22 अप्रैल को ग्लोब माता व धरती माता की जन्म-जयन्ती रही, 23 अप्रैल को 80 वर्ष की अवस्था में भी अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा सँभालने वाले वीर कुँवर सिंह की जयन्ती है । दोनों को एतदर्थ सादर नमन । धरती माता जहाँ 'ग्लोबल वार्मिंग' से परेशान है, तो वीर कुँवर सिंह की शहादत को 21 वीं सदी के युवा भारतीयों द्वारा पैसों के पीछे पागलपन होने के फलश्च इसे ठेंगा दिखाने-से अक्षम्य अपराध कर रहे हैं । इन दोनों वस्तुस्थितियों के प्रसंगश: आज 4 लघु प्रेरक कथा प्रस्तुतांक में प्रकाशित की जा रही हैं । मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, कवि, लेखक और लघुकथाकार श्रीमान यशपाल निर्मल की लेखनी से निःसृत लप्रेक..., आइये, हम अब इसे पढ़ते हैं और अपनी प्रतिक्रिया देते हैं:--
नोटों की छांव
गेहूँ की कटाई के उपरांत चमन लाल के खेत खाली हुए, तो उसने जवान पेड़ों को कटवा दिया।
कुछ दिनों के बाद वह दूसरे गाँव के ठेकेदार को बेचे गए पेड़ों के रुपये लेकर अपने खेतों में से निकल रहा था। मई महीने की आग बरसाती दोपहर में लू के थपेड़ों ने उसका बुरा हाल कर दिया था। सिर पर सूर्य अंगारे उगल रहा था। जब वह पहले अपने खेतों में आते थे, तो खेतों में खड़े पेड़ शीतल हवा के झोंकों से उसका स्वागत करते थे । तभी उसने धूप से बचने का प्रयास करते हुए हाथ में पकड़े रुपयों की गड्डी वाला लिफाफा सिर के ऊपर रख दिया। परंतु यह क्या ? नोटों की छाँव सिर्फ़ सिर को भी धूप से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं थी।
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सच्चा प्यार
"यार मैं कोमल के बिना ज़िंदा नहीं रह सकता !" रमण ने बड़ी ही मासूमियत के साथ कहा।
"क्यूँ? " मैंने अनायास ही पूछ लिया।
" तुम नहीं जानते, मैं कोमल से कितना प्यार करता हूँ। सच्चा प्यार। बहुत ज़्यादा चाहता हूँ मैं उसे। अपनी जान से भी ज़्यादा। "
"अच्छा !"
"हाँ यार ! आज वह नाराज है मुझसे, तो मुझे चैन नहीं आ रहा। "
"क्यों क्या बात हो गई ऐसी ?"
"यार ! कल उसने मुझे अंजना के साथ काफ़ी हाउस में देख लिया था !"
"यार, मुझे एक बात समझ नहीं आती ,जब तुम्हारा अफेयर कोमल के साथ ठीक ठाक चल रहा है तो फिर तुम्हें इधर-उधर मुँह मारने की क्या आवश्यकता है ?"
" क्योंकि अगर ईश्वर न करे, कल को कोमल से ब्रेक अप हो जाता है तो कोई न कोई तो चाहिए टाइम पास के लिए।" रमण ने तपाक से कहा।
मैं अवाक सा उसका चेहरा तकता रह गया !
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अजनबी
अनुराधा और नीलम 12वीं की परीक्षा पास कर ली थी। आज वह दोनो जम्मू विश्वविद्यालय में पत्राचार-माध्यम से बी.ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने आई थी। उन दोनों को न तो विश्वविद्यालय के विभागों की जानकारी थी और न ही वहां कोई जान-पहचान का था। वह दोनों बहुत परेशान थीं। पास खड़ा तरसेम उनकी परेशानी भांप गया। क़रीब जा कर बोला ,"मेरा नाम तरसेम है। इसी विश्वविद्यालय के डोगरी विभाग में एम.फिल. कर रहा हूँ। आप कुछ परेशान लग रही हैं क्या मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूँ।"
एक अजनबी का इस प्रकार उनसे बोलना और फिर सहायता के लिए आग्रह करना अनुराधा और नीलम को अटपटा लगी, लेकिन कोई और रास्ता भी तो नहीं था ! उन्होंने झिझकते हुए कहा ," हम बी.ए. प्रथम वर्ष में पत्राचार-माध्यम में प्रवेश लेना चाहती हैं। हमें विश्वविद्यालय के बारे में कुछ भी पता नहीं है........"
