क्या औरत-मर्द में फर्क है ? 'उत्तर' शायद 'हां' आये, क्योंकि शारीरिक संरचना में दोनों की विपरीत स्थितियाँ है, पर कानून तो समता के अधिकार के तहत लिंग-भेद करनेवाले को दोष-सिद्ध मानता है ? क्या बेटी को बेटा कहना बेटी को आश्वासन देना है या स्वयं के पीठ थपथपाना ! क्या बेटी इस गूढ़ को समझ पाती है, कभी ! यह सवाल फर्क पैदा करता है, यह सवाल स्वयं में उलझा हुआ है । पर फर्क तो है, क्योंकि हम उन्हें बेटी ही क्यों नहीं मान सकते हैं ? क्यों उन्हें बेटा बनाने पर तुले हैं ? क्यों हम शब्दों के चक्र में पड़कर चक्रव्यूह रचते चले जाते हैं ? और सच को झुठलाने की कोशिश करने लग जातै हैं ? क्या हमारे समाज ने 'भेदभाव वाले' गोलगप्पे खाने की आदत डाल ली है । तभी तो हम बेटी के बाप कहलाने पसंद नहीं करते और सिर्फ अनछुई स्थितियां ही फर्क पैदा कर रहे हैं ! आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, 'अनसुलझे प्रश्नों लिए : मेरी डायरी के पन्ने' से चाँद, जहां चांदी का चम्मच भी मुखबीर करते द्रष्टव्य हैं, तो श्रीमती वर्षा गुप्ता की अनछुई-डायरी भी आपको पढ़ने को मज़बूर कर देंगे ।
'रैन की डायरी'
कहते है शब्दों के साथ छेड़छाड़ अच्छी बात नही, पर मै तो छेड़छाड़ भी करती हूँ और उठापटक भी, क्यूँ न करे ? सुनने में तो ये भी आया है कि शब्द कवि की जागीर या खजाना नहीं हैं । साथ कुछ भी करे,किसी को क्या सारोकार
बचपन से ही देखती आ रही दीदी को डायरी का बड़ा शौक था। लिखती भी तो क्या,कोई कलाम या कोई शायरी जो प्रतिदिन अख़बार या साप्ताहिक पत्रिकाओ से या किसी मशहूर शायर की प्रतियो से लिया जाता था।
और वो बन्द की फलाना जगह घुमे,फलाना चीजे की,देखने में मोहक पर मेरे स्वभाव में ये सब कहाँ लिखा जाता
और बाकि लोगो की तरह मुझसे तो भी नही लिखा जाता ये प्रतिदिन का ब्यौरा
"सुबह उठी नित्य कर्मो से निवृत होकर खाना खाया सबको खिलाया दोपहर में सुस्ताया फिर चाय जलपान कर बच्चों को पढ़ाया आज एक बच्चा कम था कल उसे कूटने का इरादा है,फिर शाम का खाना पानी निबटकर एक काव्य रचना की। फिर थककर सो गई और फिर दिन चढ़ आया"
हास्यप्रद तो लगता ही, वक्त बेवजह खप जाता है,और दौड़ते जमाने में ये वक्त किसे।
तो चलो आज कलम उठा ली जाए ये सोचकर शुरू होती है डायरी।
माहौल बन जाए तो खूब रहेगा,खिड़की के पास एक टेबल जहाँ ठंडी हवा के झोंके और एकांत जो सकारात्मक विचारो को आमन्त्रित करे,टेबल के ऊपर पेन ,डायरी और एक कॉफी...या चाय भी चलेगी।हाँ अब ठीक है।
थोड़ी देर सोचने में गुजर गई क्या लिखूँ ? पंडित मोटेराम की डायरी की तरह मुझसे तो नही लिखे जाते ये मोटे मोटे शब्द साम्यवाद और समष्ठिवाद के,तो वही लिखने का इरादा है"शक्ति"के बारे में,.शक्ति यहाँ शारीरिक बल नही वरन् मातृशक्ति या स्त्रीशक्ति के बारे में उल्लेख हुआ है।तो करते है श्री गणेश।
"कमजोर नहीं औरत है वो-->
औरत कमजोर नहीं है उसे कमजोर करने वाला ये समाज है। बार बार ये कहकर की तुमसे नही होगा, तुम रहने दो उसे साहसी बनने से रोक लेतीहै। खीच ही लेता है उन कदमो को जो आगे बढ़ने की सोच ही पाते है।