"अबला जीवन हाय ! तेरी यही कहानी ,
आँचल में दूध और आँखों में भर पानी ।"
सत्यश:, अबला यानी युवती या विवाहिता की यह जो ज़िंदगीनामा है, इनकी स्थितियाँ बिल्कुल ही 'पतंग' की भाँति है, जिनकी डोर किसी और के हाथों हैं । आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में कवयित्री ज्योति राघव की कविता ऐसी-जैसी बिन्दुओं पर ही केंद्रित है । आइये, पढ़ते हैं और लुत्फ़ उठाते हैं---
पतंग हूं मैं
पतंग हूं मैं..
उड़ रही हूं हवा के संग
आसमान छूने की आतुरता लिए,
लेकिन फिर भी हूं निराश
क्योंकि पतंग हूं मैं !
सैर भले कर रही हवा के साथ,
लेकिन डोर है मेरी किसी और के हाथ
मर्जी से देता है वो,
भरने मुझे उड़ान,
जाते ही मेरे इधर-उधर
खींच लेता है वो कमान
क्योंकि पतंग हूं मैं !
हताश होती हूं और भी,
जब देखती हूं लोगों को
करते हुए भेदभाव
मांझे से और मुझसे,
देखकर मेरा रूप-रंग
और देखते हैं वही लोग
मजबूत हो मांझे से डोर
बांध सके जो कसकर
कि न छूट सके पतंग !
उड़ान भरने के साथ ही
घबराहट होती है तेज
क्योंकि नजरे टिक जाती है
मुझ पर अनेक--
काटने को मुझे आकुल हो,
मचा रहे हैं शोरगुल सबके सब,
और कहते सुन रही हूं,
मत उड़ने दो अब इसे !
आखिरकर काट ही दिया गया मुझे,
तालियों के साथ शोर,
फिर से सुनाई पड़ी--
ये देखो, कटी पतंग,
फड़फड़ाकर धड़ाम से
गिर गई हूं फर्श पर
किसी और के पाले में
अब वो आतुर है उड़ाने को मुझे,
लेकर मेरी कमान ।
कभी इधर, कभी उधर
कब तक उड़ूँगी ऐसे बंधकर
अब मैं भी--
होना चाहती हूं स्वतंत्र
भरना चाहती हूं उड़ान
बिना किसी कमान के,
बिना किसी धागे के,
पर नाम 'पतंग' के सिवाय
... और कुछ नहीं !
नमस्कार दोस्तों !
आँचल में दूध और आँखों में भर पानी ।"
सत्यश:, अबला यानी युवती या विवाहिता की यह जो ज़िंदगीनामा है, इनकी स्थितियाँ बिल्कुल ही 'पतंग' की भाँति है, जिनकी डोर किसी और के हाथों हैं । आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में कवयित्री ज्योति राघव की कविता ऐसी-जैसी बिन्दुओं पर ही केंद्रित है । आइये, पढ़ते हैं और लुत्फ़ उठाते हैं---
पतंग हूं मैं
पतंग हूं मैं..
उड़ रही हूं हवा के संग
आसमान छूने की आतुरता लिए,
लेकिन फिर भी हूं निराश
क्योंकि पतंग हूं मैं !
सैर भले कर रही हवा के साथ,
लेकिन डोर है मेरी किसी और के हाथ
मर्जी से देता है वो,
भरने मुझे उड़ान,
जाते ही मेरे इधर-उधर
खींच लेता है वो कमान
क्योंकि पतंग हूं मैं !
हताश होती हूं और भी,
जब देखती हूं लोगों को
करते हुए भेदभाव
मांझे से और मुझसे,
देखकर मेरा रूप-रंग
और देखते हैं वही लोग
मजबूत हो मांझे से डोर
बांध सके जो कसकर
कि न छूट सके पतंग !
उड़ान भरने के साथ ही
घबराहट होती है तेज
क्योंकि नजरे टिक जाती है
मुझ पर अनेक--
काटने को मुझे आकुल हो,
मचा रहे हैं शोरगुल सबके सब,
और कहते सुन रही हूं,
मत उड़ने दो अब इसे !
आखिरकर काट ही दिया गया मुझे,
तालियों के साथ शोर,
फिर से सुनाई पड़ी--
ये देखो, कटी पतंग,
फड़फड़ाकर धड़ाम से
गिर गई हूं फर्श पर
किसी और के पाले में
अब वो आतुर है उड़ाने को मुझे,
लेकर मेरी कमान ।
कभी इधर, कभी उधर
कब तक उड़ूँगी ऐसे बंधकर
अब मैं भी--
होना चाहती हूं स्वतंत्र
भरना चाहती हूं उड़ान
बिना किसी कमान के,
बिना किसी धागे के,
पर नाम 'पतंग' के सिवाय
... और कुछ नहीं !
नमस्कार दोस्तों !
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