हम अगर ग्रामीण परिवेश से जुड़े हैं और पढ़ाई तथा अन्य विकल्प लिए आगे बढ़ते हैं, तो हममें शहरी आबोहवा में घूमने-फिरने की इच्छा बलवती होने लगती है । शहर में पढ़ने के बाद पहले तो राज्य की राजधानी, फिर देश की राजधानी, फिर देश के अन्य शहर को वहाँ जाकर देखने की इच्छा मन में उफान मारने लगती है । इसी क्रम में अमेरिका या यूरोप पहुँचने के स्वप्न भी मन-तन-धन को इस कदर परेशान करने लगते हैं कि वास्तव में अमेरिका भी पहुँच जाते हैं । शुरुआत में अमेरिका भी अच्छी लगती है, किन्तु जब मातृभूमि की याद आने लग जाती है, तब अपनी माटी, अपना गाँव, शकूर चाचा की दाढ़ी, ठाकुरबाड़ी का हलुआ, घीसू साह के दूकान की जलेबी, कुम्हार की चाक, मित्राईन अंकिता के साथ नोंक-झोंक ... इत्यादि एक-एक कर याद आने लग जाते हैं और अन्ततोगत्वा गाँव जब वापस आता हूँ, तो तब गाँव 'गाँव' नहीं रहा होता है, वहाँ भी शहरी भूत माथे पे चढ़ा रहता है । Messenger of Art के प्रस्तुतांक में ललित निबंधकार श्रीमान वैभव पटेल ने अपने इसी याद को बड़े करीने से लेखनीबद्ध किया है । प्रस्तुत ललित निबंध को पढ़कर किसी को भी आचार्य विद्यानिवास मिश्र के संस्मरणात्मक निबंधों की याद हो आयेगी । आइये, हम भी इसे पढ़ अपनी जन्मभूमि की याद ताजा कर लेते हैं कि अरे, ओ माँझी, ओ माँझी.... नैया धीरे-धीरे चलाना रे.........
एक अरसा हो गया है !!
वैसे तो इतने वक़्त में अमूमन सरकार भी नहीं बदलती, पर गाँव जरूर बदल गया है, गाँव के लोग बदल गए हैं ! साल के बारहों महीने खुद के ही हालात पर तरस खाते खड़ंजे अब इठलाने लगे हैं, आखिर अब वो आर सी सी जो हो गयी हैं ! इक्का दुक्का जो कच्चे मकान थे, वो भी अब ईंट के हो चुके हैं, झोपड़ियाँ की जगह अब छत हो गईं हैं । साश्चर्य है, गाँव अम्बेडकर ग्राम से होते हुए लोहिया आदर्श ग्राम हो चुके हैं ।
सुबह शौच जाने वाले अब अपनी सोच प्रदर्शित करने लगे हैं और शौचालय का प्रयोग करने लग गए हैं । जहाँ बगीचे हुआ करते थे, वो या तो खेत में तब्दील हो गए हैं या फिर घर बना दिए गए हैं ! प्राइमरी स्कूल के पास वाले बगीचे भी अब लगभग खत्म होने को हैं, एक-दो जो पेड़ बचे भी हैं तो अब उनमे बौर नहीं आते, शायद ईंट भट्ठे से निकलते धुएं ने उन्हें लील लिया है या उन्हें बाँझ बना दिया है या वो अब बूढ़े हो चले हैं ! पांच साल पहले स्कूल की पिछली दीवार पर अपनी कला के प्रदर्शन में कोयले से जो सूक्तियाँ लौंडो ने लिख दी थीं, वो अब मिट चुकी हैँ, शायद अब के बच्चे इतना सामर्थ्य नहीं रखते हैं कि वो भी अपनी मन की कुंठा को दीवार पर "अशुद्ध शब्दो के उस समूह" को लिख के मिटा लेते, जैसा कि हम तब किया करते थें, अन्यथा उस दीवार पर कुछ नए नारे जरूर लिखा जा चुके होते !