तरसेम ने उनको सबसे पहले पत्राचार विभाग दिखाया। प्रॉस्पेक्टस ख़रीद दिए। प्रवेश के सभी नियम विस्तार से समझाए। फिर फ़ार्म भर कर ,फीस बग़ैर जमा करवा दी और इस प्रकार दौड़-धूप करके एक ही दिन में उनको प्रवेश दिलवा दिया। उसके बाद सारे विश्वविद्यालय में घूमाया और सभी विभागों की जानकारी दी। भरी दोपहर हो आयी थी, तरसेम उनको कैंटीन में ले गया और खाने का आर्डर दे दिया। दोनों सहेलियाँ जो पहले सामान्य हो चुकी थीं , अब घबराने लगीं थी। कहीं यह अजनबी हमें अपने किसी जाल में तो नहीं फंसा रहा है ! इसी उधेड़बुन में उन्होंने खाना भी खाया। तरसेम ने खाने का बिल चुकाया और उनको विदा करने बस स्टैंड तक उनके साथ गया। अपने गाँव वाली बस में बैठ कर दोनो सहेलियाँ राहत महसूस कर रहीं थीं।
अनुराधा और नीलम ने बड़े ही अदब के साथ तरसेम का धन्यवाद किया और कहा- "हम आपका एहसान कैसे चुका पाएंगे। "
"इसमें एहसान वाली कोई बात नहीं है। मैं खुद गाँव से हूं। और मैने वही किया जो एक भाई अपनी बहनों के लिए कर सकता है। "
दोनों सहेलियों की आँखें छलक आई थी। उनको अपनी सोच पर घृणा आ रही थी। बस चल पड़ी थी । दोनों सहेलियाँ चुपछाप सोच में गुम थीं।
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बहादुर बेटा
भारतीय जांबाज सैनिक जम्मू कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में पाकिस्तानी घुसपैठियों के डटकर मुक़ाबला कर रहे थे। अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ सर पर कफन बांध भारतीय सैनिक युद्ध में कूद पड़े थे। समाचार पत्रों ,टी.वी. और रेडियो पर हरदिन समाचार प्रकाशित व प्रसारित होते-- "आज भारतीय सैनिकों ने फलां चोटी को पाकिस्तान के कब्जे से मुक्त कराये ...... आज हमारे इतने सैनिकों ने मातृभूमि की ख़ातिर हंसते-हंसते वीरगति प्राप्त किये...........
बंती देवी रात के सभी काम निपटा कर सोने लगी थी कि बाहर ड्योढ़ी पर किसी ने दस्तक दिए । बंती देवी उठ कर ड्योढ़ी तक गयी । दरवाजा खोलने से पहले एक बार उसने पूछ लेना उचित समझी ।
"कौन है ?"
"मैं हूँ माँ ! आपका बेटा थोड़ू राम !"
"हाँ !थोड़ू राम नाम का मेरा एक बेटा तो है, किंतु वह इस समय कारगिल में अपनी भारत माँ की रक्षा के लिए दुश्मनों से मुक़ाबला कर रहा है।''
"माँ ! मैं वही आपका बेटा हूँ । बड़ी मुश्किल से जान बचाकर भाग आया हूँ । अगर मैं भागकर नहीं आता तो मेरी लाश ही घर आती !"
"क्या कहा ? जान बचाकर भाग आया है तू ? दफ़ा हो जा यहाँ से । तू मेरा बेटा नहीं हो सकता ! मेरा खून इतनी कायर कैसे हो सकती है ? जो अपनी मातृभूमि को ख़तरे में छोड़ कर दूसरी मां के पल्लू में मुंह छिपाने चला आए।"
बंती देवी का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर थी। वह क्रोध से काँप रही थी।
"पर मां....।'' कहते कहते वह रुक गया।
"तेरे इसतरह से पीठ दिखाकर भाग आने से तो अच्छा था कि तू दुश्मन से मुक़ाबला करते हुए शहीद हो जाता और तेरी लाश ही घर आती तो मुझे स्वयं पर गर्व होता कि मैंने अपनी कोख से एक बहादुर बेटे को जन्म दी है। अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि मुझे जीवन भर अपना मुँह मत दिखाना। मेरे घर के दरवाज़े तेरे लिए हमेशा-हमेशा के लिए बंद हैं। मैं सोचूगी कि मेरा थोड़ू नाम का कोई बेटा था ही नहीं !"
