आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है श्रीमान राहुल सिंह 'शेष' का लघु आलेख- 'माँ की आँख' । इस लघ्वालेख में 'माँ की आँख' को 'मैं' बोध से परिचित कराया गया है । श्रीमान आलेखक प्रस्तुतालेख में क्या कहना चाह रहे हैं, सुस्पष्ट नहीं हो पा रहा है । इसे मैं 'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' के सुविज्ञ पाठकों पर छोड़ता हूँ, जो स्वयं 'माँ की आँख' को पढ़कर शब्दार्थ और भावार्थ लिए सिंहावलोकन कर सकते हैं । आइये, आलेखक की मेहनत को साकार करने के सोद्देश्यत: इसे कृपया पढ़ ही डालिये:--
माँ की आँख !
जी हाँ ! मैं 'माँ की आँख' हूँ । मैं यानी माँ की आँख, जो आजकल फूहड़ कॉमेडी सीन्स अर्थात तथाकथित हास्य दृश्यों की हिस्सा बनकर रह गयी हूँ । एक अरसा हो गए, मैंने मजाकिया लहजे की भद्दी टिप्पणी के साथ गुजार दी है । किसी ने मुझे ध्यान से देखने का प्रयास नही किये,पर मैं तो सबको देखती हूँ-- संवेदना से, स्नेह से, शिष्टता से । क्योंकि मैं माँ की आँख हूँ । कुछ लोग तो गाली की जगह मुझे कोट करके संतुष्टि पा लेते हैं । खैर, आज मेरी उपस्थिति का एकमात्र कारण यह है कि कुछ लोग, जो गाहे-बगाहे मेरी 'खूबसूरत' नाम का इस्तेमाल यूँ ही कर जाते हैं ! क्या सच में आपने मुझे अंदर से और आदर से जानने की कोशिश किये हैं या देखे हैं। अगर नहीं तो अपनी व्यस्तता से निजात पाकर सहज भाव से देखिये तो ज़रा मुझे ! मुझमें (माँ की आँख) तब आपको वो सब आनंद मिल जायेंगे, जो आप हमेशा से तलाशते हैं ।
माँ की आँख संस्कारों की गंगोत्री है, स्नेह की प्रतिमूर्ति है, संवेदना की पराकाष्ठा है और सभी उलझनों की सरल, सुझावपूर्ण व सुलझते व्याख्या है । भूलिए नहीं कि सिर्फ 'माँ की आँख' ही मौन के पीछे का प्रेम को और हंसी के पीछे की उदासी व तकलीफों को पढ़ पाती हैं । जैसे- किसी पुस्तक को पढ़ने के बाद ही पाठ्यचर्या और परीक्षा के हिस्सेदार और हक़दार बने जा सकते हैं, वैसे ही मेरे बारे में या मुझ पर कुछ भी कहने से पहले मुझे पढ़िए और समझिए, क्योंकि मैं "माँ की आँख" हूँ ।
नमस्कार दोस्तों !
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