बचपन से ही हम सुनते आये हैं कि अगर गुरु और भगवान् एकसाथ हो तो सबसे पहले गुरु की पूजा व आदर किया जाना है, लेकिन आज के विद्यार्थी न गुरु की इज्जत करते हैं, न भगवान् की । आज के बच्चे एकलव्य भी बनने का प्रयास तक नहीं करते, परंतु अर्जुन पर दोष जरूर मढ़ते हैं । सरकार से लेकर पेरेंट्स तक ऐसी स्थिति के लिए दोष शिक्षक पर ही मढ़ते हैं। सरकारी स्कूलों में कई प्रकार के शिक्षक होते हैं । बिहार में एक सरकारी विद्यालय में जो नियमित शिक्षक हैं, उसे ₹90,000 मासिक वेतन मिलते हैं और उसी विद्यालय में नियमित शिक्षकों की भाँति एकसमान काम करने वाले नियोजित शिक्षक को ₹18,000 भी मासिक वेतन नहीं मिलती । सरकार ने शिक्षकों के साथ 5 गुने भेदभाव कर रखे हैं । ऐसे में पढ़ाने के ज़ज़्बे भी समाप्त हो जाते होंगे । स्कूलों में जो MDM चलता है, वो प्रधानाध्यापक के अधीन किया गया है, जो उसी चावल-दाल के फेर में 24 घंटे उलझे रहते हैं । यह प्रलोभित कार्य है, अधिकारी भी चावल बचाने के जुगत में प्रधानाध्यापक को परेशान करते हैं , तो कभी कंपरमाइज में आकर आपस में चावल का बँटवारा कर लेते हैं । तेल आदि खराबी होने का दंड भी प्रधानाध्यापक भुगतते हैं, वे तो वैज्ञानिक है नहीं, परंतु कुछ साल पहले बिहार के एक विद्यालय में MDM खाने से स्कूल में 24 बच्चों की मौत हो गयी थी , आज भी वो प्रधानाध्यापिका जेल में हैं । ऐसे हेडमास्टर के एक तरफ खाई है, तो दूसरे तरफ बाघ ! क्या करे वे, क्या न करे ? शिक्षकों के द्वारा ही सभी तरह के गैर-शैक्षणिक कार्य निबटाये जाते हैं । अगर शिक्षक नहीं हो तो किसी भी तरह के चुनाव या राहत कार्य नहीं हो पाएंगे ! जनगणना, पशुगणना, BLO, BPL इत्यादि कार्यों में अब भी जुड़े हैं । अभी डायस फॉर्म भरा जा रहा है, आधार कार्ड उनसे बनवाया जा रहा है, पेन कार्ड बनाना भी उनके ज़िम्मे है । जहाँ 30 छात्रों में 1 शिक्षक का प्रावधान है, वहाँ 1500 छात्रों में 50 शिक्षकों की जगह मात्र 10 शिक्षक हैं ! गुणवत्ता शिक्षकों में है, कोई राज्य सरकार इन शिक्षकों को जीने ठीक से नहीं दे रहे हैं । आप पेरेंट्स इन शिक्षकों के दर्द भी तो जानिये ! क्या आप घर में अपने बच्चों को गलतियों पर डाँट-डपट नहीं करते हैं, स्कूल में अगर यही अभिभावक-तुल्य शिक्षक छात्रों के साथ गलतियों पर डाँट-डपट करते हैं, तो इन शिक्षकों को सजा मिलती है । हिंदी फिल्म 'चॉक एंड डस्टर' भारतीय शिक्षा-व्यवस्था पर अच्छा-खासा चोट है । आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, शिक्षा-व्यवस्था की सच्चाई को पेश करती अंग्रेजी व्याख्याता डॉ. सुलक्षणा अहलावत की लेखनी से सृजित हिंदी आलेख, आइये पढ़ते हैं----
नमस्कार दोस्तों !!
