"अँधेरे को प्रकाशीय-किरण लिए कविताएँ"
कवयित्री डॉ. किरण मिश्रा की कविताओं में एकरूपता का सिर्फ प्रयास है, चूँकि द्वन्द्व भी तत्सम की अमरबेल लिए हावी है । जहां विश्वास की पर्यायार्थ महिला होती हैं, किन्तु किसी महिला के साथ जब धोखा हो, तो वह नागिन हो जाती हैं । किन्तु प्रस्तुत कवयित्री किसी बदले की भावना से कविता नहीं लिख रही हैं, क्योंकि वो जानती है-- चित भी मर्दों की है, पट भी मर्दों की ! क्या यह बात पूर्णतः सही है , पता नहीं ! क्या स्त्री आँख में बंधी पट्टी के मायने उत्श्रुत 'न्याय' को कोसती है ? ऐसे ही अन्वेषण करने को लेकर 'मैसेंजर ऑफ़ आर्ट' इस अंक में लेकर आई है, कुछ अनूठी कविताएँ ! इसे पढ़कर आप ही चिंतन कीजिये, तो सही !!
आशा
सारे दरवाजे बंद कर
घनघोर अँधेरे में बैठा वो,
निराश-हताश था,
दरारों से जीवन ने प्रवेश किया
और खोल दी जीवन की खिड़की
वो स्त्री थी,
जो रिक्तता में भरती रही
उजाले.....
और बदल गई
जीवाश्म में,
अँधेरे के ।
~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~
न्याय की आस्था
उसकी पीठ पर बैंगनी फूल बंधे थे
और हाथ में सपन,
अभी अभी उगे पंख
उसने करीने से सजा रखे थे ,
कुछ जुगनू उसके होठों पर चिपक गए,
तो कुछ हँसी बन आसमान में ।
वो एक सर्द रात थी
जब हम नक्षत्रों के नीचे चल रहे थे
और चाँद मेरे साथ थी ।
हिम खंड के पिघलने तक
मैं उसका साथ चाहता था
उसे भी इंतजार था गुनगुनी धूप की,
मैं भरना चाहता था
वो समेटना
इसलिए हमने एकांत का
इंतजार किया
उसकी हँसी एकांत को भर रही थी
और मैं उनमें डूब-उतर रहा था ।
तभी एकांत के अधेरों में छिपे भेड़ियों ने
उसकी हँसी को भेदना शुरू कर दिया
मैं अकेली, उनके साथ उनकी हैवानियत
हैवानियत से मेरी नियत हार गई
और हँसी भी ।
क्षत-विक्षत हँसी अब झाड़ियों में पड़ी थी,
और मैं सतरंगी न्याय में,
इधर न्याय उलझा था,
किसी नियम से ।
मैं आज भी अधेरी रात के डर को
मुट्टी भर राख
और चुल्लू भर आंसू में मिला कर
न्याय की आस्थाएं ढूंढ़ रहा हूं।
~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~
भरम
उसने अपनी आंखो के तारे
मेरी आंखो की नदी से मिलाए
और हम बहने लगे
एक साथ समन्दर में ।
फिर वो मुझे धरातल पर ले आया
और एक खूँटी गाड़
उसने मुझे बांध दिया ।
मैं बंधी रही
बरस दर बरस बीत गये
वो छुट्टा साँड़ बन
घूमता रहा
और मैं बंधी बंधी गाय हो गयी ।
एक दिन अचानक
मैंने अपनी खूँटी से,
खुद को अलग करना चाहा
देखती क्या हूं
न खूटी है, न रस्सी,
बंधना मेरा भ्रम था
और बांधना उसका अभिनय।
-_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_--_-
लोकतंत्र
जाग्रत सुधियां,
मौन निमंत्रण,
मधुर मिलन
और बैचेन प्रतीक्षा आदि
सारी कविताएं ।
उसी समय
अपने होश खो देती है
जब देखती है
उजाले में सहमी उस लड़की को ।
जो अपने बदन से उतरते
उस आखिरी कपड़े को
बचा रही है,
क्योंकि उसे बचाना है
अंतिम लोकतंत्र ।
कवयित्री डॉ. किरण मिश्रा की कविताओं में एकरूपता का सिर्फ प्रयास है, चूँकि द्वन्द्व भी तत्सम की अमरबेल लिए हावी है । जहां विश्वास की पर्यायार्थ महिला होती हैं, किन्तु किसी महिला के साथ जब धोखा हो, तो वह नागिन हो जाती हैं । किन्तु प्रस्तुत कवयित्री किसी बदले की भावना से कविता नहीं लिख रही हैं, क्योंकि वो जानती है-- चित भी मर्दों की है, पट भी मर्दों की ! क्या यह बात पूर्णतः सही है , पता नहीं ! क्या स्त्री आँख में बंधी पट्टी के मायने उत्श्रुत 'न्याय' को कोसती है ? ऐसे ही अन्वेषण करने को लेकर 'मैसेंजर ऑफ़ आर्ट' इस अंक में लेकर आई है, कुछ अनूठी कविताएँ ! इसे पढ़कर आप ही चिंतन कीजिये, तो सही !!
