'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' का प्रयास रहा है, हर माह कम से कम एक ऐसे व्यक्ति का 'इनबॉक्स इंटरव्यू' के मार्फ़त उनके कृत्यों और विचारों से परिचय दिलाया जाय, जो अपने रचनाकर्मक्षेत्र के हस्ती न हो तो कोई बात नहीं, किन्तु एक हस्ताक्षर जरूर हों ! इस कड़ी में इसबार हम परिचय कराने जा रहे हैं, जो सनातन मारवाड़ी परिवार के अंत:संस्कृति में जन्म लेकर भी 'नाटक' कार्य को कर्मक्षेत्र के रूप में चुनी । एक तो महिला, दूज़े-- थियेटर और खुली 'नुक्कड़' में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन ! ....ता'पर आर्थिक लिहाज़ से प्राप्ति 'निल बटा सन्नाटा' यानी भविष्य में अनिश्चितता सुनिश्चित ! श्रीमती उमा झुनझुनवाला के लिए तो और भी क्रांतिकारी बहस लेकर आई उनकी ज़िंदगी ! जब वे प्रेम, परंतु अंतरधार्मिक विवाह 'अज़हर' से रचाई । जब वहीं तब, प्रख्यात रंगकर्मी स्व. सफ़दर हाशमी और उनका अंतरधार्मिक प्रेम-विवाह हिन्दू सहकर्मी 'मलयश्री' उर्फ शबनम (!) से होने के प्रसंगश: बड़ा हंगामा भी हुआ था ! उमा जी का जन्म 20 अगस्त 1968 को कलकत्ता (कोलकाता) में हुई थी । बंगाली संस्कृति में रच-बस जाने के बावजूद हिंदी में एम.ए. तथा शिक्षिका बनने हेतु बी.एड. भी की, किन्तु नियति में होनी तो कुछ और ही मंजूर थी ! चूँकि 1984 से ही नाट्यक्षेत्र हेतु सक्रिय हो चली थी । अभिनय विधा में पारंगत तो थी ही, बहुत खूब निर्देशन भी की । अब तक 45 से अधिक नाटकों में अभिनय सहित 14 एकांकियों, 13 पूर्णांग नाटकों तथा 26 कहानियों लिए अनूदित और मूल पटकथाओं का निर्देशन भी की, तो कई सम्मान प्राप्त की । वहीं उमा जी की अनेक पुस्तकें भी प्रकाशित हैं और जिनका अनुवाद भी हुआ है । आज वे 'Little Thespian' नामक संस्था के सन्नद्ध अभिनय, निर्देशन और अध्यक्षा के बतौर जुड़ी हैं । आइये, प्रख्यात रंगकर्मी व नाट्यनिर्देशिका श्रीमती उमा झुनझुनवाला के 14 गझिन जवाबों को तरलता से अपने अंदर उतारते हुए पढ़ ही डालते हैं, इसबार के कॉलमी-साक्षात्कार......
प्र.(1.)आपके कार्यों को इंटरनेट के माध्यम से जाना । इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के आइडिया-संबंधी 'ड्राफ्ट' को सुस्पष्ट कीजिये ?
उ:- बचपन में माँ कहानियाँ सुनाया करती थी । इन कहानियों को सुन-सुन कर पढ़ने की इच्छा प्रबलतम हो गई , फिर जब कविताओं और कहानियों को पढ़ने और समझने की समझ आई, तो मन में उठने वाले भावों को लिखना शुरू किया । मेरी पहली पाठक (पाठिका) माँ रही । इन रचनाओं से माँ बेहद खुश होती थी । कहने का आशय यह है कि लिखने की प्रेरणा मुझे माँ से मिली । कक्षा-अष्टम में मैंने जो कविता लिखी थी, इससे मेरी रचनात्मकता निःसृत हो उठती है, द्रष्टव्य:--
"मन मेरे !
उड़ता चल,
बादलों के संगीत के साथ,
यादों की रिमझिम बूंदों के साथ,
अश्रुओं की धारा के साथ ,
बिजली की रेखाओं के साथ,
ग़म की आग के साथ,
मिलन की आस के साथ ,
मन मेरे !
उड़ता चल,
दिगंत की ओर ।"
-- कविता और कहानी ही नहीं, नाटक और रंगमंच विधा ने तो मुझे और भी प्रभावित किया । माध्यमिक के बाद पहली बार नाटक में श्री गोपाल कलवानी के निर्देशन में अभिनय भी की । फिर कॉलेज में कई नाटको को खेला । आहिस्ता-आहिस्ता.... नाटक का प्रभाव मुझपर इस कदर पड़ा कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में अज़हर के साथ मिलकर अपनी नाट्य संस्था ही बना ली । वर्ष 1990 से 1994 तक कई नाटक खेलें, तो 1994 से 'लिटिल थेस्पियन' की स्थापना के बाद रंगमंच और मैं एक दूज़े के पर्याय हो गए ।
प्र.(2.)आप किसतरह के पृष्ठभूमि से आये हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?
