जब माँ खुद बेटी होती हैं तो वह दहेज़ से लेकर हर चीज का विरोध करती है, लेकिन माँ बनने के बाद उसमें ऐसा क्या बदलाव आ जाती है । प्रस्तुत कविता और उनकी विविध काव्य-रंगों में कवयित्री सुलक्षणा अहलावत ने अपनी चिर-परिचित और ठिठोली करती लेखनी से निःसृत हृदनाएँ लिए सवाल की है । वे अपनी दूसरी कविता में हँसती और टिक-टिक कर तितहरे की मानिंद होती 'मकर' के जाल में उलझकर स्वयं की पीठ थपथपा भर खुश हो जाती हैं । आज के अंक में मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है , 'पश्चिमी हिंदी की जीवंत कवितायें ' ... पढ़िये :-
कुख में कत्ल करवावे, माँ कर दिए जुल्म कमाल तन्ने
कुख में कत्ल करवावे, माँ कर दिए जुल्म कमाल तन्ने।
तू भी स किसे की बेटी क्यूँ करा नहीं ख्याल तन्ने।।
दुनिया के म्ह आवन का के मेरा हक कोन्या माता।
माँ बेटी का दुनिया के म्ह हो सब त न्यारा नाता।
बेटी नै मरवावे अर करे तू देबी माई का व्रत जगराता।
औड बड़ी कार करे तू सब कुछ देख रहा वो विधाता।
कित भला हो तेरा मन्ने मारण खातर बुना जाल तन्ने।।
जब होगा छोटा बाहण भाई मैं गोदी खिला लुंगी।
घर के काम करुँगी हंस हंस के सबका कहन पूगा लुंगी।
जिसा दयो ओढ़न पहरण खाण पीण ने उसा ऐ ओढ़ पहर खा लुंगी।
जिसके ब्याहवे मेरा बाबुल उसके गैल जिन्दगी बिता लुंगी।
किसे भी तरियां करूँ ना माँ काल तन्ने।।
जन्म ले लेन दे माँ तेरा आँगन खुशियाँ त भर दूंगी।
पढ़ लिख के नाम कमाऊँ फकर त तेरा सर ऊँचा कर दूंगी।
बन के माँ संजीवनी बूटी मैं तेरे सारे दुःख दर्द हर दूंगी।
फर्ज और धर्म त चुकी त काट शीश तेरे पायां में धर दूंगी।
कदे ना ल्याऊं उल्हाणा,ना दिखाऊँ गैर चाल तन्ने।।
छोरा छोरी में कोय फर्क ना रह रहा आज के बखत में।
छोरी बोझ ना रह री, बन री माँ बाप की ताकत जगत में।
सब न्यू ऐ मरवाए गये बेटियाँ ने तो बहु कित त लाओगे अगत में।
आधी रात ने भी जड़ में खड़ी पावे ""सुलक्षणा"" तेरे दर्द में।
बता इब भी चाहिए स के मेरी जगां लाल तन्ने।।
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सर्दी के मौसम में रिश्तों में प्यार की गरमाहट लाते हैं,
आइये हम सब मिलकर लोहड़ी का ये पर्व मनाते हैं।
मूँगफली, रेवड़ी, गज्जक का आनंद लेंगे मिलकर,
आओ आग जलाकर सब सुंदरिये मुंदरिये गाते हैं।
लोहड़ी की पवित्र अग्नि में जला दें ईर्ष्या, द्वेष को,
भुला कर सारे गिले शिकवे सभी को गले लगाते हैं।
नफरत दिलों की जला दें आज लोहड़ी की अग्नि में,
मूँगफली, रेवड़ियों की तरह हम दिलों को मिलाते हैं।
देखना बड़ा आंनद आएगा "सुलक्षणा" लोहड़ी का,
मिलकर हँसी ख़ुशी रेवड़ी, गज्जक खाते खिलाते हैं।
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बेरा ना कित खुग्या र म्हारा वो सक्रांत का त्यौहार,
ना पहलड़ी बात रही ईब, ना रहा पहलड़ा ब्यौहार।
सूरज लिकड़न तै पहल्यां नहा लियो आज स सक्रांत,
ना तै गादड़, गादड़ी बनोगे कहता ना कोय या बात।
सवेरे उठते ऐ घर कै बाहर गोस्से की आग जलाना,
आज भूल गए लोग पुराणै तरीकां तै सक्रांत मनाना।
गाल सम्हराई, सौ शेरा औऱ धर्मराज की कहानी,
ये ब्रत लिया करदी म्हारी चाची, ताई, दादी, नानी।
सक्रांत नै घर घर चढ़ा करदी कढ़ाही बनाया करदे हलवा,
ताते हलवे गेल्याँ भरदे दूध का बखोरा ले कै नै पलवा।
नयी बहु मनाया करती बड़े बूढाँ नै दे के सूट अर खेशी,
