कुछ लोग सोशल मीडिया के धार्मिक -कॉलम में एक शब्द जरूर लिखते हैं -- मानवता ! पर वे लेखक इस मानवता से भले ही कभी परिचित न हुए हो ! आजकल का माहौल पहले से ज्यादा बिगड़ गया हैं । थोड़े से प्यार के बाद तकरार में 'हत्या-बलात्कार' आदि-अनादि जघन्य कार्य हो जाते हैं, लेकिन जब 'प्यार' का कोई प्रतिफल नहीं मिल नहीं पाता है, तो Acid को अपना हथियार बनाकर ईश्वर की अनोखी कृति के चेहरे को तार-तार कर देते है -- क्या ऐसे संस्कार मिलते है नौजवान पीढ़ी को ? आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, इन्ही सवालों के जवाब ढूंढती हुई सुश्री कल्पना पाण्डेय की कथात्मक-आलेख प्रस्तुत सादर प्रस्तुत है, आइये पढ़ें---
बदन के हर झुलसे अंग पर एक टैटू दिखता है… ‘औरत’
बहुत कुछ गल गया था उस रोज़, जिस रोज़ कोई ‘पौरुष का घोल’ मुझ पर फेंक कर चलता बना। सड़क पर झुलसती मैं और इक मूक भीड़ जो ‘तेज़ाब -तेज़ाब’ सा कुछ चीख़ रही थी। पर जलन बता रही थी और मैं भोग भी रही थी- उस सौ गुना ज्वलनशील भावना को, जो वो मुझ पर तेज़ाब में मिला कर उड़ेल गया था।
रिस रही चमड़ी भी लाचार होकर अंगों का साथ छोड़ रही थी। दर्द ने होश गवां दिए थे। अँधेरा इतना काला कैसे हो गया भरी दोपहरी में?
कुछ ग्रहण बने होते है- चाँद सूरज के लिए और कुछ बना दिए जाते हैं बिना कारण, बिना तारीख, बिना सोचे समझे ! उस दिन कई अखबारों में सिर्फ एक ही खबर छपी- ”इक चाँद… भरी दुपहरी सड़क पर झुलस गया”। ऐसी कई दिनों तक फिर बस खबरें छपती रही। चाँद झुलसता रहा और दिन - रात रुके रहे । साथ में दर्द और दवा भी।
हर ग्रहण की तरह इस ग्रहण का भी गुज़र जाना तय था। तारीखें जब बढ़ती हैं तो बहुत कुछ संग सरका ले जाने का माद्दा रखती हैं। कब तक रेंगता रहता मुझपर दर्द । इक सीमा के बाद दर्द के पैर पर भी लकवा मार गया।
फिर रिसना बंद। रिसाव बंद। आँसू बंद। बहाव बंद।
सब ठोस हो गया। जैसे तेज़ाब संग सारे भावनात्मक और शारीरिक द्रव्य भाप बनकर उड़ गए हों। शरीर के चीथड़ों में कुछ था अब भी बाक़ी जो शायद काफी गहरा धंसा होने की वजह से बच गया था… ‘मेरा अंतस’।बस वही साबुत रहा। थोड़े छींटे पड़े भी होंगे शायद… पर अब मैं इतनी भी बदनसीब नहीं थी। या फिर भगवान ने खूबसूरती का वही इक सामान मुझ पर छोड़ने का मन बना लिया होगा। ऐन मौके पर बदल लिया होगा उसने भी अपना मन… शायद।
बस उसी ‘अंतस’ को एक दिन झुलसे हाथों से उठाकर आईने के सामने नग्न होकर अपने क्षत-विक्षत शरीर पर मल डाला। जख्म भरे तो नहीं उस रोज़ भी पर एक परत महसूस हुई अपने जले अंगों पर जो अदृश्य थी, पर जाने क्यों मुझे दिख पा रही थी । शायद जिजीविषा थी मेरी।
मरने के लिए छोड़ जाना और मर जाने का अंतर पाट लिया था मैंने। मैं थी और इक आइना था जो पहले से और खूबसूरत नज़र आ रहा था। आइना ही ‘खूबसूरत’ हो सकता था अब , क्योंकि मेरे शब्दकोष में ये शब्द बरसों पहले सो चुका था। अपने मायने खो चुका था। आखिरी बार बस आँखों के रास्ते बचा-खुचा तेज़ाब बहाने के लिए रोई । चीत्कार कर रोई।
जब रहा-सहा समेटो तो ढेरी ही बनती है, जो मुठ्ठी से उठायी जा सकती है। मुट्ठी में हौसले भी होते हैं और तकदीर भी। तकदीर पर कब ज़ोर चला था मेरा… अच्छा हुआ जल गई। हौसले चिपके रहे जली हथेलियों पर।
आज इक बार फिर खड़ी हूँ
अब ज्वालामुखी हूँ ….
