'सूक्ष्म काया के बाद कहाँ' , हे भगवान् !
क्या भगवान अपनों के मौत पर रोते है ? उन्हें भी दर्द होते होंगे, क्या ? क्या वे भी जज्बाती होते हैं ? क्या वे सिर्फ अपने बच्चों को रचकर 'उनका तमाशा' देखते है ? भगवान क्या गैरों के लिए भी हैं ? किन्तु उनके लिए अपना और गैर क्या ? ऐसे ही काफी सवाल है , जो हमारे मस्तिष्क में आते हैं, उमड़ते-घुमड़ते हैं ! -- पर जज्बातों के डर से या धार्मिक-फेरों के डर से प्रश्न का प्रतिप्रश्न लिए चुप हो जाते हैं ! आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, इन्ही सवालों के जवाब खोजती कवयित्री सुश्री कात्यायनी दीपक सिंह की कवितायेँ ... भगवान् से प्रश्न ...! आइये, पढ़ते हैं:-
रोज ब रोज,
ऐसा ही होता है...
क्या भगवान अपनों के मौत पर रोते है ? उन्हें भी दर्द होते होंगे, क्या ? क्या वे भी जज्बाती होते हैं ? क्या वे सिर्फ अपने बच्चों को रचकर 'उनका तमाशा' देखते है ? भगवान क्या गैरों के लिए भी हैं ? किन्तु उनके लिए अपना और गैर क्या ? ऐसे ही काफी सवाल है , जो हमारे मस्तिष्क में आते हैं, उमड़ते-घुमड़ते हैं ! -- पर जज्बातों के डर से या धार्मिक-फेरों के डर से प्रश्न का प्रतिप्रश्न लिए चुप हो जाते हैं ! आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, इन्ही सवालों के जवाब खोजती कवयित्री सुश्री कात्यायनी दीपक सिंह की कवितायेँ ... भगवान् से प्रश्न ...! आइये, पढ़ते हैं:-
"वीरानगी का अहसास"
स्थूल काया से
सूक्ष्म काया की तरफ बढ़ते-बढ़ते...
सूक्ष्म काया की तरफ बढ़ते-बढ़ते...
कहां जाती है अंत में यह ?
धरती से विदा होने के बाद
आसमां में मिल जाती है क्या
यह सूक्ष्म काया ?
पर आसमां तो शून्य है !
पर आसमां तो शून्य है !
ओ हमारे भगवान !
क्या कभी लौटकर
आना होता है, यहाँ ?
चले भी जाते हैं, अचानक
किसी को छोड़कर
बगैर कहे !
बगैर कहे !
ये रिश्ता, ये नाता
सबकुछ क्यूं है आखिर ?
अकेले आना--अकेले जाना
फिर क्यूं लगता है, दुनियावी भीड़
आसपास ?
माया का जाल,
भीग-विलास,
भीग-विलास,
सब मोहमाया--
दुआ--प्रार्थना
क्या कुछ नही होता ?
मौत पर इंसान रोता है
क्या कभी भगवान भी रोते होंगे ?
वक्त ख़ामोश है,
यहाँ भी, वहाँ भी
यहाँ भी, वहाँ भी
गुजरते चले जाता है !
पर तब गहरी नींद में
सोया इंसान
या कोई भी प्राणी
सोया इंसान
या कोई भी प्राणी
कभी नही जागता
कभी भी--
किसी के लिये भी ।
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यादें
आज रात मैंने
अपने आप से
किया एक वादा,
नही करूंगी
अब कभी भी
याद तेरे--
पर आधी रात को
नींद दे गई धोखा
और चली गई
दूसरों के आगोश में
तत्काल !
तत्काल !
तभी अचानक--
इस कदर तुम्हारी याद हो आई
भूल गई मैं अपने आप को तब
और अपने वादे को
दौड़ पड़ी मैं,
छत पर और खुली आँखें...
देखने लगी चांद-सितारे
छत पर और खुली आँखें...
देखने लगी चांद-सितारे
साथ तुम्हारे जब होती थी,
यही चांद तारे बन जाते थे,
गवाह हमारे मिलन के ।
सर्द हवा के झोकों में
मैं खोजती रही
नरम आगोश तुम्हारा
और सांसों की
गरम-गरम तपिश ।
रोज ब रोज,
ऐसा ही होता है...
खाती हूँ कसमें
और
और
करती हूँ वादा
खुद से
खुद से
नही करूंगी याद
तुम्हें/पर
तुम्हें/पर
खुद तोड़ वादे को
डूब जाती हूँ
तुम्हारी यादों के
हहराते
समंदर में ।
हहराते
समंदर में ।
नमस्कार दोस्तों !
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