मार्च-अप्रैल आते ही हम सभी प्राइवेट विद्यालयों की मनमानी का रोना रोते हैं। उनकी बढ़ी हुई फीस को लेकर अख़बारों में खबर निकलवाते हैं, अपने क्षेत्र के विधायकों, सांसदों एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री तक को ज्ञापन देते हैं। लेकिन एक सवाल मन में उठता है कि जब इतनी फीस देने में असमर्थ हैं, तो क्यों हम अपने बच्चों को प्राइवेट विद्यालयों में पढ़ाने को आतुर हैं और यदि सक्षम हैं तो फिर किस बात का रोना रोते हैं ? हर साल यही होता है कि प्राइवेट विद्यालय वाले फीस, फंड, कॉपी, किताबों और बच्चे की वर्दी के नाम पर खुली लूट मचाते हैं और इस लूट के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। यदि हम अपने बच्चों का दाखिला सरकारी विद्यालयों में करवा दें तो इसका फायदा सम्पूर्ण देश को होगा। अब हमें इस बात की पहल करनी ही होगी।
इस पहल से ये फायदे होंगे :--
1. प्राइवेट विद्यालयों की दुकानें बंद हो जाएंगी।
2. हमारा आर्थिक शोषण बंद होगा।
3. हमारे बच्चों को मुफ्त में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलेगी।
4. सरकार को अध्यापकों, संबंधित स्टाफ की भर्ती करनी होगी और बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा।
5. प्राइवेट विद्यालयों द्वारा अध्यापकों का किया जा रहा शोषण बंद होगा।
--किन्तु ये सब तभी होगा, जब हम अपने बच्चों का प्रवेश सरकारी विद्यालयों में करवाने के साथ-साथ सरकार पर दबाव बनाएं कि सरकार 'सरकारी विद्यालयों' का कायाकल्प करे, सरकारी विद्यालयों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया करवाई जाएं। आखिर यह सब करे कौन, बिल्ली के गले में घण्टी बाँधे कौन, हम तो साधारण परिवार से हैं, हमारी कौन सुनेगा-- यह विचारधारा छोड़कर हम सभी को एक होना होगा और एकजुट होकर यह लड़ाई लड़नी होगी। यदि सरकार दबाव नहीं मानती है तो चुनावों में उसका बहिष्कार करने के साथ माननीय न्यायालय की शरण लेकर हमें यह लड़ाई जीतनी होगी। यदि सरकारी अध्यापकों को अपनी नौकरी बचानी है तो इस लड़ाई में जनता का साथ देने के साथ-साथ पूरी ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। वक़्त रहते हमें अपनी जागरूकता का परिचय देना होगा, तभी बदलाव संभव है, वरना वो दिन दूर नहीं, जब सरकारी विद्यालयों का वजूद भी नहीं बचेगा और एक आम आदमी के लिए बच्चों को शिक्षित करना एक सपना बनकर रह जाएगा।
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क्या सरकारी विद्यालयों की दशा के लिए केवल और केवल शिक्षक जिम्मेदार हैं ?
हमें अपने अंदर झाँकना होगा, तब पता चलेगा इसके लिए सबसे ज्यादा हम दोषी हैं फिर सरकार और फिर शिक्षक दोषी हैं। इतनी हैरत में ना पड़ें कि हम दोषी हैं, वो कैसे ? उसका जवाब आपके पास है कि खुद के अंदर झाँक कर देखें और विचार करें, तो पाएंगे:--
1. सरकारी विद्यालयों की दशा सुधारने को हमने क्या कदम उठाये। कितनी बार हमने धरने दिए, प्रदर्शन किए या प्रदेश बंद किए हैं ?
2. एक साल में हमने कितनी बार विद्यालय में जाकर बच्चों की पढ़ाई के बारे अध्यापकों से पूछा ?
3. क्या एसएमसी और एसएमडीसी के सदस्य के तौर पर हमने अपने कर्तव्यों का पालन किया ?
4. अध्यापकों की भर्ती प्रक्रिया के दौरान हमने या हमारे जानकारों ने नौकरी पाने के लिए क्या सिफारिश / रिश्वत का सहारा नहीं लिया ? क्या इस बात की जानकारी होते हुए भी हमने विरोध किया !
5. क्या मिड डे मील, आरटीई, अध्यापकों से गैर-शैक्षणिक कार्य लिए जाने का विरोध किया।
--इन सवालों के जवाब अपने अंदर खोजिये पूरी ईमानदारी के साथ और फिर कुछ कहिये इस बारे में । सरकार तो चाहती ही नहीं है कि शिक्षा का स्तर सुधरे और हम शिक्षित हों। यह बातें ऐसे सिद्ध हो रही हैं :--
1. समय पर अध्यापकों की भर्ती नहीं करना और भर्तियों में खामियां छोड़ना, ताकि भर्तियां माननीय न्यायालय में ही अटकी रहें।
2. विद्यालयों को मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखे रहना।
3. मिड डे मील, आरटीई जैसी नीतियाँ लागू करके शिक्षा के स्तर को गिराना।
4. वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसी नीतियां बनाना, जिनका धरातल पर लागू होना असंभव सा हो या जिनका धरातल पर कोई अर्थ ही नहीं हो !
