आज सोशल मीडिया का युग है, जहाँ दिल जुड़ने से पहले टूट जाती है ! फ़ेसबुक के मित्र भी ऐसे ही होते हैं । मित्रता समान गुण वालों से होती है और यही मित्रता टिकती भी है । परंतु फ़ेसबुकिया मित्र ऐसे नहीं होते हैं, जिनके कारण ऐसे मित्रों के बीच अन्ततोगत्वा झगड़े हो जाते हैं, फिर दिल तोड़ कर अलग हो जाते हैं । इसी ऊहापोह की गाथा को आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, सुश्री प्राची टण्डन की 'फ़ेसबुकिया स्टोरी' । आइये, इसे पढ़ते हैं और ऐसे मित्रों की सच्चाई का पोस्टमार्टम करते हैं:-
"फ़ेसबुकिया मित्रों के झूठ का पोस्टमॉर्टम"
अनंत-- " अरे महक देख 234 आ गई"। विश्वविद्यालय में मिले दो अजनबी इतना करीब आ गये थे कि हाथ पकड़ कर सड़क पार करने लगे थे।
महक- "बस अब वज़ीराबाद का पुश्तैनी जाम ना मिले तो बात बने।"
इतने ही शब्दों में आज उनका सफ़र तय होना था शायद।
वो दोनों एक दूसरे से दूर तो खड़े थे दुनिया की नज़रों में पर शायद उनके दिल दूर नही थे।
महक के शब्द चुप थे हमेशा की तरह पर आज उसकी आँखें अनंत से बहुत सारी बातें कर लेना चाहती थी, वो अपने साथ बहुत कुछ इकट्ठा कर के ले जाना चाहती थी। पर तिमारपुर आते-आते अनंत पास बैठे दो दोस्तों की तरफ इशारा कर के बोल पड़ा आखिर वो चुप रहने वालों में से है भी नही, बकबक मशीन कहीं का।
"महक हमारे पास बात करने को कुछ नहीं है क्या?"
महक- "मैं शब्दों को नहीं तुम्हारे साथ के इस समय को जीना चाहती हूँ।"
अनंत बेचारा हल्की मुस्कान देकर चुप हो गया।
इतने में बस तिमारपुर से वज़ीराबाद के जाम में आकर फंस चुकी थी।
अनंत बार-बार महक की घडी में झांक कर टाइम देख रहा था वो जल्दी घर जाना चाहता था पर महक कुछ देर और उसे देखना चाहती थी शायद उसकी आँखें आज बहुत-सी बातें कर लेना चाहती थीं। उसकी आँखें कह रही थी- "तुमसे दूरी मुझे बर्दाश्त नहीं है, हर वक़्त तुम्हे देखने की ख्वाइश है मेरी।"
अनंत उससे अपनी नज़रें चुरा रहा था पर फिर भी उसे दुनिया की नज़रों से बचा रहा था उसे मालूम था कि महक की यह ख्वाइश वो पूरी नही कर सकता। महक की आँखें, जो अब तक सिर्फ शिकायत कर रही थी, अब वो अनंत को अपने से दूर जाने से रोकने लगी, सोनियाविहार आते-आते वो आँखें दरख्वास्त करने लगी-" अनंत रुक जाओ ना कुछ देर ओर"। पर शब्द अब भी चुप थे, शायद शब्द औपचारिक वज़ूद ढूंढ रहे थे।
खजुरी आते-आते महक की आँखों में अब नमकीन पानी भर आया था अनंत महसूस कर के भी महक की आँखों से अपनी नज़रें चुरा रहा था उसे नही पता था कि वो क्या बोले, बोलने के लिए कुछ था भी तो नहीं।
बस खजुरी स्टैंड पर रुकी और अनंत के कदम बिना रुके बिना मुड़े बस से उतर गए। महक की आँखें अब आस छोड़ चुकी थी, और वो दगाबाज़ नमकीन पानी भी दगा दे गया। आँखों से निकल के गालों तक पहुँच गया।
महक चाह कर भी उसे रोक ना पाई, उसके शब्द अनंत को रोक सकते थे पर वो शब्द हक़ चाहते थे। शब्दों को उनका हक़ नही मिला, क्योंकि वो "दोस्त थे, सिर्फ और सिर्फ दोस्त"।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
Nice one
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteविनय गोला
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