"कितने ऊँचा है आसमाँ ? उड़ान उतनी ही करूँगी मैं !"
पूरी दुनिया 8 मार्च को 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' के रूप में मनाए जाने की परंपरा को जारी रखे हुए हैं । परंतु 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' की नहीं अपितु 'लौह-महिला' होने की शुभकामनायें । पहले तो नहीं, परन्तु अब जब यह सोचता हूँ, तो मुझे ताज़्ज़ुब होती है कि वर्ष के 365 दिनों में सिर्फ 1 दिन ही महिलाओं के नाम क्यों ? क्या एक दिन ही उनके लिए गुणगान किये जाकर शेष दिनों के लिए उन्हें टारगेट बना ली जाय ! जयंती या उत्त्सव के लिए यह समझ में आती है कि ऐसा साल में एकबार ही होती है, किन्तु महिला तो माँ, बहन, बेटी, प्रेयसी अथवा पत्नी इत्यादि के रूप में व्यक्तिगत व संसार ख्यात होकर 'वसुधैव कुटुंबकम' के आदर्शतम-स्थिति में होती हैं । एक सुशील माँ किसी परिवार की मानक-रूप होती है । पिता के नहीं रहते भी एक माँ पूरे परिवार को बखूबी संभाल सकती है । माँ की सर्वोच्चता के कई उदाहरण है, वहीं एक बेटी अपनी माँ की गौरवशाली परम्परा को निभाती है । यह नेपोलियन के ही शब्द थे-"मुझे कोई मेरी माँ दे दो, मैं स्वतंत्रचित्त और स्वस्थ राष्ट्र दूँगा।' अपने हिंदी व्याकरण में राष्ट्र या देश शब्द को स्त्रीलिंग मानी गयी है । भूख मिटाने के कारण धरती को माँ, तो अपने आँचल का सान्निध्य देने के कारण अपना देश 'भारत' को भी 'माता' कही जाती है । 'मदर इंडिया' में नर्गिस दत्त की भूमिका को सच्चे अर्थों में एक भारतीय माँ के लिए अतुल्य उदाहरण कही जा सकती है । इतना ही नहीं, किसी के मर्दांनगी की तुलना, माँ की दूध पीने से ही लगाई जाती है, वहीं बेटी और प्रेयसी के त्याग को कतई नकारी नहीं जा सकती ! फिर हम नित्य प्रातःस्मरणीय महिलाओं की सिर्फ एक दिन ही पूजा करें, उनकी प्रति ज्यास्ती होगी ! अगर ऐसी ही रही, तब कम से कम 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः' वाले देश में यह प्रथा कालान्तर में अमंगलकारी स्थापित होनी जड़सिद्ध हो जायेगी । आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है कवयित्री सुजाता प्रसाद की 'महिला-दिवस' पर रोचक , विहँसती और उड़ती कविताएँ , आइये पढ़ते हैं और कवयित्री को उनकी मेहनताना देते हैं:--
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पूरी दुनिया 8 मार्च को 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' के रूप में मनाए जाने की परंपरा को जारी रखे हुए हैं । परंतु 'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस' की नहीं अपितु 'लौह-महिला' होने की शुभकामनायें । पहले तो नहीं, परन्तु अब जब यह सोचता हूँ, तो मुझे ताज़्ज़ुब होती है कि वर्ष के 365 दिनों में सिर्फ 1 दिन ही महिलाओं के नाम क्यों ? क्या एक दिन ही उनके लिए गुणगान किये जाकर शेष दिनों के लिए उन्हें टारगेट बना ली जाय ! जयंती या उत्त्सव के लिए यह समझ में आती है कि ऐसा साल में एकबार ही