'मास्टरमाइंड है परमपिता : परममाता कौन ?'
कहा गया है , मन चंचल होता है, मन बावला होता है । चाहे नारी हो या नर या थर्ड जेंडर या कापुरुष या नपुँसक... ! सभ्यता की शुरुआत से ही पुरुषों ने महिलाओं के 'नारी-मन' को छला, खेला, कभी कृष्ण बन, तो दुर्योधन वा रावण बन, भीष्म पितामह के रूप में भी, श्रीराम बन माता सीता की अग्नि परीक्षा..... 'ईश्वर' ने खुद के रूप में, क्योंकि 'ईश्वर' एक ऐसा नाम है जो खुद पुल्लिंग होकर 'साइंस' की रीति को तोड़ते हुए वे हमारे 'परमपिता' भी कहलाते हैं, परन्तु परममाता कौन है , हमें नहीं मालूम, किन्तु अक्सर जगतजननी के बारे चर्चा होती, उसपर सटीक विश्लेषण नहीं हो पाती कि वह सीता ही है, क्या ? आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, सुश्री कांची सिंघल की वैसी आलेख, जिनमे वे पुरुषों के साथ-साथ ईश्वर से सवाल करती नजर आ रही हैं, नारी मन की व्यथा की टोह लेती हुई, आप प्रिय पाठकबन्धु भी इससे होइए रूबरू...
'नारी मन'
क्यों द्रवित होता है मन कभी कभी ?
बेहिसाब व्यथित , अनगिनत उथल पुथल आखिर किसलिए? क्या केवल इसलिए कि अपने वज़ूद को तलाशती हूँ मैं? कि आखिर कौन हूँ मैं? क्या है पहचान मेरी ?
पर कौन-सा वज़ूद ,कौन सी पहचान ...? क्या इतना काफी नही, कि विधाता की सर्वोत्तम कृति --एक स्त्री हूँ मैं ? एक माँ ,एक पत्नी, एक प्रेमिका ,एक सखी, एक बहन ,एक पुत्री और हर रूप में निहित मेरा स्वाभाविक प्रेम, मेरा समर्पण यही तो है पहचान मेरी , हां मेरी वास्तविक पहचान एक स्त्री होने की , जो स्वयं ईश्वर ने दी है मुझे !तो फिर क्यों तुम पुरुष ईश्वर की इस नैसर्गिक कृति को ऐसा ही स्वीकार नही करते ?
क्यों मेरे इसी रूप में मेरा आदर मेरा सत्कार नही करते? क्यों मेरे प्रेम ,मेरे समर्पण को तुम मेरी दुर्बलता समझ लेते हो? क्यों स्त्री सुलभ लज्जा ,सौंदर्य ,शालीनता को तुम हमारी कमज़ोरी समझ हम पर हावी हो हमारे मालिक बन जाते हो?
क्या यही वजह है कि तब हमें अपने अस्तित्व ,अपनी गरिमा, अपनी पहचान बनाये रखने के लिए निकलना पड़ता है अपने इस नैसर्गिक आवरण से बाहर और फ़िर हम भी हो जाती हैं । तुम पुरषो जैसी पाशविक साम ,दाम, दंड ,भेद हर नीति अपनाती हैं कि खुद को साबित कर सके , तब क्यों फिर हम पर ही लग जाते है प्रश्नचिन्ह ? तब क्यों भरभराने लगता है तुम्हारा पौरुषत्व..?
हे पुरुष ...!
क्यों नही तुम इसका कारण अपने दूषित अंहकार में खोजते क्योकि अगर खोजते तो जान पाते कि कही न कही तुम स्वयं भी जिम्मेदार हो इस सब के लिये क्योंकि स्त्री कितनी भी आधुनिक और सफल हो जाए ,पर उसका मूल स्वभाव प्रेम और समर्पण ही है वो उसी में खुद को सार्थक पाती है ; उसी मौलिक स्वभाव में वो दिल से खुश रहती है , जैसा ईश्वर ने उसे बनाया है तो उसे वही रहने दो सिर्फ एक स्त्री, ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना क्योकि ईश्वर की हर व्यवस्था अंततः प्राणी को सुख देने के लिए ही है , अब तुम्हारी स्त्री कैसे रहे !अपने नैसर्गिक सौंदर्य में या आवरण ओढ़ खुद को साबित करने की होड़ में ,तुम्हारी ही तरह विवेक शून्य हो कर ,ये फैसला सर्वथा तुम्हारा है !
