हम पुरुष स्त्रियों को समझने में ही सारी जिंदगी गुजार देते हैं, अगर माँ को समझ पाए, तो बहन को समझ नहीं पाएंगे । बहन समझ भी जाय, तो पत्नी को समझा नहीं पाओगे । फिर पत्नी भी समझ ले अगर, तो प्रेमिका व प्रेयसी कतई नहीं समझेगी और प्रेयसी मान भी जाय, वो भी हसीना मान जाएगी - की भाँति ही, तब पुनः माँ की क्रांति आरम्भ हो जाती है ! स्त्री में 'योनि' का होना, उन्हें 'विजयी भव:' तक पहुँचाती है, तो इस वस्तु के होने भर से उनकी स्त्रीत्व पराजित हो जाती हैं, यह स्त्रीत्व की हार है, जो 'रेड लाइट एरिया' के प्रसंगश: है । आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट के प्रस्तुत अंक पढ़ते हैं, कवि अरुण शर्मा की एक महत्वपूर्ण कविता " रेड लाइट एरिया : ज़िन्दगी है या सजा " । कविता के भाव से निःसृत होते हैं------ " क्या हर पुरुष अकेले में दिमागी नग्न होते हैं ?" आइये, पढ़ते हैं--------
रेड लाइट एरिया : जिंदगी है या सजा
स्त्री ! अपने स्त्रीत्व को
भंग करवाती है,
क्रूरता के नग्न नृत्य का
दर्शन और प्रदर्शन--
सार्वजनिक रूप धारण कर लेता है,
तो कभी अपने कलुषरहित शरीर को
खूंखार भेड़ियों को काटने, चीरने व
फाड़ने के लिए सौंप देती हैं
कभी अपने बच्चों के खातिर
तो कभी रोटी की खातिर !
वहीं दूसरी ओर
पुरुष की संवेदनाएँ
शून्य की राह पकड़ लेती हैं,
संवेगों और आवेगों के माध्यम से,
लालसा की दृष्टिकोण से,
हवस से स्त्री की
मर्यादाओं को क्षीण करने को
हर पल आतुर रहता है
साथ ही साथ वैमनस्य के संबंधों को
जमींदोज कर देता है
क्यों न करे ?
आखिर वह पुरुष जो है !
जमघट लगता है स्त्रियों की
जब सूरज
दिन की कछारों में जा रहा होता है
तभी सुंदरता की मापनी
सुनिश्चित करती है
स्त्रियों के कौमार्य का मूल्य,
स्त्री हर रोज़ बिकती है,
हर घंटे बिकती है,
हर मिनट बिकती है,
यहाँ तक कि
स्त्री हर क्षण बिकती है,
बिक जाने में ही उसने अपना
उद्देश्य बना ली होती हैं
और तथाकथित उद्देश्य
आवश्यकता नहीं,
उनकी मजबूरियाँ होती हैं,
रोटी के लिए जो, स्त्री को
रेड लाइट एरिया में
दाखिल करा देती हैं ।
रेड लाइट एरिया : जिंदगी है या सजा
स्त्री ! अपने स्त्रीत्व को
भंग करवाती है,
क्रूरता के नग्न नृत्य का
दर्शन और प्रदर्शन--
सार्वजनिक रूप धारण कर लेता है,
तो कभी अपने कलुषरहित शरीर को
खूंखार भेड़ियों को काटने, चीरने व
फाड़ने के लिए सौंप देती हैं
कभी अपने बच्चों के खातिर
तो कभी रोटी की खातिर !
वहीं दूसरी ओर
पुरुष की संवेदनाएँ
शून्य की राह पकड़ लेती हैं,
संवेगों और आवेगों के माध्यम से,
लालसा की दृष्टिकोण से,
हवस से स्त्री की
मर्यादाओं को क्षीण करने को
हर पल आतुर रहता है
साथ ही साथ वैमनस्य के संबंधों को
जमींदोज कर देता है
क्यों न करे ?
आखिर वह पुरुष जो है !
जमघट लगता है स्त्रियों की
जब सूरज
दिन की कछारों में जा रहा होता है
तभी सुंदरता की मापनी
सुनिश्चित करती है
स्त्रियों के कौमार्य का मूल्य,
स्त्री हर रोज़ बिकती है,
हर घंटे बिकती है,
हर मिनट बिकती है,
यहाँ तक कि
स्त्री हर क्षण बिकती है,
बिक जाने में ही उसने अपना
उद्देश्य बना ली होती हैं
और तथाकथित उद्देश्य
आवश्यकता नहीं,
उनकी मजबूरियाँ होती हैं,
रोटी के लिए जो, स्त्री को
रेड लाइट एरिया में
दाखिल करा देती हैं ।
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