"कैंसर को मात देती गप-शप"
दोस्ती !!!!! उफ़, निभानी ही है आख़िर । इस मोह-भंगिमा की दुनिया की 'अटूट-दिल-मोहे-रिश्ते' । जब हम अकेले में रहते हैं तो 'दोस्तों' की काफी याद आती है,आएं भी क्यों नहीं , दोस्त जो ठहरे ! दोस्ती भी काफी-टाइप लिए होते हैं -- लंगोटिया यार , स्कूल-प्यार , कॉलेजी, नॉलेजी आदि-आदि , पर मुश्किल परिस्थिति में जो 'दिल-के' पास हो वही 'दोस्ती-वाली-एग्जाम' पास करते हैं ! कैंसर-मरीज दोस्त जहां दु:खी होने की बजाय हँसती है । आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट इसी दोस्ती की एक बानगी पर लेकर आई है, सुश्री प्रोमिला क़ाज़ी की अद्भुत कहानी । आइये पढ़िए.......
दो ब्लू टिकस और इंतज़ार !
हल्की बारिश थी बाहर, कायदे से मुझे रुक जाना चाहिए था । भींगना नुकसान पहुँचा सकता था । पल भर सोच कर मैं यूँ ही निकल पड़ा !
एक हलकी सी मुस्कराहट में जाने किंतनी यादे एक साथ घुल गयी।
"सुनो, गाड़ी में ही बैठे रहते है, जब तक बारिश नहीं रुक जाती"
"बारिश ! तुम इसे बारिश समझते हो !! बूंदा - बांदी है बस और तुम कोई आटे के नहीं बने हो कि... चलो ! निकलो, बाहर जल्दी !! "
कैसी लड़की थी वो ? किसी चीज़ से डरती नहीं थी और मुझे भी अपने जैसा बना देना जानती थी। हर बारिश में यह सोच कर कहीं जाने से नहीं रुकता कि आटे का थोड़ी ही हूँ, जो धुल जाऊंगा !
यह मॉर्निंग वाक भी नशा है, जाने कितना वक़्त बीता, कितनी आदते तब्दील हुई, लेकिन यह आदत दिन ब दिन पक्की होती चली गयी। आज भी वही बात याद करके इस बूंदा- बांदी में निकल ही पड़ी ! अचानक फ़ोन की घंटी बज उठी, अनजाना-सा नंबर, सोचा जाने दूँ ,लेकिन जाने क्या सोच कर फ़ोन उठा लिया ?
‘अर्णव ?’ आवाज़ में एक संकोच था , उसके बावजूद मैंने उसे पहचान लिया था । थोड़ा सकते में था क्या भूत है यह ? अभी जिसके बारे में सोच रहा था , अचानक कॉल करके उसने मुझे चौका जो दिया था !
‘मानसी ?’
एक हलकी सी हंसी की आवाज़ आयी, जिसमें तस्सली थी कि नंबर सही मिलाया है ।
"कैसी हो ?' बारिश तेज़ हो गयी थी और मै साथ की बिल्डिंग के चौकीदार के शेल्टर में घुस गयी ।
‘मुम्बई में ही हो न !’
‘हां, और तुम !’
‘अपना एड्रेस मैसेज कर दो, आ रही हूँ तुम्हारे पास।‘
और उसने फ़ोन काट दी । ज़रा भी नहीं बदली मानसी , यह भी ना पूछी कि आ सकती हूँ या नहीं , बस कह दिया आ रही हूँ। किस वक़्त ? कहाँ से, कुछ भी तो नहीं बतायी !
मैं जल्दी-जल्दी वापिस मुड़ी । दिव्य और नेहा घंटे भर में अपने-अपने ऑफिस के लिए निकल लेंगे, घर में एक सन्नाटा-सा भर जाता है, उनके जाने के बाद लेकिन अब मैंने भी कुछ आदतें डाल कर यह सन्नाटे तोड़ने की कोशिश की है। जो संगीत जीवन भर न सुन पाया, अब शान्ति से अकेले में सुनता हूँ अगर देखा जाए तो पार्श्व संगीत-सा जहाँ मन कहीं और होता है और आंखे कुछ और देख रही होती है !