क्योंकि धधक पहन कर चलती हूँ
तेज़ाब ढोती हूँ रोज़
रिहाई बरसों पहले हो गयी थी मेरी पर आज मैं रिहा हूँ
पहले से ज्यादा पूर्ण हूँ
बल्कि तेज़ाब में भीगने के बाद से संपूर्ण हो गयी हूँ।
कुछ अंग नहीं हैं मेरे
अब वो… रंग भी नहीं हैं मेरे
पर… रिक्त नहीं हूँ
पहले भी नहीं थी… गलने से पहले
ना अब गल जाने के बाद
अपनी पुरानी पहचान पर खुद तेज़ाब डाल कर मैंने ‘स्वयं’ खोज लिया है अपना
अपने बदन के हर झुलसे अंग पर एक टैटू दिखता है…
'औरत’
चलो इसका नया अर्थ भी बताती चलूँ…
औ….और भी ढ़ेर
र….रवायतें लाद दो
त….तय कर लूँगी
ठीक इसी ढब में गोदा है अपने ऊपर ....
डाल कर देखो अब अपना पौरुष वाला तेज़ाब ।
बेअसर होगा ....और शर्मिंदा भी।
और हाँ .....जाते जाते एक बात और ...
अब फ़िदा नहीं होती खुद पर
अब.......... रिदा रहती हूँ खुद से !
बदन के हर झुलसे अंग पर एक टैटू दिखता है… ‘औरत’
बहुत कुछ गल गया था उस रोज़, जिस रोज़ कोई ‘पौरुष का घोल’ मुझ पर फेंक कर चलता बना। सड़क पर झुलसती मैं और इक मूक भीड़ जो ‘तेज़ाब -तेज़ाब’ सा कुछ चीख़ रही थी। पर जलन बता रही थी और मैं भोग भी रही थी- उस सौ गुना ज्वलनशील भावना को, जो वो मुझ पर तेज़ाब में मिला कर उड़ेल गया था।
रिस रही चमड़ी भी लाचार होकर अंगों का साथ छोड़ रही थी। दर्द ने होश गवां दिए थे। अँधेरा इतना काला कैसे हो गया भरी दोपहरी में?