हर घर के बच्चे इंग्लिश मीडियम में पढ़ने लगे हैं, स्कूल-बस अब घर तक आने लगी है ! अब बच्चे किताबों की झोला फ़ेंककर और स्कूल ड्रेस में ही बैट-बॉल लिए प्राइमरी स्कूल वाले बाग़ में नहीं पहुँचते हैं, शायद उन्हें ट्यूशन भी पढ़ना होता है जो या फिर खेलने का कोटा मोबाइल और कंप्यूटर वाले गेम ऑफ़ थ्रोन से पूरा हो जाता है ! अब अँधेरा ढलने पर बच्चे गलियों में, दालानों में , भुसहुले (भूसा रखने का घर) में आइस-पाइस नहीं खेलते कि उन्हें शायद वक्त नहीं मिल पाता है ।
गर्मी की छुट्टियों में बच्चे दोपहर में घर वालों के सोने का इंतज़ार भी नहीं करते, शायद उन्हें नदी पे नहाने नहीं जाना होता है, न ही दूसरे के बाग़ से आम चुराना होता है ! अब किसी बच्चे के पास जायद खान और दीनू मोरिया वाली "खन्नी" नहीं है, शायद अब फोटो के खेल को ग्राम खेल संघ ने खेलों की सूची से बाहर कर दिया है । अमूमन यही हाल "घुच्ची-पिल्लो" जैसे कई और खेलों का है ! क्रिकेट की नयी पीढ़ी तैयार हो चुकी है, "दूध भात" वाले खिलाडी अब कप्तान बन गए हैं, खेल के कुछ नए नियम भी आ गए हैं, पर "अगर किसी के घर से बुलावा आ जाता है तो वो खेल छोड़ के जा सकता है" वाला नियम आज भी मान्य है, आज भी अगर किसी खिलाडी के घर का कोई सदस्य दूर से ही सही, दिख जाए तो उस खिलाडी के छिपे रहने तक खेल स्थगित रहता है !
ठाकुर चाचा के यहाँ अब ताश खेलने वालों की टोली नहीं बैठती, अब किसी के पास वक़्त नहीं रहा । पर हाँ ! ताश के कुछ खिलाडी बचे हैं तो खेल भी बचा है, पर अब वो जोश गायब है, जलसा गायब है ! बैठकें, नये ठिकाने खोज चुकी हैं, पुराने मठाधीश अब रिटायर हो चुके हैं, शायद घर-परिवार में उलझ के रह गये हैं, अब चुनाव से लेकर खेती बाड़ी तक सभी मुद्दों के नए विश्लेषक आ गए हैं!
हमारी उम्र का तो गाँव में वैक्कम क्रिएट हो गया है, लड़के माँ-बाप की उम्मीद और अपने अरमान पूरा करने किसी शहर में डेरा डाल चुके हैं, गाँव खाली हो गया है!
खैर, बदलाव ही तो जिदंगी की पहली शर्त है, तो फिर गाँव क्यों नहीं बदले ! अच्छा भी है, होते रहना चाहिए!
बाकी तो जो है , सो हइये है !
एक अरसा हो गया है !!
वैसे तो इतने वक़्त में अमूमन सरकार भी नहीं बदलती, पर गाँव जरूर बदल गया है, गाँव के लोग बदल गए हैं ! साल के बारहों महीने खुद के ही हालात पर तरस खाते खड़ंजे अब इठलाने लगे हैं, आखिर अब वो आर सी सी जो हो गयी हैं ! इक्का दुक्का जो कच्चे मकान थे, वो भी अब ईंट के हो चुके हैं, झोपड़ियाँ की जगह अब छत हो गईं हैं । साश्चर्य है, गाँव अम्बेडकर ग्राम से होते हुए लोहिया आदर्श ग्राम हो चुके हैं ।
सुबह शौच जाने वाले अब अपनी सोच प्रदर्शित करने लगे हैं और शौचालय का प्रयोग करने लग गए हैं । जहाँ बगीचे हुआ करते थे, वो या तो खेत में तब्दील हो गए हैं या फिर घर बना दिए गए हैं ! प्राइमरी स्कूल के पास वाले बगीचे भी अब लगभग खत्म होने को हैं, एक-दो जो पेड़ बचे भी हैं तो अब उनमे बौर नहीं आते, शायद ईंट भट्ठे से निकलते धुएं ने उन्हें लील लिया है या उन्हें बाँझ बना दिया है या वो अब बूढ़े हो चले हैं ! पांच साल पहले स्कूल की पिछली दीवार पर अपनी कला के प्रदर्शन में कोयले से जो सूक्तियाँ लौंडो ने लिख दी थीं, वो अब मिट चुकी हैँ, शायद अब के बच्चे इतना सामर्थ्य नहीं रखते हैं कि वो भी अपनी मन की कुंठा को दीवार पर "अशुद्ध शब्दो के उस समूह" को लिख के मिटा लेते, जैसा कि हम तब किया करते थें, अन्यथा उस दीवार पर कुछ नए नारे जरूर लिखा जा चुके होते !