जब किसी बस में सीट की बात हो या कहीँ पहल करने की बारी आती है,"पहले आप"या"ladies first"कहकर उसे आगे कर दिया जाता है कमजोर समझ कमजोर कर दिया जाता है,लेकिन उसे लड़ने दो समाज से,अपने हालातो से, अपने आप से,उसे लड़ना होगा उसे जितना होगा क्यूँकि "हार मान लेने से ही हार होती है" उसे दिखाना होगा की वो कमजोर नही मजबूत है सक्षम है,लड़ सकती है,जीत सकती है। कोई क्यूँ उसे बचाने आएगा। उसे लड़ना होगा अपने लिए,अपने आत्मसम्मान की सुरक्षा के लिए, एक कदम पीछे क्यूँ रहे ,फक्र से सर उठाकर, कांधे से कांधा मिलाकर चलने दो उसे, न कोई चौखट न कोई दहलीज बांधे, न समाज की जंजीरे खिंचे।जीत उसके आँगन में इठलानि चाहिए,उसके भविष्य से भी कामयाबी के इत्र की महक आनी चाहिए,उड़ने दो उसे आजाद आसमानों में पंछियों की तरह, न कोई पर कुतरे,भरने दो उड़ान जितना ऊँचा उड़ सके,उसे "खुद" समझना होगा सही गलत के मायनो को, अपनी हदो को, उड़ान की तहजीब को,पेड़ की तरह अड़िग रहने दो,आत्मविश्वास के साथ,निः संकोच आगे बढ़ने दो उसे लड़ने दो आखिरी दम तक,आखिरी साँस तक...में भी एक औरत हूँ शायद इसलिए समझ सकती हूँ इस बेरहम समाज की कुरूतियों को लोगो के सच झूठ के कोरे उपदेश। ये नही समझते की कोन कितना सही है,अपने नियमो के तराजू में तोलने से पहले ये जरूर भाँप लेना चाहिए की परिस्थितियाँ कैसी रही होगी इंसान गलत नही होता अक्सर हालात विपरीत हो जाते है मैंने तो जबसे औरत के बारे में लिखना चाहा एक ही बात समझ आई है । औरत होना सहज नही है औरत खुद में एक शक्ति है और फिर मातृशक्ति के तो क्या कहने, तो अब बात करते है मातृशक्ति की,पर उसे तो शब्दों में लिखना कोरी कल्पना है जितनी भूमिकाए एक माँ निभाती है अपनी इच्छाओ को दहन कर जो उजाला बच्चों के जीवन में करती है सर्वोपरि है।में ये नही कहती की पिता अपनी भूमिका नही निभाते या कोई कमी छोड़ देते है अगर माँ शीतल छाया है तो पिता बरगद का पेड़ है पर जब बच्चे नही होते तो भी माँ उसकी लालसा में कई मंदिर मस्जिद की देहलिया चूम चुकी होती है,संघर्षो ने तो कब का जनम ले लिया होता है और बच्चे के कोख में आते ही माँ का सफ़र शुरू हो जाता है और तब तक चलता रहता है जब तक माँ का शेष जीवन पूरा न हो जाए।
अभी लिख ही रही थी की जोर जोर से रोने की आवाजे आने लगी। पड़ोसन बिलख-बिलख कर रो रही है ,शायद मन का बोझ हल्का कर रही,क्या हुआ होगा? चलो देखते है जहाँ सारे लोग खड़े तमाशबीन होकर, वहाँ अगर हम न जाए तो भी ये समझ लिया जाता है की इसमें हमारा कोई हाथ तो नही। हाथ बांधे खड़े थे सब, औरत पर उँगलियाँ उठाई जा रही थी,अपनी-अपनी सोच के अनुसार मनगढन्त कहानियाँ बनाई जा रही थी सबके मस्तिष्क में उसकी तिरस्कृत छवि। "क्या हुआ? होगा,कुछ तो किया होगा इसने,साहब छोड़कर चला गया होगा, कर्जदारो को ये चिंता की ये औरत है,कमजोर है, कर्जा कैसे चुकाएगी और जिसने न दिया उसने तो कसम खा ली एक फूटी कौड़ी न देंगे। कल को कोई ऊँच नीच हो गई तो कोन जिम्मेवारी लेगा.." तब किसी से सुनने में आया की बेटे की याद सता रही है, घर छोड़े एक साल हो गया पिता बेटे के झगड़े में माँ पीस गई ,पति की फरमाइश पर खीर बना अपना फर्ज तो अदा किया पर यह बेटे की पसन्दीदा पकवानो में से एक है ये सोचकर ही मन भावुक हो गया,शहर में दंगो को माहौल सुन मन भयभीत हो रहा है, पर अचानक उसने ठानी वो लिखेगी ख़त बेटे को ,कलम उठा ली,अब चाहे सर कलम हो जाए।
इससे अच्छा मातृशक्ति का उदाहरण और क्या होता,फिर से लिखने के लिए लौटी की डायरी के कोरे पन्ने भी पलट चुके थे शायद कह रहे थे की एक" माँ" को लिखना आज तक किसी के लिए सहज नही हुआ है...!
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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