मानसी ने बतायी तो नहीं कि वह खाने तक रुकेगी या नहीं , या लंच टाइम के बाद आएगी । लेकिन रेखा को बोलना होगा कि कुछ बना दे रोज़ से हटकर । मानसी को खाने का कितना शौक था, चाहे घर का हो या गोलगप्पे, पाव -भाजी यानि कुछ भी । असल में उसे जीवन से प्रेम था सो उससे जुड़ी हर एक चीज़ से भी। उसे कुछ भी कही भी नेगेटिव नहीं दीखता था ।
‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ ...उसका मन्त्र हुआ करता....
दिव्य और नेहा के जाने के बाद घर में सन्नाटा फिर पसर रहा था, लेकिन आज इसमें एक सुकून-सा था, आज इसमें उम्मीद थी और एंटीसिपेशन भी ! दस से ग्यारह और फिर बारह बज गए , अपने फ्लैट की दसवी मंज़िल की खिड़की से में बार बार सड़क देख रहा था, जैसे वह मुझे देख ही लेगी और हाथ हिला देगी वहीं से ! रेखा के किचन में काम करने की आवाज़ ही थी बस , आज संगीत सुनने का मन नहीं हुआ ।
कॉल बेल की आवाज़ से मै थोड़ा सकपका गया, अचानक हाथ बचे-खुचे बाल ठीक करने लगे , पता नहीं कैसा रिएक्शन होगा मानसी का मुझे देख कर ?
रेखा ने दरवाज़ा खोला, मै भी तब तक उसके पीछे पहुंच गया था, सामने मानसी थी।
मै मुस्कुराया और समझ ना पाया कि उसे हाय -हेल्लो बोलूँ या........ ? पर कॉलेज के दिनों की तरह ही उसने एक नज़र में मेरी हिचकिचाहट भांप ली और आगे बढ़ कर मुझे गले लगा लिया ! हम उस समय के लोग थे जहाँ पक्के , गहरे दोस्त तो क्या प्रेमी भी खुले आम गले नहीं मिलते थे, मैंने हँसते हुए उसे हग किया और उसका हाथ पकड़ कर सोफे पे खींच लिया । वह हंसें जा रही थी और मैं भी ! आज पचास की उम्र में हम दोनों का बचपन जैसे वापिस लौट आया था । वाकई दोस्ती दुनिया का सबसे बड़ा उपहार है !
बातें इतनी थी कि समझ नहीं आ रहा था कहाँ से शुरू करे, रेखा जूस के दो गिलास और कुछ ड्राई फ्रूट्स रख गयी थी जिसके हलके-हलके सिप लेती वह सवाल पे सवाल पूछे जा रही थी। इस बीच मैं ध्यान से उसे देखे जा रहा था , सफ़ेद ढीली-ढाली सी कैपरी और ग्रे कलर का टॉप और ग्रे ही सैंडल्स, उसके स्टाइल में बदला था तो केवल एक स्कार्फ़, जो उसने अपने सर पे बड़े स्टाइल से बांधी थी । उसे अपने स्ट्रैट बाल पसंद थे, जिन्हें वह कभी बाँध ही नहीं सकती थी, कितनी ही बार कॉलेज लैब में डांट खाती थी, जब बाल आँखों पर आने की वजह से केमिकल ट्यूब में ना जाकर फर्श पे गिर जाता था ! आज उसके बालो को कैद में देखना नया था मेरे लिए ! खाना खा कर हम लोग बैडरूम में आकर बैठ गए, इसी बीच उसने घर में लगी सभी तस्वीरे देख उनका इतिहास और भूगोल जान लिया था।
"दिव्य काफी कुछ तुमसा दीखता है न ?'
