हिंदी काव्यकला में ग़ज़ल, नज़्म, शे'र, कौव्वाली इत्यादि का असर धीरे-धीरे ख़त्म-से होते जा रहे हैं । ऐसे में वफ़ा से बेवफ़ा औए बेवफ़ा से वफ़ा की तकरार अब किसी भी महफ़िल में नहीं देखी जा रही हैं । परंतु आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, ग़ज़लों से भरी महफ़िल । इस ग़ज़ल में ज़िंदगीनामा लिए सच्चाई को प्रस्तुत कर रही है, गजलकार सुमन ढींगरा दुग्गल । आइये, हम इसे पढ़ते हैं और रमते हैं, अपनी भी ज़िंदगी की छुई-मुई में---
हसीन ख्वाबों की तो नर्मियाँ बहुत-सी हैं,हकीकतों की तल्खियाँ मगर बहुत-सी हैं;
दिलों के बीच अभी दूरियाँ बहुत-सी हैं, वफा की राह में दुश्वारियाँ बहुत-सी हैं ।
उलझ के रह गया दिल मेरा उसके कूचे में, हमारे शहर में तो बस्तियां बहुत-सी हैं;
कभी भुला न सके दिन हसीं वो बचपन के नज़र में,वो तितलियाँ आज भी बहुत-सी हैं ।
हमें कफस न नज़र आएगा रिवाज़ों का मगर, अभी भी पड़ी बेड़ियाँ बहुत-सी हैं;
खिज़ा ने पहना कहां ज़र्दे पैरहन पूरा, कि बची शज़र पे हरी पत्तियाँ बहुत-सी हैं ।
हमारी हसरतें पामाल हैं फकीरों-सी, उन्हीं की जीस्त में परछाइयाँ बहुत-सी हैं;
'सुमन' लबों पे तबस्सुम मैं फिर भी रखती हूं, लगी जिगर पे मेरे बरछियाँ बहुत-सी हैं ।
✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨✨
चराग जलते रहे फिर भी रौशनी न रही ये, ज़िंदगी मेरी पहले-सी ज़िदंगी न रही;
भटक रहे थे लिए लब पे प्यास सहरा की, हमारे लब पे मगर आज तिश्नगी न रही ।
दिखाई दे रही है ये जो रौशनी तुमको हुई है, गैर की यारों वो अब मेरी न रही;
उदास आँखें मेरी जाने ढूँढती हैं क्या ,बदल गया है सभी कुछ खुशी-खुशी न रही ।
बहुत तलाशी ज़मीं कुर्ब की तेरी मैंने, नसीब में कभी कुर्बत की चाँदनी न रही;
हवा चली है चमन में न जाने कैसी ये गुलों में, रंग कोई और ताज़गी न रही ।
हसीन ख्वाबों की तो नर्मियाँ बहुत-सी हैं,हकीकतों की तल्खियाँ मगर बहुत-सी हैं;
दिलों के बीच अभी दूरियाँ बहुत-सी हैं, वफा की राह में दुश्वारियाँ बहुत-सी हैं ।
उलझ के रह गया दिल मेरा उसके कूचे में, हमारे शहर में तो बस्तियां बहुत-सी हैं;
कभी भुला न सके दिन हसीं वो बचपन के नज़र में,वो तितलियाँ आज भी बहुत-सी हैं ।
हमें कफस न नज़र आएगा रिवाज़ों का मगर, अभी भी पड़ी बेड़ियाँ बहुत-सी हैं;
खिज़ा ने पहना कहां ज़र्दे पैरहन पूरा, कि बची शज़र पे हरी पत्तियाँ बहुत-सी हैं ।
हमारी हसरतें पामाल हैं फकीरों-सी, उन्हीं की जीस्त में परछाइयाँ बहुत-सी हैं;
'सुमन' लबों पे तबस्सुम मैं फिर भी रखती हूं, लगी जिगर पे मेरे बरछियाँ बहुत-सी हैं ।
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चराग जलते रहे फिर भी रौशनी न रही ये, ज़िंदगी मेरी पहले-सी ज़िदंगी न रही;
भटक रहे थे लिए लब पे प्यास सहरा की, हमारे लब पे मगर आज तिश्नगी न रही ।
दिखाई दे रही है ये जो रौशनी तुमको हुई है, गैर की यारों वो अब मेरी न रही;
उदास आँखें मेरी जाने ढूँढती हैं क्या ,बदल गया है सभी कुछ खुशी-खुशी न रही ।
बहुत तलाशी ज़मीं कुर्ब की तेरी मैंने, नसीब में कभी कुर्बत की चाँदनी न रही;
हवा चली है चमन में न जाने कैसी ये गुलों में, रंग कोई और ताज़गी न रही ।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
वाह्ह! कम्माल दी! खूबसूरत ग़ज़लें!!👌👌💐💐
ReplyDeleteबहुत उम्दा वाह वाह मुबारक हो
ReplyDeleteवाह्ह्ह्हह्ह वाह्ह्हह्ह उम्दा गज़लें सुमन बहन बहुत खूब
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