिश्ते में एक भाभी जी का देहावसान हो गया ।युवा ही थी अभी । गरीबी और अभावों में आखिर एक बीमार कितना जी पाती ।सुना है उनके लिवर में लम्बे समय से दिक्कत चल रही थी ।
जब मैं पहुंची तो भाभी जी का पार्थिव शरीर आंगन के बीचोंबीच रखी थी ।पास ही कुछ औरतें दहाड़े मार मार कर विलाप कर रही थी,जिनमें पार्थिव की मां और सास भी थी ।
सास रोते हुए " सरीता मेरी बच्ची मेरी बेटी थी तू ,तेरे बिन सबकी दुनिया सूनी हो गई ।अब हम किसे देखकर जीएं ? "
मां चुपचाप ।सिर्फ आंसू की धारा बह रही थी ।
पास ही ननद, जेठानी और कुछ करीबी रिश्तेदार भी जोर जोर से विलाप करती रही ।
बाहर से कुछ रिश्तेदार स्त्रियां रोते हुए आती है कुछ देर विलाप कर पार्थिव भाभी जी की अच्छाइयों को याद करते हुए बात करती हैं ।
इधर एक तरफ पुरूष समाज बैठा हुआ था जिनमें दिलीप भाई साहब जिनकी मृतक बीवी थी नीचे सिर किए चुपचाप बैठे थे ।पास ही मृतका के ससुर भाई और जेठ देवर बैठे शोक में डूबे हुए थे ।मानो हर कोई शोक में डूब गया हो सबके नेत्र भीगे हुए थे ।
ऐसा माहौल देख मुझे भी भाभी जी के साथ मिलकर बिताए पल याद आ गई, जिससे मेरी भी आंखें बर्बस छलक आई ।पर मरने वाली तो मर चुकी है सिर्फ यादें ही बची है ।ये सोचा और मृतका की सास पर दृष्टि पड़ी जो दहाड़े मार कर रो रही थी ।मैंने सोचा कितना प्यार था सास बहू में "मेरी सरीता मेरी सरीता "हो रही है ।शायद बेटी की तरह थी ।
मां भी अनवरत आंसू बहा रही थी ।पूरे वातावरण में इतना दर्द भरा था कि कोई लाख रोना न चाहे तो भी आंसू न रूके ।
थोड़ी देर बाद ब्राह्मण आ गया मृतका को कुछ महिलाओं ने स्नान करने के बाद ब्राह्मण ने विधि से मंत्र जाप कर पार्थिव शरीर को कफन में बांधकर अर्थी पर लेटा दिया ।
महोल बहुत गमगीन हो गया ।अंतिम यात्रा का समय आ गया था ।
मृतका के बच्चे बिलख रहे थे मां को हमेशा के लिए दूर करना न बन पा रहा था ।
पतिदेव भी आंसू में डूबे हुए अर्थी के साथ चलने को तैयार हुए थे कि पीछे से किसी वृद्ध महिला ने आवाज लगाई कि दिलीप को न लेकर जाएं ।अभी इसकी उम्र ही क्या है ।फिर से घर बांधना है ।
सब ने स्वीकृति दी और दिलीप भाई जो अब तक पत्नी वियोग प्रलाप कर रहे थे चुपचाप इस बात को स्वीकार कर एक कोने में जाकर बैठ गए ।
मैं देखकर सन्न रह गई सोचने लगी -" बीस साल का पति-पत्नी का प्रेम के बंधन को टूटने में बीस क्षण भी न लगे ।
और वो सास जो अब तक बेटी बेटी चिल्लाकर रो रही थी उसके भी भाव इस समय बदलकर पुत्र का फिर घर बसाने की योजना तैयार करने लगा ।
मां अब भी चुप थी ।
पूरे समाज की स्वीकृति के साथ ।"
क्या था ये सब ?मेरा मन इस दृश्य से आंदोलित हो उठा ।
मेरे चेहरे के भाव एक बुजुर्ग ने पढ लिए ओर मेरा हाथ पकड़कर एक ओर लेजाकर बोले "बेटी दुःख न कर । एक औरत जात की बस इतनी ही कहानी है ।जीते जी सब अपने है और मरते ही सब चाहते है जल्दी ले जाओ किसी के जीवन पर इसका काला साया न पड़ जाए ।सबको अपनी अपनी कुशलता की फिक्र पड़ी होती है ।"
"क्या बेटा मर गया हो तो बहू को भी ये अधिकार है? "मेरे मुंह से निकल गया ।
"बिल्कुल नही बेटी! बहू से अपेक्षा की जाती है कि वो इस परिवार का ,इसके हर सदस्य का,सास ससुर का ख्याल रखे, बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बनाने हतु कर्म करे। इसी में ही समाज का उत्थान है ।"