"मैंने सुना था रीमा नहीं रही, पर हिम्मत नहीं हुई कि आकर तुम्हारे दु:ख में तुम्हारा साथ देती, उन दिनों पेरिस में थी, अपनी बेटी के साथ, डाइवोर्स के बाद मेरे लिए सब से भागना ज़रूरी हो गया था, पर अब लगता है कुछ चीज़ों से भागने से बेहतर है उनका सामना करना । " रीमा की फोटो के आगे रुक कर, मेरी तरफ देखते उसने पहली गंभीर बात की थी।
"डाइवोर्स की वजह ? तुम तो रिश्तो को जन्म-जन्म निभाने के फलसफे को मानने वाली लड़की थी" मैं वाकई हैरान था।
उसने ख़ामोशी से अपना स्कार्फ़ खोला और साइड पे रख दिया। मानो सारे सवालों के जवाब दे दिए हो ! मुझे लगा मेरा दिल फट जाएगा, रीमा को उसके आखिरी आठ महीनो में ऐसे ही देखा था और हर बार दर्द के ऐसे सैलाब से गुजरी और आज पत्नी के बाद मेरी सबसे अच्छी दोस्त को इस हालात में देखना ! मैंने खींच कर उसे अपने सीने में छुपा लिया और हम दोनों पहली बार एक-दूसरे के सामने बच्चो की तरह फफक पड़े !
थोड़ा संयत हो , वाशरूम में जाकर मुंह धो कर जब वह बाहर आयी तो पहले वाली मानसी हो गयी थी। मुझे वैसे ही बैठा देख कर हँसने लगी ।
"मैं जानती हूँ तुम शुरू से ही रोन्दु थे, पर मेहरबानी कर के मुझे न रुलाओ, बड़ी मुश्किल से स्ट्रांग हुई हूँ ।"
मैंने अनमने मन से रेखा को चाय के लिए कहा और फिर आकर उसके सामने बैठ गयी ।
"तुम सोच रहे होंगे कि इतने सालो बाद तुम्हारे पास क्यों आयी? शादी के बाद जीवन हमारी इच्छा से नहीं चलता, जाने कैसे दो लोग पूरी ज़िन्दगी एक-दूसरे का साथ निभाने की जद्दोजहद में जीना ही भूल जाते हैं । एक बेटी है , पेरिस में रहती है, दो साल पहले जब कैंसर डिटेक्ट हुआ तो सौरभ समझ ना पाए कि उसे क्यों यह सब मेरे साथ सहना है, उसे जीवन सुख भरा ही अच्छा लगता था , दुःखों से कोप -अप करने की ज़िम्मेदारी मेरी थी, पर अपने इस नासूर से कोप-अप करना मुझे भी नहीं आया , मेरे सामने एक ही रास्ता था , दोनों में से एक को सुखी करने का । मैंने वही किया , उसने भी यही बेहतर समझा , पर आसान नहीं था यह सब मेरे लिए, इसीलिए दुनिया से भागती फिरती रही, अब जब कि मालूम है कि वक़्त कम है तो अब सारे डर भी ख़तम हो गए है। सोचा पेरिस लौटने से पहले तुमसे मिल लूँ, पता नहीं दोबारा आ भी पाऊं या नहीं !"
कमरे में दिन ढल रहा था, इतनी उदासी फ़ैल गयी गयी थी कि लगा तह करके कही दूर फेंक दूँ !
अचानक वह बच्चो की तरह खिलखिलायी ।
"सुनो, चलो कुछ सेल्फीज़ लेते हैं !"
और हम दोनों तरह तरह के मुँह बना कर अपने फोन से सेल्फीज़ लेते रहे और एक-दूसरे से वादा भी कि अपने-अपने फ़ोन से खींची गयी तस्वीरे हम एक-दूसरे से शेयर करेंगे। उसकी फ्लाइट उसी रात लगभग दो बजे की थी, इसीलिए उसने कहा वह फोटोज पेरिस पहुंच कर भेजेगी ।
आज तीन महीने गुजर चुके है , और मैं बार-बार रात देर तक अपने निष्क्रिय व्हाट्सप्प को ताकता रहता हूँ, मेरे भेजे हुए फोटोज पर दो ब्लू टिकस भी नहीं आये अब तक !