होती है, किन्तु महिला तो माँ, बहन, बेटी, प्रेयसी अथवा पत्नी इत्यादि के रूप में व्यक्तिगत व संसार ख्यात होकर 'वसुधैव कुटुंबकम' के आदर्शतम-स्थिति में होती हैं । एक सुशील माँ किसी परिवार की मानक-रूप होती है । पिता के नहीं रहते भी एक माँ पूरे परिवार को बखूबी संभाल सकती है । माँ की सर्वोच्चता के कई उदाहरण है, वहीं एक बेटी अपनी माँ की गौरवशाली परम्परा को निभाती है । यह नेपोलियन के ही शब्द थे-"मुझे कोई मेरी माँ दे दो, मैं स्वतंत्रचित्त और स्वस्थ राष्ट्र दूँगा।' अपने हिंदी व्याकरण में राष्ट्र या देश शब्द को स्त्रीलिंग मानी गयी है । भूख मिटाने के कारण धरती को माँ, तो अपने आँचल का सान्निध्य देने के कारण अपना देश 'भारत' को भी 'माता' कही जाती है । 'मदर इंडिया' में नर्गिस दत्त की भूमिका को सच्चे अर्थों में एक भारतीय माँ के लिए अतुल्य उदाहरण कही जा सकती है । इतना ही नहीं, किसी के मर्दांनगी की तुलना, माँ की दूध पीने से ही लगाई जाती है, वहीं बेटी और प्रेयसी के त्याग को कतई नकारी नहीं जा सकती ! फिर हम नित्य प्रातःस्मरणीय महिलाओं की सिर्फ एक दिन ही पूजा करें, उनकी प्रति ज्यास्ती होगी ! अगर ऐसी ही रही, तब कम से कम 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः' वाले देश में यह प्रथा कालान्तर में अमंगलकारी स्थापित होनी जड़सिद्ध हो जायेगी । आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है कवयित्री सुजाता प्रसाद की 'महिला-दिवस' पर रोचक , विहँसती और उड़ती कविताएँ , आइये पढ़ते हैं और कवयित्री को उनकी मेहनताना देते हैं:--
हथकड़ियाँ और भी हैं
हथकड़ियाँ और भी हैं
दरम्यां इनके
जंजीरें भी,
किरदार बदल जाते हैं
कुछ परेशानियां भी,
समझ सकती हैं सिर्फ़
लड़कियां ही नहीं
औरतें भी।
कई कई सवाल इनमें
इनके अंदर ही अंदर
कुलबुलाते हैं तो कभी
कुलाँचें भी हैं भरते
पर जिनका ज़बाव
किसी भी सूरत में
इनके पास
होता है कहाँ?
क्योंकि ये सवाल
अनायास ही आते हैं
बिना किसी तयशुदा
अंतिम अवधि के
अंतस के अंतर्द्वंद्व और
बिना किसी अंतर्दृष्टि के
कैक्टस की तरह चुभे
मन रेत पर उगे उगे से।
फिर उनका ज़बाव या तो ये
समझौता मानकर दे देती हैं
या झुका कर थोड़ा अभिमान,
तो कभी मज़बूर दशा में इन्हें
पड़ता है दिशा बदलना भी
कैसा है ये सामाजिक पैमाना
है कहानी कैसी ये मानदंड की ?
बावज़ूद इसके
रह जाती है आधी आबादी
बिना जबाव के, खाली हाथ
उस शाश्वत सवाल के साथ ही
जो जीवन भर चलता है
साथ - साथ अर्द्ध सत्य सा
लिए ना जाने और भी
कितने सवाल ?
🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂
समीक्षा
आर्थिक मुक्ति,
आधुनिक उड़ान
फिर भी है पड़ा,
हाशिये पर क्यों
तुम्हारा स्वाभिमान ?
लो, दे रही अब
आजा़दी तुम्हारी
तुम नहीं,
कैसी ये
अग्नि परीक्षा ?
मनस्विनी तुम्हारी
कोई और क्यों करे
आओ
रोज बदलते पन्नों पर
स्वयं लिखो अपने अस्तित्व पर
एक ईमानदार सशक्त समीक्षा।
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