युग बदल रहे है,नक्षत्र-तारे-ग्रह इत्यादि की दशा और दिशा बदल रही हैं, लेकिन इन सबों के बावजूद हमारी कलयुग की आवाज 'मीडिया' तथा 'सोशल मीडिया' भी बदल रही हैं । आज जब किसी व्यक्ति का नाम किसी बड़े काम करने के कारण फेमस होते हैं, तो मीडिया उस न्यूज़ को टके के भाव से फेंक देती है, लेकिन किसी मासूम बच्ची का रेप हो , तो पूरा विवरण पेश कर देते है ! आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट लेकर आई है श्रीमान राघव जी का प्रस्तुत आलेख । आइये, पढ़ते हैं इसे, खुद इस लाघवालेख का लुत्फ़ उठाते हैं----------
हम भाषायी और वैचारिक स्तर पर बड़े खोखले और मोथरे समाज का निर्माण कर रहे हैं ।
सिर्फ लिखने और बोलने से देश नहीं बदलेगा -- यह बिल्कुल ठीक बात है, सहमत हैं और देश बदलने के लिए हम और वो तमाम लोग जो लिखते हैं, उन्हें मैं इस 'हम' में शामिल कर लेता हूँ।
हम इसलिए लिखते हैं कि हम अभी मरे नहीं है, सब देखना चुप रहना और न बोलना भी एक तरह की मौत है । यहाँ एक आदमी रोज़ मर रहा है, क्योंकि हम लाशों से भरे एक देश का निर्माण कर रहे है ।
ये मौत भाषायी स्तर पर है,वैचारिक स्तर पर है,ये सांस्कृतिक स्तर पर है । हम भीड़ की शक्ल में तब्दील हो रहे हैं । हम बाजार में तब्दील हो रहे हैं ।
हर दिन हमें एक नए उत्पाद के ग्राहक के तौर पर ढाला जाता है और अख़बारों से लेकर रेडियो, फिर रेडियो से टीवी, इनसे सोशल मीडिया तक एक ही चीख़ रोज़ सुनाई देती हैं---
खरीदो, खरीदो, बस खरीदो !
जो पहले बिकता है, वो बाद में कहता है-- खरीदो...!
हमारी भाषा पर एक नए तरह का लेपन हुआ है, जिसे सिविलाइज्ड सोसायटी की भाषा बोला जाता है । मजेदार बात ये है कि इस सिविलाइज्ड सोसायटी में हर चीज़ का एक फ्रेम- सेट किया होता है और उस फ्रेम-सेट में आपको एक टाइट टक्सीडो में बाँध के रखा गया है ।
आपको बताया गया है, क़दमों में दुनियाँ होने का मतलब है रजनीगन्धा...!!
इसे गुटके के तौर पर खाना आपका शौक है, तो बेशक मैं उसका सम्मान करता हूँ, क्योंकि व्यक्तिगत तौर पर आप गलत भी नहीं है, लेकिन इसे खाने के बाद जो कदमों में दुनियाँ का कॉन्सेप्ट तैयार हुआ है, वो वैचारिक जंजीर है ।
हम ख़बर हो गए हैं और ख़बर होकर अपना ही क़ब्र खोद रहे हैं..!
हर राह चलता आदमी एक एंकर है, एक एडिटर है, एक रिपोर्टर है, एक विज्ञापन है, एक कॉमर्शियल सिनेमा का हीरो है, वो जब किसी से बात करता है और किसी से मिलता है तो वो जाने-अनजाने में टीवी , सिनेमा आदि की जिन्दगी को खुद पर लादे होते हैं ।
वो वैसा दिखना चाहता है, जैसे एंकर दिखते हैं, जैसे कॉमर्शियल नायक दिखते है । वो वैसे बोलना चाहता है, जैसे एंकर बोलते हैं, वो वैसे ही बहस करता है, वो वैसे ही झगड़ता है, वो अख़बारों की तरह भाषायी बहस करता है, वो बात-बात में अपनी पहनी हुई घड़ी को आपके सामने लाता है, विज्ञापन करता है वो तथा अपनी शर्ट की बटन टाइट करता है, फिर विज्ञापन करता है ।
वो ये भूल जाता है कि एक एंकर ये काम महज़ एकाध घंटा कर के लाखों कमाता है, ये उसका पेशा है ।
लेकिन वो जो एक सामजिक आदमी भी है, वो इसे अपनी जीवन शैली बना लेता है ...
अब मैं राह चलते ऐसी तमाम ख़बरों, विज्ञापनों और अखबार के पन्नो को समझने टीवी के एंकरों,संपादकों आदि से मिलता हूँ ।
वो आदमी कहीं भी कुछ भी हो सकता है, वो आपकी पीछे की सीट पर बैठा हुआ स्टूडेंट भी हो सकता है, जो एक पैर बहार निकाल कर बैठा होगा क्योंकि उसने कल ही नाइकी के जूते खरीदे है । इस तरीके की दौड़ में वो सब कुछ होता है, लेकिन वो वो नहीं हो पाता, जो वो है... वो एक लाश में सिविलाइज्ड सोसाइटी का रिचार्ज कराकर उसे रन कराता रहता है, तब तक, जब तक उसका सिस्टम हैग न हो ।
ये वो बड़ी बीमारी है, जो किसी पोलिटिकल पार्टी से भी ज़्यादा खरतनाक है, बड़ी है लेकिन इस पर बहस कहाँ हो और करेगा कौन ये तय करना भी एक खतरा है ..!!
खैर ! मैं उस दौड़ से बाहर हूँ, बस इसलिए मन की भड़ास लिखता हूँ। मैं, मैं हूँ इसलिए लिखता हूं, बावजूद मैं लेफ्ट राइट रवीश फ्रॉम ndtv भी नहीं हूँ !