मैं आवाक देखती रही और चुपचाप अर्थी के साथ चल पड़ी ।पूरे राह आवाजें कानों में पड़ती रही
"हे ईश्वर! इस राह पर एक दिन सबको जाना है ।"किसी की आवाज सुनाई दी ।
"बहुत ही अच्छी औरत थी क्या भगवान् का ये न्याय है? अभी तो बच्चे भी छोटे हैं "किसी की आवाज सुनाई दी ।
किसी ने कहा "हो गया सो हो गया अब दिलीप के बारे मे सोचो पहाड़ सी जिंदगी अकेले कैसे गुजरेगी "
पार्थिव शरीर को मुखाग्नि दे सब जब लौट रहे थे तब सबके चेहरे पर एक अजीब संतोष का भाव था जैसे मानो कोई बोझ सा उतार कर लौट रहे हों ।
अब मां की आंखों में आंसू न थे गहन मौन था ।
सास अन्य महिलाओं के साथ बेटे के भावी जीवन को लेकर चिंतित प्रतीत हो रही थी ।
अन्य स्त्री पुरुष भी पूरी तरह से भार मुक्त प्रतीत हो रहे थे ।
ये दृश्य भीतर न जाने क्यों आंदोलन कर रहा था रह रह कर कानों में एक ही वाक्य बार बार सुनाई पड़ रहा था " औरत जात की बस इतनी ही कहानी है ।" कैसे लिख दी इस समाज ने औरत जात की ये कहानी ?
जिसने जन्म दिया ?
घर चलाया ?
वंश बढाया ?
समाज के हर तुच्छ नियम को अपनाया भले स्वयं हजारों दुःख सहे ?
संतति को संस्कार दिया ?
जिसने समाज बनाया ?
उस स्त्री की बस इतनी कहानी ....................?
अमृता अंजुम
लाजवाब
ReplyDeleteऔरत की सिर्फ इतनी ही कहानी के पीछे औरत भी तो जिम्मेदार है ।
ReplyDeleteक्यों वो सब कुछ निछावर कर देती है पति पर ।
क्यों वो अपनी जिंदगी का त्याग कर पति और बच्चों के लिए उनके सपनों के लिए ही जीती है ।
क्यों वो हर गलत बात को सह जाती है
क्यों वो सहम कर चुप हो जाती है ।
क्यों वो अकेले में घुटती है ।
क्यों नहीं वो खूब पढ़ाई करती
क्यों नहीं वो माँ बाप को कहती में अभी शादी नहीं करुँगी ।
क्यों नहीं वो शादी के बाद पति की सास की हर गलत बात का विरोध करती ।
औरत जीती ही कहाँ है । वो तो बस हवा के थपेड़ों के साथ बहती है ।
औरत की किस्मत को सिर्फ औरत ही बदल सकती है ।
उसे खुद के सपनो को देखना और उन्हें पूरा करना सीखना होगा ।
सिर्फ त्याग की मूरत बन कर तो वो मरती ही रहेगी ।
उसे घर की दहलीज को लांघना होगा ।
तभी ये समाज उसकी कद्र करेगा ।
औरत को स्वयं को विकसित करना होगा । सहकर नहीं कहकर करकर जिकर ।
औरत की सिर्फ इतनी ही कहानी के पीछे औरत भी तो जिम्मेदार है ।
ReplyDeleteक्यों वो सब कुछ निछावर कर देती है पति पर ।
क्यों वो अपनी जिंदगी का त्याग कर पति और बच्चों के लिए उनके सपनों के लिए ही जीती है ।
क्यों वो हर गलत बात को सह जाती है
क्यों वो सहम कर चुप हो जाती है ।
क्यों वो अकेले में घुटती है ।
क्यों नहीं वो खूब पढ़ाई करती
क्यों नहीं वो माँ बाप को कहती में अभी शादी नहीं करुँगी ।
क्यों नहीं वो शादी के बाद पति की सास की हर गलत बात का विरोध करती ।
औरत जीती ही कहाँ है । वो तो बस हवा के थपेड़ों के साथ बहती है ।
औरत की किस्मत को सिर्फ औरत ही बदल सकती है ।
उसे खुद के सपनो को देखना और उन्हें पूरा करना सीखना होगा ।
सिर्फ त्याग की मूरत बन कर तो वो मरती ही रहेगी ।
उसे घर की दहलीज को लांघना होगा ।
तभी ये समाज उसकी कद्र करेगा ।
औरत को स्वयं को विकसित करना होगा । सहकर नहीं कहकर करकर जिकर ।
Marmsparshi kathan.Lajwab.
ReplyDeleteSach ke aaine ko darshata drastant.
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