आज मनावै जो इस ढालां त्यौहार उसनै कहवैं सँ देशी।
देखै "सुलक्षणा" पुराणी रिवाजां नै तू छोड़िये मत ना,
पुराणै रिवाज तै त्यौहार मनान तै मुंह मोड़िये मत ना।
'पश्चिमी हिंदी की जीवंत कवितायें'
कुख में कत्ल करवावे, माँ कर दिए जुल्म कमाल तन्ने
कुख में कत्ल करवावे, माँ कर दिए जुल्म कमाल तन्ने।
तू भी स किसे की बेटी क्यूँ करा नहीं ख्याल तन्ने।।
दुनिया के म्ह आवन का के मेरा हक कोन्या माता।
माँ बेटी का दुनिया के म्ह हो सब त न्यारा नाता।
बेटी नै मरवावे अर करे तू देबी माई का व्रत जगराता।
औड बड़ी कार करे तू सब कुछ देख रहा वो विधाता।
कित भला हो तेरा मन्ने मारण खातर बुना जाल तन्ने।।
जब होगा छोटा बाहण भाई मैं गोदी खिला लुंगी।
घर के काम करुँगी हंस हंस के सबका कहन पूगा लुंगी।
जिसा दयो ओढ़न पहरण खाण पीण ने उसा ऐ ओढ़ पहर खा लुंगी।
जिसके ब्याहवे मेरा बाबुल उसके गैल जिन्दगी बिता लुंगी।
किसे भी तरियां करूँ ना माँ काल तन्ने।।
जन्म ले लेन दे माँ तेरा आँगन खुशियाँ त भर दूंगी।
पढ़ लिख के नाम कमाऊँ फकर त तेरा सर ऊँचा कर दूंगी।
बन के माँ संजीवनी बूटी मैं तेरे सारे दुःख दर्द हर दूंगी।
फर्ज और धर्म त चुकी त काट शीश तेरे पायां में धर दूंगी।
कदे ना ल्याऊं उल्हाणा,ना दिखाऊँ गैर चाल तन्ने।।
छोरा छोरी में कोय फर्क ना रह रहा आज के बखत में।
छोरी बोझ ना रह री, बन री माँ बाप की ताकत जगत में।
सब न्यू ऐ मरवाए गये बेटियाँ ने तो बहु कित त लाओगे अगत में।
आधी रात ने भी जड़ में खड़ी पावे ""सुलक्षणा"" तेरे दर्द में।
बता इब भी चाहिए स के मेरी जगां लाल तन्ने।।
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सर्दी के मौसम में रिश्तों में प्यार की गरमाहट लाते हैं,
आइये हम सब मिलकर लोहड़ी का ये पर्व मनाते हैं।
मूँगफली, रेवड़ी, गज्जक का आनंद लेंगे मिलकर,
आओ आग जलाकर सब सुंदरिये मुंदरिये गाते हैं।
लोहड़ी की पवित्र अग्नि में जला दें ईर्ष्या, द्वेष को,
भुला कर सारे गिले शिकवे सभी को गले लगाते हैं।
नफरत दिलों की जला दें आज लोहड़ी की अग्नि में,
मूँगफली, रेवड़ियों की तरह हम दिलों को मिलाते हैं।
देखना बड़ा आंनद आएगा "सुलक्षणा" लोहड़ी का,
मिलकर हँसी ख़ुशी रेवड़ी, गज्जक खाते खिलाते हैं।
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बेरा ना कित खुग्या र म्हारा वो सक्रांत का त्यौहार,
ना पहलड़ी बात रही ईब, ना रहा पहलड़ा ब्यौहार।
सूरज लिकड़न तै पहल्यां नहा लियो आज स सक्रांत,
ना तै गादड़, गादड़ी बनोगे कहता ना कोय या बात।
सवेरे उठते ऐ घर कै बाहर गोस्से की आग जलाना,
आज भूल गए लोग पुराणै तरीकां तै सक्रांत मनाना।
गाल सम्हराई, सौ शेरा औऱ धर्मराज की कहानी,
ये ब्रत लिया करदी म्हारी चाची, ताई, दादी, नानी।
सक्रांत नै घर घर चढ़ा करदी कढ़ाही बनाया करदे हलवा,
ताते हलवे गेल्याँ भरदे दूध का बखोरा ले कै नै पलवा।
नयी बहु मनाया करती बड़े बूढाँ नै दे के सूट अर खेशी,
आज मनावै जो इस ढालां त्यौहार उसनै कहवैं सँ देशी।
देखै "सुलक्षणा" पुराणी रिवाजां नै तू छोड़िये मत ना,
पुराणै रिवाज तै त्यौहार मनान तै मुंह मोड़िये मत ना।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email - messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
touching ,
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