उ:- मैं मारवाड़ी परिवार से हूँ । निस्संदेह, मेरी परिवार मेरे लिए हमेशा ही सहायक रहे । मायके में बेटियों के लिए प्यार ही प्यार है और परिणाम आप लोगो के सामने है । अज़हर के साथ मेरा विवाह पारिवारिक उत्सवों के बीच हुआ । इसी तरह ससुराल में भी मुझे भरपूर सहयोग मिलता है, मेरी हर काम के लिए, जोकि प्रमाणस्वरूप सबके समक्ष है ।
प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किस तरह से इंस्पायर अथवा लाभान्वित हो सकते हैं ?
उ:- नाटक का मुख्य उद्देश्य तो ऐहिक जीवन की नाना वेदनाओं से परिश्रांत जनताओं का मनोरंजन करना है, साथ ही कारक लिए यह देव, दानव एवं मानव समाज के लिए आमोद -प्रमोद का सरल साधन भी है। यह जातिभेद, वर्गभेद, वयोभेद आदि से परे न सिर्फ़ जनता का मनोरंजन करता है, बल्कि उनकी भावनाओं का परिमार्जन भी करता है । इसके प्रवर्तक स्वयं प्रजापति हैं और इनसे ही वेद की ऋचाओं लिए ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्वांगिरस (अथर्ववेद) से रस का परिग्रह कर सार्ववर्णिक पंचम वेद का आविर्भाव हुआ तथा यही कारण है, रंगमंच को पंचम वेद कहा जाता है अर्थात जिस विधा में जीवन समाहित हो, निश्चितश: उससे आमजन प्रेरणा प्राप्त करेंगे और लाभान्वित भी होंगे !
प्र.(4.)आपके कार्य में आये जिन रूकावटों,बाधाओं या परेशानियों से आप या संगठन रू-ब-रू हुए, उनमें से दो उद्धरण दें ?
उ:- संघर्ष से जिजीविषा बढ़ती है । साँसे भी अगर सीधी-सरल रेखा में आ जाए, तो प्राणी को मृत घोषित कर दिया जाता है ज्ञात हो, रूकावटों, बाधाओं या परेशानियों ने मेरे काम को हमेशा ही ज्यादा से ज्यादा मजबूती प्रदान की है । अब जब आप दो उद्धरण देने कह रहे हैं, तो दो घटनाएँ साझा करती हूँ---
एक तो सन '94 की बात है । हम सड़क किनारे बने मंच पर शो कर रहे थे कि अचानक मंच टूट गया और हम तीन कलाकार अन्दर धंस गए । एक बार तो अफरा-तफ़री मची, लेकिन हमने बड़े धैर्य और संयम से काम लिए और फिर 5-10 मिनट बाद ही शो पुनः शुरू कर दिया । उस समय दो हज़ार से ज्यादा दर्शक थे । हमारा 'शो' शानदार रहा था ।
दूसरी घटना; सितम्बर 2016 की है । हमारी नाट्य संस्था के लिए जाने माने नाट्य-निर्देशक मुश्ताक काक के निर्देशन में ‘बालकन की औरतें’ नाटक का रिहर्सल चल रही थी । इस दरम्यान, शो शुरू होने के दो दिन पहले मेरी बाएँ पैर की दो हड्डियां टूट गई । इस नाटक में भागदौड़ अत्यधिक है । समस्या यह आ पड़ी थी कि क्या हो, क्योंकि दो दिन में उस चरित्र को किसी के लिए भी तैयार कर पाना बहुत मुश्किल था , लेकिन 'जहाँ चाह वहाँ राह' वाली कहावत को मेरे डॉक्टर साहब ने साबित कर दिए, शो से ठीक एक दिन पहले उन्होंने मेरे टूटे स्थल में प्लास्टर इस ढंग से बाँधे कि सिर्फ़ 20 सितम्बर वाला शो ही नहीं, बल्कि 22 सितम्बर को पटना में भी मैने शो कर डाली और फिर उसी दु:अवस्था मैंने हैदराबाद और दिल्ली में भी शो की । तात्पर्य यह है कि अगर आपमें उर्जा और अपने काम के प्रति समर्पण व जुनून है, तब कोई भी बाधा आपके काम को कतई रोक नहीं पाएगी !