कहा गया है , मन चंचल होता है, मन बावला होता है । चाहे नारी हो या नर या थर्ड जेंडर या कापुरुष या नपुँसक... ! सभ्यता की शुरुआत से ही पुरुषों ने महिलाओं के 'नारी-मन' को छला, खेला, कभी कृष्ण बन, तो दुर्योधन वा रावण बन, भीष्म पितामह के रूप में भी, श्रीराम बन माता सीता की अग्नि परीक्षा..... 'ईश्वर' ने खुद के रूप में, क्योंकि 'ईश्वर' एक ऐसा नाम है जो खुद पुल्लिंग होकर 'साइंस' की रीति को तोड़ते हुए वे हमारे 'परमपिता' भी कहलाते हैं, परन्तु परममाता कौन है , हमें नहीं मालूम, किन्तु अक्सर जगतजननी के बारे चर्चा होती, उसपर सटीक विश्लेषण नहीं हो पाती कि वह सीता ही है, क्या ? आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, सुश्री कांची सिंघल की वैसी आलेख, जिनमे वे पुरुषों के साथ-साथ ईश्वर से सवाल करती नजर आ रही हैं, नारी मन की व्यथा की टोह लेती हुई, आप प्रिय पाठकबन्धु भी इससे होइए रूबरू...
'नारी मन'
क्यों द्रवित होता है मन कभी कभी ?
बेहिसाब व्यथित , अनगिनत उथल पुथल आखिर किसलिए? क्या केवल इसलिए कि अपने वज़ूद को तलाशती हूँ मैं? कि आखिर कौन हूँ मैं? क्या है पहचान मेरी ?
पर कौन-सा वज़ूद ,कौन सी पहचान ...? क्या इतना काफी नही, कि विधाता की सर्वोत्तम कृति --एक स्त्री हूँ मैं ? एक माँ ,एक पत्नी, एक प्रेमिका ,एक सखी, एक बहन ,एक पुत्री और हर रूप में निहित मेरा स्वाभाविक प्रेम, मेरा समर्पण यही तो है पहचान मेरी , हां मेरी वास्तविक पहचान एक स्त्री होने की , जो स्वयं ईश्वर ने दी है मुझे !तो फिर क्यों तुम पुरुष ईश्वर की इस नैसर्गिक कृति को ऐसा ही स्वीकार नही करते ?
क्यों मेरे इसी रूप में मेरा आदर मेरा सत्कार नही करते? क्यों मेरे प्रेम ,मेरे समर्पण को तुम मेरी दुर्बलता समझ लेते हो? क्यों स्त्री सुलभ लज्जा ,सौंदर्य ,शालीनता को तुम हमारी कमज़ोरी समझ हम पर हावी हो हमारे मालिक बन जाते हो?
क्या यही वजह है कि तब हमें अपने अस्तित्व ,अपनी गरिमा, अपनी पहचान बनाये रखने के लिए निकलना पड़ता है अपने इस नैसर्गिक आवरण से बाहर और फ़िर हम भी हो जाती हैं । तुम पुरषो जैसी पाशविक साम ,दाम, दंड ,भेद हर नीति अपनाती हैं कि खुद को साबित कर सके , तब क्यों फिर हम पर ही लग जाते है प्रश्नचिन्ह ? तब क्यों भरभराने लगता है तुम्हारा पौरुषत्व..?
हे पुरुष ...!
क्यों नही तुम इसका कारण अपने दूषित अंहकार में खोजते क्योकि अगर खोजते तो जान पाते कि कही न कही तुम स्वयं भी जिम्मेदार हो इस सब के लिये क्योंकि स्त्री कितनी भी आधुनिक और सफल हो जाए ,पर उसका मूल स्वभाव प्रेम और समर्पण ही है वो उसी में खुद को सार्थक पाती है ; उसी मौलिक स्वभाव में वो दिल से खुश रहती है , जैसा ईश्वर ने उसे बनाया है तो उसे वही रहने दो सिर्फ एक स्त्री, ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना क्योकि ईश्वर की हर व्यवस्था अंततः प्राणी को सुख देने के लिए ही है , अब तुम्हारी स्त्री कैसे रहे !अपने नैसर्गिक सौंदर्य में या आवरण ओढ़ खुद को साबित करने की होड़ में ,तुम्हारी ही तरह विवेक शून्य हो कर ,ये फैसला सर्वथा तुम्हारा है !
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