आशा
सारे दरवाजे बंद कर
घनघोर अँधेरे में बैठा वो,
निराश-हताश था,
दरारों से जीवन ने प्रवेश किया
और खोल दी जीवन की खिड़की
वो स्त्री थी,
जो रिक्तता में भरती रही
उजाले.....
और बदल गई
जीवाश्म में,
अँधेरे के ।
न्याय की आस्था
उसकी पीठ पर बैंगनी फूल बंधे थे
और हाथ में सपन,
अभी अभी उगे पंख
उसने करीने से सजा रखे थे ,
कुछ जुगनू उसके होठों पर चिपक गए,
तो कुछ हँसी बन आसमान में ।
वो एक सर्द रात थी
जब हम नक्षत्रों के नीचे चल रहे थे
और चाँद मेरे साथ थी ।
हिम खंड के पिघलने तक
मैं उसका साथ चाहता था
उसे भी इंतजार था गुनगुनी धूप की,
मैं भरना चाहता था
वो समेटना
इसलिए हमने एकांत का
इंतजार किया
उसकी हँसी एकांत को भर रही थी
और मैं उनमें डूब-उतर रहा था ।
तभी एकांत के अधेरों में छिपे भेड़ियों ने
उसकी हँसी को भेदना शुरू कर दिया
मैं अकेली, उनके साथ उनकी हैवानियत
हैवानियत से मेरी नियत हार गई
और हँसी भी ।
क्षत-विक्षत हँसी अब झाड़ियों में पड़ी थी,
और मैं सतरंगी न्याय में,
इधर न्याय उलझा था,
किसी नियम से ।
मैं आज भी अधेरी रात के डर को
मुट्टी भर राख
और चुल्लू भर आंसू में मिला कर
न्याय की आस्थाएं ढूंढ़ रहा हूं।
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भरम
उसने अपनी आंखो के तारे
मेरी आंखो की नदी से मिलाए
और हम बहने लगे
एक साथ समन्दर में ।
फिर वो मुझे धरातल पर ले आया
और एक खूँटी गाड़
उसने मुझे बांध दिया ।
मैं बंधी रही
बरस दर बरस बीत गये
वो छुट्टा साँड़ बन
घूमता रहा
और मैं बंधी बंधी गाय हो गयी ।
एक दिन अचानक
मैंने अपनी खूँटी से,
खुद को अलग करना चाहा
देखती क्या हूं
न खूटी है, न रस्सी,
बंधना मेरा भ्रम था
और बांधना उसका अभिनय।
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लोकतंत्र
जाग्रत सुधियां,
मौन निमंत्रण,
मधुर मिलन
और बैचेन प्रतीक्षा आदि
सारी कविताएं ।
उसी समय
अपने होश खो देती है
जब देखती है
उजाले में सहमी उस लड़की को ।
जो अपने बदन से उतरते
उस आखिरी कपड़े को
बचा रही है,
क्योंकि उसे बचाना है
अंतिम लोकतंत्र ।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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