दोस्ती !!!!! उफ़, निभानी ही है आख़िर । इस मोह-भंगिमा की दुनिया की 'अटूट-दिल-मोहे-रिश्ते' । जब हम अकेले में रहते हैं तो 'दोस्तों' की काफी याद आती है,आएं भी क्यों नहीं , दोस्त जो ठहरे ! दोस्ती भी काफी-टाइप लिए होते हैं -- लंगोटिया यार , स्कूल-प्यार , कॉलेजी, नॉलेजी आदि-आदि , पर मुश्किल परिस्थिति में जो 'दिल-के' पास हो वही 'दोस्ती-वाली-एग्जाम' पास करते हैं ! कैंसर-मरीज दोस्त जहां दु:खी होने की बजाय हँसती है । आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट इसी दोस्ती की एक बानगी पर लेकर आई है, सुश्री प्रोमिला क़ाज़ी की अद्भुत कहानी । आइये पढ़िए.......
दो ब्लू टिकस और इंतज़ार !
हल्की बारिश थी बाहर, कायदे से मुझे रुक जाना चाहिए था । भींगना नुकसान पहुँचा सकता था । पल भर सोच कर मैं यूँ ही निकल पड़ा !
एक हलकी सी मुस्कराहट में जाने किंतनी यादे एक साथ घुल गयी।
"सुनो, गाड़ी में ही बैठे रहते है, जब तक बारिश नहीं रुक जाती"
"बारिश ! तुम इसे बारिश समझते हो !! बूंदा - बांदी है बस और तुम कोई आटे के नहीं बने हो कि... चलो ! निकलो, बाहर जल्दी !! "
कैसी लड़की थी वो ? किसी चीज़ से डरती नहीं थी और मुझे भी अपने जैसा बना देना जानती थी। हर बारिश में यह सोच कर कहीं जाने से नहीं रुकता कि आटे का थोड़ी ही हूँ, जो धुल जाऊंगा !
यह मॉर्निंग वाक भी नशा है, जाने कितना वक़्त बीता, कितनी आदते तब्दील हुई, लेकिन यह आदत दिन ब दिन पक्की होती चली गयी। आज भी वही बात याद करके इस बूंदा- बांदी में निकल ही पड़ी ! अचानक फ़ोन की घंटी बज उठी, अनजाना-सा नंबर, सोचा जाने दूँ ,लेकिन जाने क्या सोच कर फ़ोन उठा लिया ?
‘अर्णव ?’ आवाज़ में एक संकोच था , उसके बावजूद मैंने उसे पहचान लिया था । थोड़ा सकते में था क्या भूत है यह ? अभी जिसके बारे में सोच रहा था , अचानक कॉल करके उसने मुझे चौका जो दिया था !
‘मानसी ?’
एक हलकी सी हंसी की आवाज़ आयी, जिसमें तस्सली थी कि नंबर सही मिलाया है ।
"कैसी हो ?' बारिश तेज़ हो गयी थी और मै साथ की बिल्डिंग के चौकीदार के शेल्टर में घुस गयी ।
‘मुम्बई में ही हो न !’
‘हां, और तुम !’
‘अपना एड्रेस मैसेज कर दो, आ रही हूँ तुम्हारे पास।‘
और उसने फ़ोन काट दी । ज़रा भी नहीं बदली मानसी , यह भी ना पूछी कि आ सकती हूँ या नहीं , बस कह दिया आ रही हूँ। किस वक़्त ? कहाँ से, कुछ भी तो नहीं बतायी !
मैं जल्दी-जल्दी वापिस मुड़ी । दिव्य और नेहा घंटे भर में अपने-अपने ऑफिस के लिए निकल लेंगे, घर में एक सन्नाटा-सा भर जाता है, उनके जाने के बाद लेकिन अब मैंने भी कुछ आदतें डाल कर यह सन्नाटे तोड़ने की कोशिश की है। जो संगीत जीवन भर न सुन पाया, अब शान्ति से अकेले में सुनता हूँ अगर देखा जाए तो पार्श्व संगीत-सा जहाँ मन कहीं और होता है और आंखे कुछ और देख रही होती है !