इतना कहकर बंती देवी वापस अपनी खाट की और लौट आई और.थोड़ू राम के कदम वापस अपने मोर्चे की ओर लौट पड़े ।
नोटों की छांव
गेहूँ की कटाई के उपरांत चमन लाल के खेत खाली हुए, तो उसने जवान पेड़ों को कटवा दिया।
कुछ दिनों के बाद वह दूसरे गाँव के ठेकेदार को बेचे गए पेड़ों के रुपये लेकर अपने खेतों में से निकल रहा था। मई महीने की आग बरसाती दोपहर में लू के थपेड़ों ने उसका बुरा हाल कर दिया था। सिर पर सूर्य अंगारे उगल रहा था। जब वह पहले अपने खेतों में आते थे, तो खेतों में खड़े पेड़ शीतल हवा के झोंकों से उसका स्वागत करते थे । तभी उसने धूप से बचने का प्रयास करते हुए हाथ में पकड़े रुपयों की गड्डी वाला लिफाफा सिर के ऊपर रख दिया। परंतु यह क्या ? नोटों की छाँव सिर्फ़ सिर को भी धूप से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं थी।
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सच्चा प्यार
"यार मैं कोमल के बिना ज़िंदा नहीं रह सकता !" रमण ने बड़ी ही मासूमियत के साथ कहा।
"क्यूँ? " मैंने अनायास ही पूछ लिया।
" तुम नहीं जानते, मैं कोमल से कितना प्यार करता हूँ। सच्चा प्यार। बहुत ज़्यादा चाहता हूँ मैं उसे। अपनी जान से भी ज़्यादा। "
"अच्छा !"
"हाँ यार ! आज वह नाराज है मुझसे, तो मुझे चैन नहीं आ रहा। "
"क्यों क्या बात हो गई ऐसी ?"
"यार ! कल उसने मुझे अंजना के साथ काफ़ी हाउस में देख लिया था !"
"यार, मुझे एक बात समझ नहीं आती ,जब तुम्हारा अफेयर कोमल के साथ ठीक ठाक चल रहा है तो फिर तुम्हें इधर-उधर मुँह मारने की क्या आवश्यकता है ?"
" क्योंकि अगर ईश्वर न करे, कल को कोमल से ब्रेक अप हो जाता है तो कोई न कोई तो चाहिए टाइम पास के लिए।" रमण ने तपाक से कहा।
मैं अवाक सा उसका चेहरा तकता रह गया !
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अजनबी
अनुराधा और नीलम 12वीं की परीक्षा पास कर ली थी। आज वह दोनो जम्मू विश्वविद्यालय में पत्राचार-माध्यम से बी.ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने आई थी। उन दोनों को न तो विश्वविद्यालय के विभागों की जानकारी थी और न ही वहां कोई जान-पहचान का था। वह दोनों बहुत परेशान थीं। पास खड़ा तरसेम उनकी परेशानी भांप गया। क़रीब जा कर बोला ,"मेरा नाम तरसेम है। इसी विश्वविद्यालय के डोगरी विभाग में एम.फिल. कर रहा हूँ। आप कुछ परेशान लग रही हैं क्या मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूँ।"
एक अजनबी का इस प्रकार उनसे बोलना और फिर सहायता के लिए आग्रह करना अनुराधा और नीलम को अटपटा लगी, लेकिन कोई और रास्ता भी तो नहीं था ! उन्होंने झिझकते हुए कहा ," हम बी.ए. प्रथम वर्ष में पत्राचार-माध्यम में प्रवेश लेना चाहती हैं। हमें विश्वविद्यालय के बारे में कुछ भी पता नहीं है........"