कुछ ग्रहण बने होते है- चाँद सूरज के लिए और कुछ बना दिए जाते हैं बिना कारण, बिना तारीख, बिना सोचे समझे ! उस दिन कई अखबारों में सिर्फ एक ही खबर छपी- ”इक चाँद… भरी दुपहरी सड़क पर झुलस गया”। ऐसी कई दिनों तक फिर बस खबरें छपती रही। चाँद झुलसता रहा और दिन - रात रुके रहे । साथ में दर्द और दवा भी।
हर ग्रहण की तरह इस ग्रहण का भी गुज़र जाना तय था। तारीखें जब बढ़ती हैं तो बहुत कुछ संग सरका ले जाने का माद्दा रखती हैं। कब तक रेंगता रहता मुझपर दर्द । इक सीमा के बाद दर्द के पैर पर भी लकवा मार गया।
फिर रिसना बंद। रिसाव बंद। आँसू बंद। बहाव बंद।
सब ठोस हो गया। जैसे तेज़ाब संग सारे भावनात्मक और शारीरिक द्रव्य भाप बनकर उड़ गए हों। शरीर के चीथड़ों में कुछ था अब भी बाक़ी जो शायद काफी गहरा धंसा होने की वजह से बच गया था… ‘मेरा अंतस’।बस वही साबुत रहा। थोड़े छींटे पड़े भी होंगे शायद… पर अब मैं इतनी भी बदनसीब नहीं थी। या फिर भगवान ने खूबसूरती का वही इक सामान मुझ पर छोड़ने का मन बना लिया होगा। ऐन मौके पर बदल लिया होगा उसने भी अपना मन… शायद।
बस उसी ‘अंतस’ को एक दिन झुलसे हाथों से उठाकर आईने के सामने नग्न होकर अपने क्षत-विक्षत शरीर पर मल डाला। जख्म भरे तो नहीं उस रोज़ भी पर एक परत महसूस हुई अपने जले अंगों पर जो अदृश्य थी, पर जाने क्यों मुझे दिख पा रही थी । शायद जिजीविषा थी मेरी।
मरने के लिए छोड़ जाना और मर जाने का अंतर पाट लिया था मैंने। मैं थी और इक आइना था जो पहले से और खूबसूरत नज़र आ रहा था। आइना ही ‘खूबसूरत’ हो सकता था अब , क्योंकि मेरे शब्दकोष में ये शब्द बरसों पहले सो चुका था। अपने मायने खो चुका था। आखिरी बार बस आँखों के रास्ते बचा-खुचा तेज़ाब बहाने के लिए रोई । चीत्कार कर रोई।
जब रहा-सहा समेटो तो ढेरी ही बनती है, जो मुठ्ठी से उठायी जा सकती है। मुट्ठी में हौसले भी होते हैं और तकदीर भी। तकदीर पर कब ज़ोर चला था मेरा… अच्छा हुआ जल गई। हौसले चिपके रहे जली हथेलियों पर।
आज इक बार फिर खड़ी हूँ
अब ज्वालामुखी हूँ ….
क्योंकि धधक पहन कर चलती हूँ
तेज़ाब ढोती हूँ रोज़
रिहाई बरसों पहले हो गयी थी मेरी पर आज मैं रिहा हूँ
पहले से ज्यादा पूर्ण हूँ
बल्कि तेज़ाब में भीगने के बाद से संपूर्ण हो गयी हूँ।
कुछ अंग नहीं हैं मेरे
अब वो… रंग भी नहीं हैं मेरे
पर… रिक्त नहीं हूँ
पहले भी नहीं थी… गलने से पहले
ना अब गल जाने के बाद
अपनी पुरानी पहचान पर खुद तेज़ाब डाल कर मैंने ‘स्वयं’ खोज लिया है अपना
अपने बदन के हर झुलसे अंग पर एक टैटू दिखता है…
'औरत’
चलो इसका नया अर्थ भी बताती चलूँ…
औ….और भी ढ़ेर
र….रवायतें लाद दो
त….तय कर लूँगी
ठीक इसी ढब में गोदा है अपने ऊपर ....
डाल कर देखो अब अपना पौरुष वाला तेज़ाब ।
बेअसर होगा ....और शर्मिंदा भी।
और हाँ .....जाते जाते एक बात और ...
अब फ़िदा नहीं होती खुद पर
अब.......... रिदा रहती हूँ खुद से !