प्र.(5.)अपने कार्य क्षेत्र के लिए क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के तो शिकार न हुए ? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाये ?
उ:- किसी भी नाटककार या 'रोल प्ले' करनेवालों से बात कीजियेगा तो आपको एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा, जो यह ना कहा हो कि उन्हें नाटक करने के लिए या अपनी नाट्य संस्था चलाने के लिए आर्थिक दिक्कतों से दो-चार नहीं होना पड़ा हो ! आज तक नाटक रोज़ी-रोटी का साधन नहीं बन पाया है, तो मुश्किलें कैसे ख़त्म होंगी ?
प्र.(6.) आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट थे या उनसबों ने राहें अलग पकड़ ली !
उ:- यही क्षेत्र क्यों चुना, नहीं पता...! लेकिन नृत्य और गायन हमेशा बहुत प्रभावित करते रहे हैं, मगर घर में इन सबकी अनुमति कहाँ थी ? फिर माध्यमिक के बाद स्कूल के रजत समारोह में जब पहली बार नाटक में भाग लेने का अवसर मिली, तो बस वहीं से इस नई दुनिया के लिए मेरी सफ़र शुरू हो गई । परिवार में साहित्य की चर्चा ही नहीं है । बनियों का परिवार है, इसलिए सब वाणिज्य से जुड़े लोग हैं । अपने खानदान में मैं ही भिन्न प्रकृति की निकली ।
प्र.(7.) आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ? यह सभी सम्बन्ध से हैं या इतर हैं !
उ:- सबसे पहले सहयोगी माता-पिता और भाई-बहन रहें । अजहर से तो नाटक की वजह से ही मुलाकात हुई, इसलिए हम दोनों ही एक-दूसरे के सहयोगी हुए । फिर मेरे ससुरालवालों का सहयोग मिला, अबतो सबसे ज़्यादा मेरे बच्चों का सहयोग मिलता है मुझे । बच्चों का इसलिए कि कई बार उन्हें दिया जाने वाला वक़्त तो मैंने नाटक को दिया और उन दोनों ने मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की । मेरे 'नाट्यमण्डली' के कलाकारों का पूरा सहयोग तो मिलता ही है मुझे ।
प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं अथवा संस्कृति पर चोट पहुँचाने के कोई वजह ?
उ:- 'नाट्यशास्त्र' हमारी भारतीय संस्कृति का ही परिचायक व पहचानबिम्ब है । नाटक या रंगमंच कोई व्यापार नहीं है कि इससे संस्कृति को नुकसान पहुँचे। ये साहित्य का वृहत्तररुप है , जो जनमानस की रूचि को परिमार्जित करता है । पूरे विश्व के रंगमंच को देखिये आप... ! इन्होंने तो सामाजिक आन्दोलनों में बड़ी भूमिका निभाई है ।
हाँ, आज हिंदी रंगमंच के लिए दर्शक एक चुनौती बना हुआ है । आज इंटरनेट, मल्टीप्लेक्स और बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल की चकाचौंध ने साहित्य के महत्व को 'ओल्ड फैशन' बना दिया है । बाजारवाद इतना हावी हो गया है कि सहित्य और कला संकुचित दायरे में सिमट कर रह गई है । कला के मनोरंजन उद्योग में ऐसा बदलाव आया है, जो कल्पना से परे था । घरों से साहित्य की चर्चा बिल्कुल ख़त्म हो गई है, आज तमाम टीवी सीरियलों में दिखाए जाने वाले बंगले-महल, करोड़ों-अरबों की बातें और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भारी-भरकम कपड़ों से लदे-फदे किरदार मध्यमवर्गीय परिवारों की पहली पसंद हो गई है । अब या तो आप नाटकों में उसी बाजारवाद की चकाचौंध को दर्शाइए या फिर उन्हें निःशुल्क टिकटें भेजिए और बारम्बार संदेशा भेजिए अपने मोबाइल से तथा व्यक्तिगत तौर पर अनुरोध भी कीजिए । इसलिए तो कहती हूँ, रंगमंच ने नहीं, बल्कि बाज़ारवाद ने हमारी कला और संस्कृति को नुकसान पहुँचाया है ।
प्र.(9.)भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !
उ:- अगर आपने हमारी प्रस्तुतियां देखी होती, तो आपको ये प्रश्न पूछने की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती !
साहित्यिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े नाटकों की लगातार प्रस्तुतियाँ कर हिंदी दर्शकों को नया आस्वाद देने में सफलता हासिल की है मैंने, यथा:- बलकान की औरतें, प्रेम अप्रेम, रेंगती परछाइयाँ (मेरे द्वारा लिखित), कबीरा खड़ा बाज़ार में, अलका, गैंडा, पतझड़, लोहार, बड़े भाईसाहब, प्रश्नचिह्न, यादों के बुझे हुए सवेरे, हयवदन, शुतुरमुर्ग, कांच के खिलौने इत्यादि 30 से अधिक नाटकों और कथा-कोलाज के अंतर्गत ३२ कहानियों की प्रस्तुति ने दर्शकों को यह कहने को मजबूर किया कि 'इन प्रस्तुतियों की बात कुछ अलग है' ।
प्र.(10.)इस कार्य के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे से इतर किसी प्रकार के सहयोग मिले या नहीं ? अगर हाँ, तो संक्षिप्त में बताइये ।
उ:- ये 'मुरब्बा' क्या है....? रंगमंच व्यापार नहीं है कि आप मुरब्बे अर्थात मुनाफे की बात करें । रंगमंच का अर्थ सिर्फ़ नाटक को मंच पर प्रस्तुत करना नहीं होता, अपितु इन मंचित अथवा अमन्चित नाटकों का लगातार अध्ययन और दर्शन भी ज़रूरी होता है । जो कि यहीं आकर सबसे बड़ा 'पार्थक्य' हो जाता है । नाट्य-संस्कृति एक सामूहिक आन्दोलन है, जिसे सबसे पहले तो समझने की ज़रूरत है । चूँकि रंगमंच सम्पूर्णत: समर्पण पर आधारित है, जहाँ लोग बिना किसी कमाई की आशा लिए आते हैं । समान मानसिकता वालों के सहयोग से ही रंगमंचीय गतिविधियाँ चलती रहती हैं ।
प्र.(11.)आपके कार्य क्षेत्र के कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी धोखा,केस या मुकद्दमे की परेशानियां झेलने पड़े हों ?
उ:- जी नहीं, मुझे ऐसी किसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा कभी...!
प्र.(12.)कोई किताब या पम्फलेट जो इस सम्बन्ध में प्रकाशित हों, तो बताएँगे ?
उ:- प्रश्न स्पष्ट नहीं है..."इस सम्बन्ध में” से तात्पर्य अगर मुक़दमे से है तो कोई किताब या पम्फलेट प्रकाशित नहीं है मेरी ।
*संपादक का हस्तक्षेप:- 'इस सम्बंध से मतलब आपके नाट्य-कार्यक्षेत्र से लगायी जाय !'*
प्रकाशित पुस्तकें -
मौलिक नाटक -
रेंगती परछाईयाँ (2014) प्रकाशन - ऑथर्स प्रेस,
उर्दू से हिंदी अनुवाद -
यादों के बुझे हुए सवेरे (इस्माइल चुनारा) प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन,
आबनूसी ख्याल (एन रशीद खान) प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन,
लैला मजनू (इस्माइल चुनारा) प्रकाशन दृश्यांतर, दिल्ली ।
अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद -
एक टूटी हुई कुर्सी एवं अन्य नाटक -(इस्माइल चुनारा) प्रकाशन-ऑथर्स प्रेस (चार नाटकों का संग्रह- दोपहर,पत्थर,एक टूटी हुई कुर्सी, यतीमखाना) ।
बंगला से उर्दू अनुवाद -
मुक्तधारा (टैगोर), (साहित्य अकादेमी से प्रकाशित / सयुंक्त अनुवादक - अज़हर आलम ) ।
अप्रकाशित नाटक -
पूर्णांग नाटक -
हज़ारों ख़्वाहिशें (2015) ।
अंग्रेजी से हिंदी अनुदित नाटक -
धोखा (राहुल वर्मा)
बलकान की औरतें (जुलेस तास्का) ।
बंगला से हिंदी अनुदित नाटक -
गोत्रहीन (रुद्रप्रसाद सेनगुप्ता),
अलका (मनोज मित्र) ।
एकांकी -
राजकुमारी और मेंढक, बुरे बुरे ख़्वाब, शैतान का खेल, हमारे हिस्से की धुप कहाँ है,