मानसी ने बतायी तो नहीं कि वह खाने तक रुकेगी या नहीं , या लंच टाइम के बाद आएगी । लेकिन रेखा को बोलना होगा कि कुछ बना दे रोज़ से हटकर । मानसी को खाने का कितना शौक था, चाहे घर का हो या गोलगप्पे, पाव -भाजी यानि कुछ भी । असल में उसे जीवन से प्रेम था सो उससे जुड़ी हर एक चीज़ से भी। उसे कुछ भी कही भी नेगेटिव नहीं दीखता था ।
‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ ...उसका मन्त्र हुआ करता....
दिव्य और नेहा के जाने के बाद घर में सन्नाटा फिर पसर रहा था, लेकिन आज इसमें एक सुकून-सा था, आज इसमें उम्मीद थी और एंटीसिपेशन भी ! दस से ग्यारह और फिर बारह बज गए , अपने फ्लैट की दसवी मंज़िल की खिड़की से में बार बार सड़क देख रहा था, जैसे वह मुझे देख ही लेगी और हाथ हिला देगी वहीं से ! रेखा के किचन में काम करने की आवाज़ ही थी बस , आज संगीत सुनने का मन नहीं हुआ ।
कॉल बेल की आवाज़ से मै थोड़ा सकपका गया, अचानक हाथ बचे-खुचे बाल ठीक करने लगे , पता नहीं कैसा रिएक्शन होगा मानसी का मुझे देख कर ?
रेखा ने दरवाज़ा खोला, मै भी तब तक उसके पीछे पहुंच गया था, सामने मानसी थी।
मै मुस्कुराया और समझ ना पाया कि उसे हाय -हेल्लो बोलूँ या........ ? पर कॉलेज के दिनों की तरह ही उसने एक नज़र में मेरी हिचकिचाहट भांप ली और आगे बढ़ कर मुझे गले लगा लिया ! हम उस समय के लोग थे जहाँ पक्के , गहरे दोस्त तो क्या प्रेमी भी खुले आम गले नहीं मिलते थे, मैंने हँसते हुए उसे हग किया और उसका हाथ पकड़ कर सोफे पे खींच लिया । वह हंसें जा रही थी और मैं भी ! आज पचास की उम्र में हम दोनों का बचपन जैसे वापिस लौट आया था । वाकई दोस्ती दुनिया का सबसे बड़ा उपहार है !
बातें इतनी थी कि समझ नहीं आ रहा था कहाँ से शुरू करे, रेखा जूस के दो गिलास और कुछ ड्राई फ्रूट्स रख गयी थी जिसके हलके-हलके सिप लेती वह सवाल पे सवाल पूछे जा रही थी। इस बीच मैं ध्यान से उसे देखे जा रहा था , सफ़ेद ढीली-ढाली सी कैपरी और ग्रे कलर का टॉप और ग्रे ही सैंडल्स, उसके स्टाइल में बदला था तो केवल एक स्कार्फ़, जो उसने अपने सर पे बड़े स्टाइल से बांधी थी । उसे अपने स्ट्रैट बाल पसंद थे, जिन्हें वह कभी बाँध ही नहीं सकती थी, कितनी ही बार कॉलेज लैब में डांट खाती थी, जब बाल आँखों पर आने की वजह से केमिकल ट्यूब में ना जाकर फर्श पे गिर जाता था ! आज उसके बालो को कैद में देखना नया था मेरे लिए ! खाना खा कर हम लोग बैडरूम में आकर बैठ गए, इसी बीच उसने घर में लगी सभी तस्वीरे देख उनका इतिहास और भूगोल जान लिया था।
"दिव्य काफी कुछ तुमसा दीखता है न ?'