मैं रजत शर्मा नहीं हूं, लेकिन मैं उस सेल्फ़ी टेकिंग और थोपिंग कल्चर से बाहर कर दिया गया हूँ, इसलिए लिखता हूँ... क्योंकि मैं आज की आवाज हूँ , राघव हूँ मैं !!
हम भाषायी और वैचारिक स्तर पर बड़े खोखले और मोथरे समाज का निर्माण कर रहे हैं ।
सिर्फ लिखने और बोलने से देश नहीं बदलेगा -- यह बिल्कुल ठीक बात है, सहमत हैं और देश बदलने के लिए हम और वो तमाम लोग जो लिखते हैं, उन्हें मैं इस 'हम' में शामिल कर लेता हूँ।
हम इसलिए लिखते हैं कि हम अभी मरे नहीं है, सब देखना चुप रहना और न बोलना भी एक तरह की मौत है । यहाँ एक आदमी रोज़ मर रहा है, क्योंकि हम लाशों से भरे एक देश का निर्माण कर रहे है ।
ये मौत भाषायी स्तर पर है,वैचारिक स्तर पर है,ये सांस्कृतिक स्तर पर है । हम भीड़ की शक्ल में तब्दील हो रहे हैं । हम बाजार में तब्दील हो रहे हैं ।
हर दिन हमें एक नए उत्पाद के ग्राहक के तौर पर ढाला जाता है और अख़बारों से लेकर रेडियो, फिर रेडियो से टीवी, इनसे सोशल मीडिया तक एक ही चीख़ रोज़ सुनाई देती हैं---
खरीदो, खरीदो, बस खरीदो !
जो पहले बिकता है, वो बाद में कहता है-- खरीदो...!
हमारी भाषा पर एक नए तरह का लेपन हुआ है, जिसे सिविलाइज्ड सोसायटी की भाषा बोला जाता है । मजेदार बात ये है कि इस सिविलाइज्ड सोसायटी में हर चीज़ का एक फ्रेम- सेट किया होता है और उस फ्रेम-सेट में आपको एक टाइट टक्सीडो में बाँध के रखा गया है ।
आपको बताया गया है, क़दमों में दुनियाँ होने का मतलब है रजनीगन्धा...!!
इसे गुटके के तौर पर खाना आपका शौक है, तो बेशक मैं उसका सम्मान करता हूँ, क्योंकि व्यक्तिगत तौर पर आप गलत भी नहीं है, लेकिन इसे खाने के बाद जो कदमों में दुनियाँ का कॉन्सेप्ट तैयार हुआ है, वो वैचारिक जंजीर है ।
हम ख़बर हो गए हैं और ख़बर होकर अपना ही क़ब्र खोद रहे हैं..!
हर राह चलता आदमी एक एंकर है, एक एडिटर है, एक रिपोर्टर है, एक विज्ञापन है, एक कॉमर्शियल सिनेमा का हीरो है, वो जब किसी से बात करता है और किसी से मिलता है तो वो जाने-अनजाने में टीवी , सिनेमा आदि की जिन्दगी को खुद पर लादे होते हैं ।
वो वैसा दिखना चाहता है, जैसे एंकर दिखते हैं, जैसे कॉमर्शियल नायक दिखते है । वो वैसे बोलना चाहता है, जैसे एंकर बोलते हैं, वो वैसे ही बहस करता है, वो वैसे ही झगड़ता है, वो अख़बारों की तरह भाषायी बहस करता है, वो बात-बात में अपनी पहनी हुई घड़ी को आपके सामने लाता है, विज्ञापन करता है वो तथा अपनी शर्ट की बटन टाइट करता है, फिर विज्ञापन करता है ।
वो ये भूल जाता है कि एक एंकर ये काम महज़ एकाध घंटा कर के लाखों कमाता है, ये उसका पेशा है ।
लेकिन वो जो एक सामजिक आदमी भी है, वो इसे अपनी जीवन शैली बना लेता है ...
अब मैं राह चलते ऐसी तमाम ख़बरों, विज्ञापनों और अखबार के पन्नो को समझने टीवी के एंकरों,संपादकों आदि से मिलता हूँ ।
वो आदमी कहीं भी कुछ भी हो सकता है, वो आपकी पीछे की सीट पर बैठा हुआ स्टूडेंट भी हो सकता है, जो एक पैर बहार निकाल कर बैठा होगा क्योंकि उसने कल ही नाइकी के जूते खरीदे है । इस तरीके की दौड़ में वो सब कुछ होता है, लेकिन वो वो नहीं हो पाता, जो वो है... वो एक लाश में सिविलाइज्ड सोसाइटी का रिचार्ज कराकर उसे रन कराता रहता है, तब तक, जब तक उसका सिस्टम हैग न हो ।
ये वो बड़ी बीमारी है, जो किसी पोलिटिकल पार्टी से भी ज़्यादा खरतनाक है, बड़ी है लेकिन इस पर बहस कहाँ हो और करेगा कौन ये तय करना भी एक खतरा है ..!!
खैर ! मैं उस दौड़ से बाहर हूँ, बस इसलिए मन की भड़ास लिखता हूँ। मैं, मैं हूँ इसलिए लिखता हूं, बावजूद मैं लेफ्ट राइट रवीश फ्रॉम ndtv भी नहीं हूँ !
मैं रजत शर्मा नहीं हूं, लेकिन मैं उस सेल्फ़ी टेकिंग और थोपिंग कल्चर से बाहर कर दिया गया हूँ, इसलिए लिखता हूँ... क्योंकि मैं आज की आवाज हूँ , राघव हूँ मैं !!
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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