भारत के महान राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम साहब ज़िन्दगी में अप्राप्य स्थितियों पर अक्सर कहा करते थे-- "सपने वे नहीं हैं, जो आप सोने की अवधि (Sleeping Period) में देखते हैं, अपितु सपना तो वह है, जो आप जागते हुए देखते हैं और जो आपको सोने तक नहीं देती ।" कुछ बनने के लिए सनक, पागलपन, ज़ज़्बा, जुनून इत्यादि तो होने ही चाहिए, साथ ही परिवार और सामाजिक जोश के मद्देनज़र 'अनिर्वचनीय सुख' भी मिलने चाहिए ..... ऐसी ध्येयों से मिश्रीघोल कविता-द्वय लेकर आई है, 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' के प्रस्तुत अंक में । आइये, बिहार के कटिहार जनपद की विदुषी कवयित्री आरती स्मित की अग्रांकित कविता-द्वय को पढ़ते हैं--
क़ैद में हैं सपने
उसके सपने क़ैद हैं
जूठे बर्तनों, गंदे कमरों,
मुँह चिढ़ाते / बास करते कपड़ों में ।
वह--
छिपी नज़र से देखती है,
मालिक के बच्चों को--
वे भी तो हैं उस-जैसे ही
फिर यह अंतर क्यों ?
कि
उसके हाथ में
जूठे बर्तन और झाड़ू
उनके पास किताबें ।
वह चीख पड़ती है
सपनों की चुभन से,
सपने ; जो बिखर गए
टूटे शीशे की तरह ।
वह चीख-चीखकर
पूछना चाहती है--
माँ-बाप से
क्यों ?
धरती पर लाकर छोड़ दिया
हर रोज मरने के लिए
‘सपनों’ की तरह ।
😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴😴
अनिवर्चनीय सुख
सड़क किनारे
अधनंगा
घुटने के बल
घिसटता, तो
कभी बैठता,
गाड़ियों की आवाजाही से मिली
मुफ्त की धूल
और धुएँ से सना
वह नन्हा शिशु
मुस्कुराया ।
मज़दूरन माँ
उसपर नज़र टिकाए
बोझे ढोती रहीं
वह गर्द की गुबार-सा
गर्द में लोटता
गर्द उलीचता
फिर मुस्कुराया !
दृष्टि मिली--
उसकी कोमल स्मिति
मेरे होठों पर फैल गई
और मेरे हाथ का बिस्कुट
उसके पोपले मुँह में ।
वह खिलखिलाया
और खिल आए--
सपाट मसूड़ों में दो नन्हें दाँत
अंदर ब्रह्मांड समाया था ;
वह तल्लीन हुआ
बिस्कुट के
अनुपम आनंद में
और मैं--
दर्शन उलीचती रही
‘अनिवर्चनीय सुख’
इतना सहज ! कैसे ?
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क़ैद में हैं सपने
उसके सपने क़ैद हैं
जूठे बर्तनों, गंदे कमरों,
मुँह चिढ़ाते / बास करते कपड़ों में ।
वह--
छिपी नज़र से देखती है,
मालिक के बच्चों को--
वे भी तो हैं उस-जैसे ही
फिर यह अंतर क्यों ?
कि
उसके हाथ में
जूठे बर्तन और झाड़ू
उनके पास किताबें ।
वह चीख पड़ती है
सपनों की चुभन से,
सपने ; जो बिखर गए
टूटे शीशे की तरह ।
वह चीख-चीखकर
पूछना चाहती है--
माँ-बाप से
क्यों ?
धरती पर लाकर छोड़ दिया
हर रोज मरने के लिए
‘सपनों’ की तरह ।
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अनिवर्चनीय सुख
सड़क किनारे
अधनंगा
घुटने के बल
घिसटता, तो
कभी बैठता,
गाड़ियों की आवाजाही से मिली
मुफ्त की धूल
और धुएँ से सना
वह नन्हा शिशु
मुस्कुराया ।
मज़दूरन माँ
उसपर नज़र टिकाए
बोझे ढोती रहीं
वह गर्द की गुबार-सा
गर्द में लोटता
गर्द उलीचता
फिर मुस्कुराया !
दृष्टि मिली--
उसकी कोमल स्मिति
मेरे होठों पर फैल गई
और मेरे हाथ का बिस्कुट
उसके पोपले मुँह में ।
वह खिलखिलाया
और खिल आए--
सपाट मसूड़ों में दो नन्हें दाँत
अंदर ब्रह्मांड समाया था ;
वह तल्लीन हुआ
बिस्कुट के
अनुपम आनंद में
और मैं--
दर्शन उलीचती रही
‘अनिवर्चनीय सुख’
इतना सहज ! कैसे ?
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