आग़ अब भी जल रही है, जाने कहाँ मंजिल मिल जाए, शपथ ।
अप्रकाशित रचनाएं (प्रकाशाधिन)-
मैं और मेरा मन (कविताएँ)
एक औरत की डायरी से ,
रानी लक्ष्मी बाई संग्रहालय, झाँसी के लिए स्क्रिप्टिंग, लाइट, संगीत की परिकल्पना बंगला डॉक्यूमेंट्री फिल्म का हिंदी में अनुवाद,पत्र-पत्रिकाओं में रंगमंच पर आलेख, कविताएं और कहानी प्रकाशित ।
निर्देशन एवं अभिनय :-
★ बलकान की औरतें, 2016 (अभिनय)
★ एक माँ धरती सी (कहानी), 2016 (निर्देशन)
★ रश्मिरथी माँ (कहानी), 2016 (निर्देशन, अभिनय)
★ वे लडकियाँ (कहानी), 2016 (निर्देशन, अभिनय)
★ निर्वासनों को निर्वासन (कहानी), 2016 (निर्देशन, अभिनय)
★ धोखा, 2016 (अभिनय)
★ रेंगती परछाइयाँ, 2015 (अभिनय)
★ क़िस्सा ख्वानी, 2014 (निर्देशन, अभिनय)
★ अलका, 2013 (निर्देशन, अभिनय)
★ लाइसेंस (कहानी), 2012 (निर्देशन)
★ बदला (कहानी), 2012 (निर्देशन, अभिनय)
★ मवाली (कहानी), 2012 (निर्देशन)
★ गैंडा, 2011 (अभिनय)
★ सुइयोंवाली बीबी (कहानी), 2010 (निर्देशन, अभिनय)
★ एक वृश्चिक की डायरी (कहानी), 2010 (निर्देशन, अभिनय)
★ बजिया तुम क्यों रोती हो (कहानी), 2010 (निर्देशन, अभिनय)
★ ओलुकुन, 2010 (निर्देशन)
★ बड़े भाईसाहब (कहानी), 2009 (निर्देशन),
★ पतझड़ 2009, (अभिनय)
★ इश्क़ पर ज़ोर नहीं (कहानी), 2008 (निर्देशन, अभिनय)
★ दोपहर, 2008 (निर्देशन, अभिनय)
★ आख़िरी रात (कहानी), 2008 (निर्देशन, अभिनय)
★ दुराशा (कहानी), 2008 (निर्देशन, अभिनय)
★ राजकुमारी और मेढक, 2008 (निर्देशन)
★ एक सपने की मौत (कहानी), 2007 (निर्देशन)
★ रिहाई (कहानी), 2007 (निर्देशन)
★ फाइल (कहानी), 2007 (निर्देशन, अभिनय)
★ पॉलिथीन की दीवार (कहानी), 2007 (निर्देशन, अभिनय)
★ ठंडा गोश्त, 2007 (अभिनय)
★ औलाद, 2007 (अभिनय)
★ प्रश्न-चिह्न, 2007 (अभिनय)
★ तारतुफ़, 2006 (निर्देशन, अभिनय)
★ पहले आप, 2006(निर्देशन)
★ यादों के बुझे हुए सवेरे, 2005 (निर्देशन, अभिनय)
★ शुतुरमुर्ग, 2004 (अभिनय)
★ शैतान का खेल, 2003 (निर्देशन)
★ हमारे हिस्से की धूप कहाँ है, 2003 (निर्देशन)
★ कांच के खिलौने, 2002 (अभिनय)
★ नमक की गुड़िया, 2001 (अभिनय)
★ अदृश्य अभिशाप, 2001 (निर्देशन)
★ स्वप्न दुःस्वप्न, 2001 (निर्देशन)
★ लोहार, 1999 (अभिनय)
★ जोकर, 1997 (अभिनय)
★ जब आधार नहीं रहते हैं, 1998 (निर्देशन)
★ दर्द का पोट्रेट, 1997 (निर्देशन)
★ सुलगते चिनार, 1996 (अभिनय)
★ सीमारेखा, 1985 (निर्देशन, अभिनय)
★ महाकाल, 1995 (अभिनय)
★ सत्गति, 1994 (निर्देशन, अभिनय)
★ ब्लैक संडे, 1994 (निर्देशन, अभिनय)
★ आग अब भी जल रही है, 1990 (निर्देशन)
★ अपहरण कौमी एकता (भाईचारे), 1989 (अभिनय)
★ चन्द्रगुप्त, 1988 (निर्देशन)
★ कोणार्क, 1987 (निर्देशन)
★ अधिकार का रक्षक, 1986 (निर्देशन, अभिनय)
★ गुस्ताखी माफ़, 1984 (अभिनय)
प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उ:- अवार्ड्स ...
1.) “Qaumi Ekta Awards 2016” for Art & Culture from All India Qaumi Ekta Manch.
2.) Felicitated by Bhartiya Sanskriti Sansad, Kolkata in 2015 for relentless and outstanding achievement in the field of theatre.