हर घर के बच्चे इंग्लिश मीडियम में पढ़ने लगे हैं, स्कूल-बस अब घर तक आने लगी है ! अब बच्चे किताबों की झोला फ़ेंककर और स्कूल ड्रेस में ही बैट-बॉल लिए प्राइमरी स्कूल वाले बाग़ में नहीं पहुँचते हैं, शायद उन्हें ट्यूशन भी पढ़ना होता है जो या फिर खेलने का कोटा मोबाइल और कंप्यूटर वाले गेम ऑफ़ थ्रोन से पूरा हो जाता है ! अब अँधेरा ढलने पर बच्चे गलियों में, दालानों में , भुसहुले (भूसा रखने का घर) में आइस-पाइस नहीं खेलते कि उन्हें शायद वक्त नहीं मिल पाता है ।
गर्मी की छुट्टियों में बच्चे दोपहर में घर वालों के सोने का इंतज़ार भी नहीं करते, शायद उन्हें नदी पे नहाने नहीं जाना होता है, न ही दूसरे के बाग़ से आम चुराना होता है ! अब किसी बच्चे के पास जायद खान और दीनू मोरिया वाली "खन्नी" नहीं है, शायद अब फोटो के खेल को ग्राम खेल संघ ने खेलों की सूची से बाहर कर दिया है । अमूमन यही हाल "घुच्ची-पिल्लो" जैसे कई और खेलों का है ! क्रिकेट की नयी पीढ़ी तैयार हो चुकी है, "दूध भात" वाले खिलाडी अब कप्तान बन गए हैं, खेल के कुछ नए नियम भी आ गए हैं, पर "अगर किसी के घर से बुलावा आ जाता है तो वो खेल छोड़ के जा सकता है" वाला नियम आज भी मान्य है, आज भी अगर किसी खिलाडी के घर का कोई सदस्य दूर से ही सही, दिख जाए तो उस खिलाडी के छिपे रहने तक खेल स्थगित रहता है !
ठाकुर चाचा के यहाँ अब ताश खेलने वालों की टोली नहीं बैठती, अब किसी के पास वक़्त नहीं रहा । पर हाँ ! ताश के कुछ खिलाडी बचे हैं तो खेल भी बचा है, पर अब वो जोश गायब है, जलसा गायब है ! बैठकें, नये ठिकाने खोज चुकी हैं, पुराने मठाधीश अब रिटायर हो चुके हैं, शायद घर-परिवार में उलझ के रह गये हैं, अब चुनाव से लेकर खेती बाड़ी तक सभी मुद्दों के नए विश्लेषक आ गए हैं!
हमारी उम्र का तो गाँव में वैक्कम क्रिएट हो गया है, लड़के माँ-बाप की उम्मीद और अपने अरमान पूरा करने किसी शहर में डेरा डाल चुके हैं, गाँव खाली हो गया है!
खैर, बदलाव ही तो जिदंगी की पहली शर्त है, तो फिर गाँव क्यों नहीं बदले ! अच्छा भी है, होते रहना चाहिए!
बाकी तो जो है , सो हइये है !
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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