5. शिक्षकों को अधिकतर समय गैर-शैक्षणिक कार्यों में उलझाये रखना।
6. विद्यालयों या अध्यापकों की जायज समस्याओं का समय पर निपटान नहीं करना।
7. धारा- 134 'ए' के तहत प्राइवेट विद्यालयों को प्रोत्साहन देना कि जिन बच्चों को प्रवेश दोगे, उनकी फीस सरकार अदा करेगी।
--इन बातों से ही साफ तौर पर जाहिर है कि सरकार की मंशा ठीक नहीं है ।
अब अध्यापकों की कमी की बात करते हैं :--
1. प्राइवेट विद्यालयों में थोड़े से वेतन में गजब का पढ़ाने वाले जब सरकारी अध्यापक लग जाते हैं तो बच्चों को पढ़ाना छोड़ देते हैं, क्योंकि उनकी यहाँ जवाबदेही नाम-मात्र की होती है। (सभी अध्यापक तो नहीं, कुछ ही अध्यापक पढ़ाना छोड़ते हैं, कुछ तो पहले से भी ज्यादा मेहनत करते हैं । )
2. कुछ अध्यापक कक्षाओं में जाकर खाली बैठकर आ जाते हैं, कुछ समझाने की बजाए रटवाने में विश्वास करते हैं।
3. कुछ अध्यापक जो सिफारिश या रिश्वत के बूते ज्वाइन किए हैं, उन्हें ज्ञान नहीं होता, जिसकी वजह से वो बच्चों को भी कुछ ज्ञान नहीं दे पाते !
4. आठवीं कक्षा तक बच्चे अनुत्तीर्ण करने नहीं, इस वजह से भी कुछ अध्यापकों ने पढ़ाने छोड़ दिए हैं ।
-- यहाँ कुछ अध्यापकों के कारण ही सारे शिक्षक बदनाम हैं। अब सभी बातों को ध्यान में रखते हुए विश्लेषण कीजिये कि वास्तव में दोषी कौन है ?
नमस्कार दोस्तों !!
मार्च-अप्रैल आते ही हम सभी प्राइवेट विद्यालयों की मनमानी का रोना रोते हैं। उनकी बढ़ी हुई फीस को लेकर अख़बारों में खबर निकलवाते हैं, अपने क्षेत्र के विधायकों, सांसदों एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री तक को ज्ञापन देते हैं। लेकिन एक सवाल मन में उठता है कि जब इतनी फीस देने में असमर्थ हैं, तो क्यों हम अपने बच्चों को प्राइवेट विद्यालयों में पढ़ाने को आतुर हैं और यदि सक्षम हैं तो फिर किस बात का रोना रोते हैं ? हर साल यही होता है कि प्राइवेट विद्यालय वाले फीस, फंड, कॉपी, किताबों और बच्चे की वर्दी के नाम पर खुली लूट मचाते हैं और इस लूट के लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। यदि हम अपने बच्चों का दाखिला सरकारी विद्यालयों में करवा दें तो इसका फायदा सम्पूर्ण देश को होगा। अब हमें इस बात की पहल करनी ही होगी।
इस पहल से ये फायदे होंगे :--
1. प्राइवेट विद्यालयों की दुकानें बंद हो जाएंगी।
2. हमारा आर्थिक शोषण बंद होगा।
3. हमारे बच्चों को मुफ्त में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलेगी।
4. सरकार को अध्यापकों, संबंधित स्टाफ की भर्ती करनी होगी और बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा।
5. प्राइवेट विद्यालयों द्वारा अध्यापकों का किया जा रहा शोषण बंद होगा।
--किन्तु ये सब तभी होगा, जब हम अपने बच्चों का प्रवेश सरकारी विद्यालयों में करवाने के साथ-साथ सरकार पर दबाव बनाएं कि सरकार 'सरकारी विद्यालयों' का कायाकल्प करे, सरकारी विद्यालयों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया करवाई जाएं। आखिर यह सब करे कौन, बिल्ली के गले में घण्टी बाँधे कौन, हम तो साधारण परिवार से हैं, हमारी कौन सुनेगा-- यह विचारधारा छोड़कर हम सभी को एक होना होगा और एकजुट होकर यह लड़ाई लड़नी होगी। यदि सरकार दबाव नहीं मानती है तो चुनावों में उसका बहिष्कार करने के साथ माननीय न्यायालय की शरण लेकर हमें यह लड़ाई जीतनी होगी। यदि सरकारी अध्यापकों को अपनी नौकरी बचानी है तो इस लड़ाई में जनता का साथ देने के साथ-साथ पूरी ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। वक़्त रहते हमें अपनी जागरूकता का परिचय देना होगा, तभी बदलाव संभव है, वरना वो दिन दूर नहीं, जब सरकारी विद्यालयों का वजूद भी नहीं बचेगा और एक आम आदमी के लिए बच्चों को शिक्षित करना एक सपना बनकर रह जाएगा।
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क्या सरकारी विद्यालयों की दशा के लिए केवल और केवल शिक्षक जिम्मेदार हैं ?