3.) “Shridevi Maheshwari Award” from West Bengal Provincial Marwari Federation in 2014 for the outstanding work in the field of Theatre.
4.) Felicitated by Aakrit, a foundation for Literary & amp; Cultural Advancement at their 1st Rajasthani Natya Mahotsav 2012 for outstanding contribution to theatre.
5.) Felicitated by Marudhara (a trust dedicated to Rajasthani society, its folk art and its culture) for outstanding achievements in the field of Theatre in 2011.
6.) Felicitated by Drama and Music Committee, Muslim Institute for contribution to Urdu/Hindi theatre in 2011.
7.) Mahila Samman Award for the outstanding work in the field of Theatre from Pradeshik Marwari Federation in 2006.
8.) Mahila Samman Award for the outstanding work in the field of Theatre from Akhil Bharatiya Marwari Sammelan in 1997.
9.) Best Actress Award (four times) in State Youth Festival organized by Ministry of Sports & amp; youth Affairs, Govt. of West Bengal.
10.) Awarded the Junior Fellowship from Ministry of Culture, Govt. of India for Story Theatre...Etc.
प्र.(14.)आपके कार्य मूलतः कहाँ से संचालित हो रहे हैं तथा इसके विस्तार हेतु आप समाज और राष्ट्र को क्या सन्देश देना चाहेंगी ?
उ:- मेरी कार्यक्षेत्र कोलकाता है । वर्तमान समय में हम समाज में आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच के संघर्ष को नए रूप में देख रहें हैं । फलस्वरूप नाटकों के प्रति रूचि उत्पन्न करने के लिए विभिन्न स्तरों पर दर्शकों के लिए सेमिनारों, संगोष्ठियों और वर्कशॉप के आयोजन की आवश्यकता है और ये ज़िम्मेदारी सभी सांस्कृतिक संस्थाओं की भी है और उन्हें यह जिम्मेवारी लेने भी चाहिए, ताकि सिर्फ़ पुरुषों के ही नहीं, बल्कि स्त्रियों की भागीदारी भी रंगमंच में सशक्त रूप में अधिष्ठापित हो पाये !
श्रीमती उमा झुनझुनवाला |
प्र.(1.)आपके कार्यों को इंटरनेट के माध्यम से जाना । इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के आइडिया-संबंधी 'ड्राफ्ट' को सुस्पष्ट कीजिये ?
उ:- बचपन में माँ कहानियाँ सुनाया करती थी । इन कहानियों को सुन-सुन कर पढ़ने की इच्छा प्रबलतम हो गई , फिर जब कविताओं और कहानियों को पढ़ने और समझने की समझ आई, तो मन में उठने वाले भावों को लिखना शुरू किया । मेरी पहली पाठक (पाठिका) माँ रही । इन रचनाओं से माँ बेहद खुश होती थी । कहने का आशय यह है कि लिखने की प्रेरणा मुझे माँ से मिली । कक्षा-अष्टम में मैंने जो कविता लिखी थी, इससे मेरी रचनात्मकता निःसृत हो उठती है, द्रष्टव्य:--
"मन मेरे !
उड़ता चल,
बादलों के संगीत के साथ,
यादों की रिमझिम बूंदों के साथ,
अश्रुओं की धारा के साथ ,
बिजली की रेखाओं के साथ,
ग़म की आग के साथ,
मिलन की आस के साथ ,
मन मेरे !
उड़ता चल,
दिगंत की ओर ।"
-- कविता और कहानी ही नहीं, नाटक और रंगमंच विधा ने तो मुझे और भी प्रभावित किया । माध्यमिक के बाद पहली बार नाटक में श्री गोपाल कलवानी के निर्देशन में अभिनय भी की । फिर कॉलेज में कई नाटको को खेला । आहिस्ता-आहिस्ता.... नाटक का प्रभाव मुझपर इस कदर पड़ा कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में अज़हर के साथ मिलकर अपनी नाट्य संस्था ही बना ली । वर्ष 1990 से 1994 तक कई नाटक खेलें, तो 1994 से 'लिटिल थेस्पियन' की स्थापना के बाद रंगमंच और मैं एक दूज़े के पर्याय हो गए ।
प्र.(2.)आप किसतरह के पृष्ठभूमि से आये हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?
उ:- मैं मारवाड़ी परिवार से हूँ । निस्संदेह, मेरी परिवार मेरे लिए हमेशा ही सहायक रहे । मायके में बेटियों के लिए प्यार ही प्यार है और परिणाम आप लोगो के सामने है । अज़हर के साथ मेरा विवाह पारिवारिक उत्सवों के बीच हुआ । इसी तरह ससुराल में भी मुझे भरपूर सहयोग मिलता है, मेरी हर काम के लिए, जोकि प्रमाणस्वरूप सबके समक्ष है ।
प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किस तरह से इंस्पायर अथवा लाभान्वित हो सकते हैं ?