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
Nice column
ReplyDelete"इस क्षण- भंगुर संसार में कविता भी क्षणभंगुर हो ,यह आवश्यक नहीं "-- जब प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा कविता के दीर्घायु होने की कामना करते हैं तो कवयित्री कल्पना पांडे की एसिड अटैक की शिकार हुई पीड़िता के अकल्पनीय शारीरिक और मानसिक द्वन्द्व ,अन्तर्संघर्ष , चरम वेदना पर लिखी बेहद मर्मस्पर्शी कविता " बदन के हर झुलसे अंग पर एक टैटू दिखता है… ‘औरत’ " नज़रों के समक्ष अनायास उभर आती है। चरम जिजीविषा और दुर्धर्ष इच्छा- शक्ति के संयोजन से बुनी- गुथी यह कविता न केवल एक विशिष्ट ' जीवन - दृष्टि ' की कविता है ,अपितु एक बड़े पृथक शिल्पगत प्रभाव को भी ख़ुद में समेटे हुए है। गद्य में
ReplyDelete' पारभाषी लयात्मकता ' लिए यह कविता कई दफ़ा तो शिल्प की दृष्टि से प्रसिद्ध कवि ' मंगलेश डबराल ' की कविता '' ठगे जाने में सन्तोष ' आदि की शैली की याद दिला जाती है । एसिड अटैक पीड़िता के देह पर ' पौरुष के घोल ' जनित कभी न मिट पाने वाले धब्बे के लिए कवयित्री द्वारा कविता के शीर्षक में ' टैटू ' शब्द का प्रयोग करना ही कवयित्री के उस बड़े सकारात्मक विज़न को स्पष्ट कर देता है जो किसी ' पीड़िता ' में कवयित्री द्वारा किये गए ' परकाया प्रवेश ' के दौरान अनुभूत अकथ शारीरिक- मानसिक पीड़ा , संघर्ष और अन्ततः उस संघर्ष से उबर ' जीने की इच्छा - शक्ति ' के साथ सामने आता है...दाग- धब्बा नहीं ,टैटू...क्या बात..एक करारा तमाचा तो है हीं यह 'पुरुषवादी अहं ' के गाल पर...पुरुष के हताश निरंकुश 'अहं के विरुद्ध स्त्री स्वाभिमान के लिए ,अपने मान के लिए और अपनी निजता एवं पहचान के लिए....। किसी पीड़िता की मार्मिक दशा और स्थिति को कविता में अभिव्यक्त करते कुछ शब्द मसलन - चलता बना(जैसे कोई ख़ास बात नहीं) , जलन( तेज़ाब की) बनाम ज्वलनशील भावना(किसी पुरुष का) ,अंधेरे का इतना काला होना भरी दुपहरी में, हर ग्रहण की तरह इस ग्रहण का गुजर जाना आदि - आदि रोज़मर्रा में प्रयुक्त ऐसे शब्द और विचार हैं जो कविता में आकर न केवल पाठक को पीड़िता की अंतर्दशा से connect करते हैं ,अपितु अपनी आम सहजता से ये चौंकाने वाले शब्द पूरे पुरुषगत ढाँचे के स्त्री संबन्धी सामाजिक - सांस्कृतिक सोच को भी खोल कर रख देती है....सामाजिक - ऐतिहासिक प्रक्रिया का यह 'मनोगत प्रतिबिंबन ' न केवल रचनाकार की वस्तुनिष्ठता का परिणाम प्रतीत होता है ,अपितु यह उसके 'गहरे आत्मगत प्रयास ' से भी जुड़ता - सा लगता है.....इस दृष्टि से कल्पना पांडे की यह कविता रूसी साहित्यिक चिंतक ग्रेगोरी प्लेखानोव की दृष्टि से साहित्य के विकास से भी सम्बद्ध है और एक बड़ी कविता होने का दावा प्रस्तुत करती है...इतना ही नहीं ,स्त्री - आर्तनाद की यह कविता उस समय चरम पर आ जाती है जब यह अपनी वेदना से उबरने हेतु अपनी वेदना को राख की तरह मलते हुए 'फ़ीनिक्स ' पक्षी की तरह पुनः उठ खड़ी हो ज़िंदा हो उठती है...
"आज इक बार फिर खड़ी हूँ "
पर , तेजाब की बारिश में सराबोर होने के पश्चात पीड़िता का पूरी जीवटता से सामने आना , पुरुष सत्ता को ललकारना और औरत शब्द को पुनर्परिभाषित करना न केवल स्त्री - मुक्ति का शंखनाद करता है अपितु , स्वयँ में स्वयँ से आच्छादित रहने की घोषणा भी करता है...बिना पुरुष के किसी शारीरिक- भावनात्मक dependiblity के । एक अद्भुत कविता जो पारंपरिक ढाँचे के लिए चुनौती भी है ,ख़तरा भी और मूलतः एक rebel भी....कवयित्री को मेरी भी असीम शुभकामनाएँ.....!!!
** प्रसून परिमल **
बिल्कुल !
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