तरसेम ने उनको सबसे पहले पत्राचार विभाग दिखाया। प्रॉस्पेक्टस ख़रीद दिए। प्रवेश के सभी नियम विस्तार से समझाए। फिर फ़ार्म भर कर ,फीस बग़ैर जमा करवा दी और इस प्रकार दौड़-धूप करके एक ही दिन में उनको प्रवेश दिलवा दिया। उसके बाद सारे विश्वविद्यालय में घूमाया और सभी विभागों की जानकारी दी। भरी दोपहर हो आयी थी, तरसेम उनको कैंटीन में ले गया और खाने का आर्डर दे दिया। दोनों सहेलियाँ जो पहले सामान्य हो चुकी थीं , अब घबराने लगीं थी। कहीं यह अजनबी हमें अपने किसी जाल में तो नहीं फंसा रहा है ! इसी उधेड़बुन में उन्होंने खाना भी खाया। तरसेम ने खाने का बिल चुकाया और उनको विदा करने बस स्टैंड तक उनके साथ गया। अपने गाँव वाली बस में बैठ कर दोनो सहेलियाँ राहत महसूस कर रहीं थीं।
अनुराधा और नीलम ने बड़े ही अदब के साथ तरसेम का धन्यवाद किया और कहा- "हम आपका एहसान कैसे चुका पाएंगे। "
"इसमें एहसान वाली कोई बात नहीं है। मैं खुद गाँव से हूं। और मैने वही किया जो एक भाई अपनी बहनों के लिए कर सकता है। "
दोनों सहेलियों की आँखें छलक आई थी। उनको अपनी सोच पर घृणा आ रही थी। बस चल पड़ी थी । दोनों सहेलियाँ चुपछाप सोच में गुम थीं।
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बहादुर बेटा
भारतीय जांबाज सैनिक जम्मू कश्मीर के कारगिल क्षेत्र में पाकिस्तानी घुसपैठियों के डटकर मुक़ाबला कर रहे थे। अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ सर पर कफन बांध भारतीय सैनिक युद्ध में कूद पड़े थे। समाचार पत्रों ,टी.वी. और रेडियो पर हरदिन समाचार प्रकाशित व प्रसारित होते-- "आज भारतीय सैनिकों ने फलां चोटी को पाकिस्तान के कब्जे से मुक्त कराये ...... आज हमारे इतने सैनिकों ने मातृभूमि की ख़ातिर हंसते-हंसते वीरगति प्राप्त किये...........
बंती देवी रात के सभी काम निपटा कर सोने लगी थी कि बाहर ड्योढ़ी पर किसी ने दस्तक दिए । बंती देवी उठ कर ड्योढ़ी तक गयी । दरवाजा खोलने से पहले एक बार उसने पूछ लेना उचित समझी ।
"कौन है ?"
"मैं हूँ माँ ! आपका बेटा थोड़ू राम !"
"हाँ !थोड़ू राम नाम का मेरा एक बेटा तो है, किंतु वह इस समय कारगिल में अपनी भारत माँ की रक्षा के लिए दुश्मनों से मुक़ाबला कर रहा है।''
"माँ ! मैं वही आपका बेटा हूँ । बड़ी मुश्किल से जान बचाकर भाग आया हूँ । अगर मैं भागकर नहीं आता तो मेरी लाश ही घर आती !"
"क्या कहा ? जान बचाकर भाग आया है तू ? दफ़ा हो जा यहाँ से । तू मेरा बेटा नहीं हो सकता ! मेरा खून इतनी कायर कैसे हो सकती है ? जो अपनी मातृभूमि को ख़तरे में छोड़ कर दूसरी मां के पल्लू में मुंह छिपाने चला आए।"
बंती देवी का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर थी। वह क्रोध से काँप रही थी।
"पर मां....।'' कहते कहते वह रुक गया।
"तेरे इसतरह से पीठ दिखाकर भाग आने से तो अच्छा था कि तू दुश्मन से मुक़ाबला करते हुए शहीद हो जाता और तेरी लाश ही घर आती तो मुझे स्वयं पर गर्व होता कि मैंने अपनी कोख से एक बहादुर बेटे को जन्म दी है। अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि मुझे जीवन भर अपना मुँह मत दिखाना। मेरे घर के दरवाज़े तेरे लिए हमेशा-हमेशा के लिए बंद हैं। मैं सोचूगी कि मेरा थोड़ू नाम का कोई बेटा था ही नहीं !"
इतना कहकर बंती देवी वापस अपनी खाट की और लौट आई और.थोड़ू राम के कदम वापस अपने मोर्चे की ओर लौट पड़े ।
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