"मैंने सुना था रीमा नहीं रही, पर हिम्मत नहीं हुई कि आकर तुम्हारे दु:ख में तुम्हारा साथ देती, उन दिनों पेरिस में थी, अपनी बेटी के साथ, डाइवोर्स के बाद मेरे लिए सब से भागना ज़रूरी हो गया था, पर अब लगता है कुछ चीज़ों से भागने से बेहतर है उनका सामना करना । " रीमा की फोटो के आगे रुक कर, मेरी तरफ देखते उसने पहली गंभीर बात की थी।
"डाइवोर्स की वजह ? तुम तो रिश्तो को जन्म-जन्म निभाने के फलसफे को मानने वाली लड़की थी" मैं वाकई हैरान था।
उसने ख़ामोशी से अपना स्कार्फ़ खोला और साइड पे रख दिया। मानो सारे सवालों के जवाब दे दिए हो ! मुझे लगा मेरा दिल फट जाएगा, रीमा को उसके आखिरी आठ महीनो में ऐसे ही देखा था और हर बार दर्द के ऐसे सैलाब से गुजरी और आज पत्नी के बाद मेरी सबसे अच्छी दोस्त को इस हालात में देखना ! मैंने खींच कर उसे अपने सीने में छुपा लिया और हम दोनों पहली बार एक-दूसरे के सामने बच्चो की तरह फफक पड़े !
थोड़ा संयत हो , वाशरूम में जाकर मुंह धो कर जब वह बाहर आयी तो पहले वाली मानसी हो गयी थी। मुझे वैसे ही बैठा देख कर हँसने लगी ।
"मैं जानती हूँ तुम शुरू से ही रोन्दु थे, पर मेहरबानी कर के मुझे न रुलाओ, बड़ी मुश्किल से स्ट्रांग हुई हूँ ।"
मैंने अनमने मन से रेखा को चाय के लिए कहा और फिर आकर उसके सामने बैठ गयी ।
"तुम सोच रहे होंगे कि इतने सालो बाद तुम्हारे पास क्यों आयी? शादी के बाद जीवन हमारी इच्छा से नहीं चलता, जाने कैसे दो लोग पूरी ज़िन्दगी एक-दूसरे का साथ निभाने की जद्दोजहद में जीना ही भूल जाते हैं । एक बेटी है , पेरिस में रहती है, दो साल पहले जब कैंसर डिटेक्ट हुआ तो सौरभ समझ ना पाए कि उसे क्यों यह सब मेरे साथ सहना है, उसे जीवन सुख भरा ही अच्छा लगता था , दुःखों से कोप -अप करने की ज़िम्मेदारी मेरी थी, पर अपने इस नासूर से कोप-अप करना मुझे भी नहीं आया , मेरे सामने एक ही रास्ता था , दोनों में से एक को सुखी करने का । मैंने वही किया , उसने भी यही बेहतर समझा , पर आसान नहीं था यह सब मेरे लिए, इसीलिए दुनिया से भागती फिरती रही, अब जब कि मालूम है कि वक़्त कम है तो अब सारे डर भी ख़तम हो गए है। सोचा पेरिस लौटने से पहले तुमसे मिल लूँ, पता नहीं दोबारा आ भी पाऊं या नहीं !"
कमरे में दिन ढल रहा था, इतनी उदासी फ़ैल गयी गयी थी कि लगा तह करके कही दूर फेंक दूँ !
अचानक वह बच्चो की तरह खिलखिलायी ।
"सुनो, चलो कुछ सेल्फीज़ लेते हैं !"
और हम दोनों तरह तरह के मुँह बना कर अपने फोन से सेल्फीज़ लेते रहे और एक-दूसरे से वादा भी कि अपने-अपने फ़ोन से खींची गयी तस्वीरे हम एक-दूसरे से शेयर करेंगे। उसकी फ्लाइट उसी रात लगभग दो बजे की थी, इसीलिए उसने कहा वह फोटोज पेरिस पहुंच कर भेजेगी ।
आज तीन महीने गुजर चुके है , और मैं बार-बार रात देर तक अपने निष्क्रिय व्हाट्सप्प को ताकता रहता हूँ, मेरे भेजे हुए फोटोज पर दो ब्लू टिकस भी नहीं आये अब तक !
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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