उ:- नाटक का मुख्य उद्देश्य तो ऐहिक जीवन की नाना वेदनाओं से परिश्रांत जनताओं का मनोरंजन करना है, साथ ही कारक लिए यह देव, दानव एवं मानव समाज के लिए आमोद -प्रमोद का सरल साधन भी है। यह जातिभेद, वर्गभेद, वयोभेद आदि से परे न सिर्फ़ जनता का मनोरंजन करता है, बल्कि उनकी भावनाओं का परिमार्जन भी करता है । इसके प्रवर्तक स्वयं प्रजापति हैं और इनसे ही वेद की ऋचाओं लिए ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्वांगिरस (अथर्ववेद) से रस का परिग्रह कर सार्ववर्णिक पंचम वेद का आविर्भाव हुआ तथा यही कारण है, रंगमंच को पंचम वेद कहा जाता है अर्थात जिस विधा में जीवन समाहित हो, निश्चितश: उससे आमजन प्रेरणा प्राप्त करेंगे और लाभान्वित भी होंगे !
प्र.(4.)आपके कार्य में आये जिन रूकावटों,बाधाओं या परेशानियों से आप या संगठन रू-ब-रू हुए, उनमें से दो उद्धरण दें ?
उ:- संघर्ष से जिजीविषा बढ़ती है । साँसे भी अगर सीधी-सरल रेखा में आ जाए, तो प्राणी को मृत घोषित कर दिया जाता है ज्ञात हो, रूकावटों, बाधाओं या परेशानियों ने मेरे काम को हमेशा ही ज्यादा से ज्यादा मजबूती प्रदान की है । अब जब आप दो उद्धरण देने कह रहे हैं, तो दो घटनाएँ साझा करती हूँ---
एक तो सन '94 की बात है । हम सड़क किनारे बने मंच पर शो कर रहे थे कि अचानक मंच टूट गया और हम तीन कलाकार अन्दर धंस गए । एक बार तो अफरा-तफ़री मची, लेकिन हमने बड़े धैर्य और संयम से काम लिए और फिर 5-10 मिनट बाद ही शो पुनः शुरू कर दिया । उस समय दो हज़ार से ज्यादा दर्शक थे । हमारा 'शो' शानदार रहा था ।
दूसरी घटना; सितम्बर 2016 की है । हमारी नाट्य संस्था के लिए जाने माने नाट्य-निर्देशक मुश्ताक काक के निर्देशन में ‘बालकन की औरतें’ नाटक का रिहर्सल चल रही थी । इस दरम्यान, शो शुरू होने के दो दिन पहले मेरी बाएँ पैर की दो हड्डियां टूट गई । इस नाटक में भागदौड़ अत्यधिक है । समस्या यह आ पड़ी थी कि क्या हो, क्योंकि दो दिन में उस चरित्र को किसी के लिए भी तैयार कर पाना बहुत मुश्किल था , लेकिन 'जहाँ चाह वहाँ राह' वाली कहावत को मेरे डॉक्टर साहब ने साबित कर दिए, शो से ठीक एक दिन पहले उन्होंने मेरे टूटे स्थल में प्लास्टर इस ढंग से बाँधे कि सिर्फ़ 20 सितम्बर वाला शो ही नहीं, बल्कि 22 सितम्बर को पटना में भी मैने शो कर डाली और फिर उसी दु:अवस्था मैंने हैदराबाद और दिल्ली में भी शो की । तात्पर्य यह है कि अगर आपमें उर्जा और अपने काम के प्रति समर्पण व जुनून है, तब कोई भी बाधा आपके काम को कतई रोक नहीं पाएगी !
प्र.(5.)अपने कार्य क्षेत्र के लिए क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के तो शिकार न हुए ? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाये ?
उ:- किसी भी नाटककार या 'रोल प्ले' करनेवालों से बात कीजियेगा तो आपको एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा, जो यह ना कहा हो कि उन्हें नाटक करने के लिए या अपनी नाट्य संस्था चलाने के लिए आर्थिक दिक्कतों से दो-चार नहीं होना पड़ा हो ! आज तक नाटक रोज़ी-रोटी का साधन नहीं बन पाया है, तो मुश्किलें कैसे ख़त्म होंगी ?
प्र.(6.) आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट थे या उनसबों ने राहें अलग पकड़ ली !