हमें अपने अंदर झाँकना होगा, तब पता चलेगा इसके लिए सबसे ज्यादा हम दोषी हैं फिर सरकार और फिर शिक्षक दोषी हैं। इतनी हैरत में ना पड़ें कि हम दोषी हैं, वो कैसे ? उसका जवाब आपके पास है कि खुद के अंदर झाँक कर देखें और विचार करें, तो पाएंगे:--
1. सरकारी विद्यालयों की दशा सुधारने को हमने क्या कदम उठाये। कितनी बार हमने धरने दिए, प्रदर्शन किए या प्रदेश बंद किए हैं ?
2. एक साल में हमने कितनी बार विद्यालय में जाकर बच्चों की पढ़ाई के बारे अध्यापकों से पूछा ?
3. क्या एसएमसी और एसएमडीसी के सदस्य के तौर पर हमने अपने कर्तव्यों का पालन किया ?
4. अध्यापकों की भर्ती प्रक्रिया के दौरान हमने या हमारे जानकारों ने नौकरी पाने के लिए क्या सिफारिश / रिश्वत का सहारा नहीं लिया ? क्या इस बात की जानकारी होते हुए भी हमने विरोध किया !
5. क्या मिड डे मील, आरटीई, अध्यापकों से गैर-शैक्षणिक कार्य लिए जाने का विरोध किया।
--इन सवालों के जवाब अपने अंदर खोजिये पूरी ईमानदारी के साथ और फिर कुछ कहिये इस बारे में । सरकार तो चाहती ही नहीं है कि शिक्षा का स्तर सुधरे और हम शिक्षित हों। यह बातें ऐसे सिद्ध हो रही हैं :--
1. समय पर अध्यापकों की भर्ती नहीं करना और भर्तियों में खामियां छोड़ना, ताकि भर्तियां माननीय न्यायालय में ही अटकी रहें।
2. विद्यालयों को मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखे रहना।
3. मिड डे मील, आरटीई जैसी नीतियाँ लागू करके शिक्षा के स्तर को गिराना।
4. वातानुकूलित कमरों में बैठकर ऐसी नीतियां बनाना, जिनका धरातल पर लागू होना असंभव सा हो या जिनका धरातल पर कोई अर्थ ही नहीं हो !
5. शिक्षकों को अधिकतर समय गैर-शैक्षणिक कार्यों में उलझाये रखना।
6. विद्यालयों या अध्यापकों की जायज समस्याओं का समय पर निपटान नहीं करना।
7. धारा- 134 'ए' के तहत प्राइवेट विद्यालयों को प्रोत्साहन देना कि जिन बच्चों को प्रवेश दोगे, उनकी फीस सरकार अदा करेगी।
--इन बातों से ही साफ तौर पर जाहिर है कि सरकार की मंशा ठीक नहीं है ।
अब अध्यापकों की कमी की बात करते हैं :--
1. प्राइवेट विद्यालयों में थोड़े से वेतन में गजब का पढ़ाने वाले जब सरकारी अध्यापक लग जाते हैं तो बच्चों को पढ़ाना छोड़ देते हैं, क्योंकि उनकी यहाँ जवाबदेही नाम-मात्र की होती है। (सभी अध्यापक तो नहीं, कुछ ही अध्यापक पढ़ाना छोड़ते हैं, कुछ तो पहले से भी ज्यादा मेहनत करते हैं । )
2. कुछ अध्यापक कक्षाओं में जाकर खाली बैठकर आ जाते हैं, कुछ समझाने की बजाए रटवाने में विश्वास करते हैं।
3. कुछ अध्यापक जो सिफारिश या रिश्वत के बूते ज्वाइन किए हैं, उन्हें ज्ञान नहीं होता, जिसकी वजह से वो बच्चों को भी कुछ ज्ञान नहीं दे पाते !
4. आठवीं कक्षा तक बच्चे अनुत्तीर्ण करने नहीं, इस वजह से भी कुछ अध्यापकों ने पढ़ाने छोड़ दिए हैं ।
-- यहाँ कुछ अध्यापकों के कारण ही सारे शिक्षक बदनाम हैं। अब सभी बातों को ध्यान में रखते हुए विश्लेषण कीजिये कि वास्तव में दोषी कौन है ?
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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ReplyDeleteShi baat h g
ReplyDeleteसटीक आकलन
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