क्या प्रेम सिर्फ इंसानों को चाहिए ? मूक जानवर भी इस वजह से खड़े रहते हैं कि उन्हें भी कोई छुए, प्यार करें ! वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस ने अपने 'क्रेस्कोग्राफ' के माध्यम से पेड़-पौधों के अंदर भी प्रेम होना बताया ! क्या प्रेम ईश्वर को भी चाहिए ? सुनने में अटपटा लगता तो है , पर भाव के भूखे भगवान् जरूर हैं, वे तो प्रेम के भी भूखे हैं । शबरी के जूठे बेर भगवान् खाते हैं, विदुर की पत्नी से केले के छिलके भगवान् खाते हैं, क्योंकि ईश्वर को प्रेम चाहिए या धोखा नहीं, परंतु एक अदद आदमी जरूर चाहिए, जो गाहे-ब-गाहे नाम ले सके ! मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट आज लेकर आये हैं कवयित्री सुश्री रूचि भल्ला की रुचिकर कविताएँ, जिन्हें पढ़कर हमें मालूम पड़ता है कि ईश्वर कहीं स्वार्थ और प्रसिद्धि के भूखे तो नहीं । हाथ कंगन को आरसी क्या, लगी आँख पढ़ ही लीजिये:-
ईश्वर को चाहिए आदमी
उसे चाह है आदमी की
जो आकर रोज़ सुबह-सवेरे
उसे हाथ लगा कर जगाए
नहलाए - धुलाए !
अपने हाथों से खाना खिलाए
घंटो बैठ अपनी कहानी सुनाए
शाम को भी आए
फूलों के गुच्छे भी साथ लाए !
गीत गाए, नाचे -गाए
जाते -जाते नींद का झूला
यूं झुलाने लग जाए
जैसे आदत पड़ी है प्यार की !
अब उसे रोज़ चाहिए आदमी
दो -एक नहीं भीड़ की भीड़ !
आदमी जानता है ईश्वर की हकीकत
कि आदमी प्यार का उतना भूखा नहीं
भूख तो ईश्वर को है प्यार की
वो जानता है ईश्वर की ख्वाहिशें !
समझता है ईश्वर की मजबूरी
ये सच है कि....
आदमी को ईश्वर नहीं,
ईश्वर को चाहिए आदमी !
^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^
भागता शहर
देख रही हूँ
शाम - सवेरे
गाँव के गाँव
आ रहे हैं
दौड़े - दौड़े
शहर में बसने
कल तुम देखोगे
शहर को भागते
बस के पीछे -पीछे
अपना गाँव पकड़ने !
धरती की पाँव जकड़ने !!
-_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_-
बुद्ध
यशोधरा सुन ,
अच्छा ही हुआ कि उस एक रात !
तू सोती रही गहरी नींद
और सिद्धार्थ चला गया
दबे पाँव !
जो तू जाग जाती
तो कैसे जा पाता सिद्धार्थ ?
कैसे जागता संसार
तेरी नींद निष्फल नहीं रही !
खोल दी उसने
बुद्ध की आँख !
^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^^﹏^
अशेष मुलाकात
तुम आए और चले गए
जबकि तुम्हारे आने-जाने के बीच
कहीं शेष रह गयी है मुलाकात
ठीक उस तरह से
जैसे पानी से भरा आधा गिलास
तुम छोड़ गए हो आधा पीकर खाली ।
मैं बचे हुए उस पानी में
तुम्हारा होना देख रही हूँ
याद कर रही हूँ बची हुई अधूरी बात
तुम्हारे आने-जाने को गिलास के पानी में
झाँक कर देखती हूँ
वहाँ मुझे पानी नहीं
शेष बची रह गई प्यास दिखती है ।
सुनाई देते हैं गिलास के इर्द-गिर्द
बिखरे हुए सुने-अनसुने किस्से
जबकि जानती हूँ तुम जा चुके हो
मैं अब भी गिलास के किनारों पर
तुम्हारा छूट कर जाना देख रही हूँ ..!
'ईश्वर की अठखेलियाँ'
ईश्वर को चाहिए आदमी
उसे चाह है आदमी की
जो आकर रोज़ सुबह-सवेरे
उसे हाथ लगा कर जगाए
नहलाए - धुलाए !
अपने हाथों से खाना खिलाए
घंटो बैठ अपनी कहानी सुनाए
शाम को भी आए
फूलों के गुच्छे भी साथ लाए !
गीत गाए, नाचे -गाए
जाते -जाते नींद का झूला
यूं झुलाने लग जाए
जैसे आदत पड़ी है प्यार की !
अब उसे रोज़ चाहिए आदमी
दो -एक नहीं भीड़ की भीड़ !
आदमी जानता है ईश्वर की हकीकत
कि आदमी प्यार का उतना भूखा नहीं
भूख तो ईश्वर को है प्यार की
वो जानता है ईश्वर की ख्वाहिशें !
समझता है ईश्वर की मजबूरी
ये सच है कि....
आदमी को ईश्वर नहीं,
ईश्वर को चाहिए आदमी !
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भागता शहर
देख रही हूँ
शाम - सवेरे
गाँव के गाँव
आ रहे हैं
दौड़े - दौड़े
शहर में बसने
कल तुम देखोगे
शहर को भागते
बस के पीछे -पीछे
अपना गाँव पकड़ने !
धरती की पाँव जकड़ने !!
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बुद्ध
यशोधरा सुन ,
अच्छा ही हुआ कि उस एक रात !
तू सोती रही गहरी नींद
और सिद्धार्थ चला गया
दबे पाँव !
जो तू जाग जाती
तो कैसे जा पाता सिद्धार्थ ?
कैसे जागता संसार
तेरी नींद निष्फल नहीं रही !
खोल दी उसने
बुद्ध की आँख !
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अशेष मुलाकात
तुम आए और चले गए
जबकि तुम्हारे आने-जाने के बीच
कहीं शेष रह गयी है मुलाकात
ठीक उस तरह से
जैसे पानी से भरा आधा गिलास
तुम छोड़ गए हो आधा पीकर खाली ।
मैं बचे हुए उस पानी में
तुम्हारा होना देख रही हूँ
याद कर रही हूँ बची हुई अधूरी बात
तुम्हारे आने-जाने को गिलास के पानी में
झाँक कर देखती हूँ
वहाँ मुझे पानी नहीं
शेष बची रह गई प्यास दिखती है ।
सुनाई देते हैं गिलास के इर्द-गिर्द
बिखरे हुए सुने-अनसुने किस्से
जबकि जानती हूँ तुम जा चुके हो
मैं अब भी गिलास के किनारों पर
तुम्हारा छूट कर जाना देख रही हूँ ..!
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