उ:- यही क्षेत्र क्यों चुना, नहीं पता...! लेकिन नृत्य और गायन हमेशा बहुत प्रभावित करते रहे हैं, मगर घर में इन सबकी अनुमति कहाँ थी ? फिर माध्यमिक के बाद स्कूल के रजत समारोह में जब पहली बार नाटक में भाग लेने का अवसर मिली, तो बस वहीं से इस नई दुनिया के लिए मेरी सफ़र शुरू हो गई । परिवार में साहित्य की चर्चा ही नहीं है । बनियों का परिवार है, इसलिए सब वाणिज्य से जुड़े लोग हैं । अपने खानदान में मैं ही भिन्न प्रकृति की निकली ।
प्र.(7.) आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ? यह सभी सम्बन्ध से हैं या इतर हैं !
उ:- सबसे पहले सहयोगी माता-पिता और भाई-बहन रहें । अजहर से तो नाटक की वजह से ही मुलाकात हुई, इसलिए हम दोनों ही एक-दूसरे के सहयोगी हुए । फिर मेरे ससुरालवालों का सहयोग मिला, अबतो सबसे ज़्यादा मेरे बच्चों का सहयोग मिलता है मुझे । बच्चों का इसलिए कि कई बार उन्हें दिया जाने वाला वक़्त तो मैंने नाटक को दिया और उन दोनों ने मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की । मेरे 'नाट्यमण्डली' के कलाकारों का पूरा सहयोग तो मिलता ही है मुझे ।
प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं अथवा संस्कृति पर चोट पहुँचाने के कोई वजह ?
उ:- 'नाट्यशास्त्र' हमारी भारतीय संस्कृति का ही परिचायक व पहचानबिम्ब है । नाटक या रंगमंच कोई व्यापार नहीं है कि इससे संस्कृति को नुकसान पहुँचे। ये साहित्य का वृहत्तररुप है , जो जनमानस की रूचि को परिमार्जित करता है । पूरे विश्व के रंगमंच को देखिये आप... ! इन्होंने तो सामाजिक आन्दोलनों में बड़ी भूमिका निभाई है ।
हाँ, आज हिंदी रंगमंच के लिए दर्शक एक चुनौती बना हुआ है । आज इंटरनेट, मल्टीप्लेक्स और बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल की चकाचौंध ने साहित्य के महत्व को 'ओल्ड फैशन' बना दिया है । बाजारवाद इतना हावी हो गया है कि सहित्य और कला संकुचित दायरे में सिमट कर रह गई है । कला के मनोरंजन उद्योग में ऐसा बदलाव आया है, जो कल्पना से परे था । घरों से साहित्य की चर्चा बिल्कुल ख़त्म हो गई है, आज तमाम टीवी सीरियलों में दिखाए जाने वाले बंगले-महल, करोड़ों-अरबों की बातें और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भारी-भरकम कपड़ों से लदे-फदे किरदार मध्यमवर्गीय परिवारों की पहली पसंद हो गई है । अब या तो आप नाटकों में उसी बाजारवाद की चकाचौंध को दर्शाइए या फिर उन्हें निःशुल्क टिकटें भेजिए और बारम्बार संदेशा भेजिए अपने मोबाइल से तथा व्यक्तिगत तौर पर अनुरोध भी कीजिए । इसलिए तो कहती हूँ, रंगमंच ने नहीं, बल्कि बाज़ारवाद ने हमारी कला और संस्कृति को नुकसान पहुँचाया है ।
प्र.(9.)भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !
उ:- अगर आपने हमारी प्रस्तुतियां देखी होती, तो आपको ये प्रश्न पूछने की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती !
साहित्यिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े नाटकों की लगातार प्रस्तुतियाँ कर हिंदी दर्शकों को नया आस्वाद देने में सफलता हासिल की है मैंने, यथा:- बलकान की औरतें, प्रेम अप्रेम, रेंगती परछाइयाँ (मेरे द्वारा लिखित), कबीरा खड़ा बाज़ार में, अलका, गैंडा, पतझड़, लोहार, बड़े भाईसाहब, प्रश्नचिह्न, यादों के बुझे हुए सवेरे, हयवदन, शुतुरमुर्ग, कांच के खिलौने इत्यादि 30 से अधिक नाटकों और कथा-कोलाज के अंतर्गत ३२ कहानियों की प्रस्तुति ने दर्शकों को यह कहने को मजबूर किया कि 'इन प्रस्तुतियों की बात कुछ अलग है' ।
प्र.(10.)इस कार्य के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे से इतर किसी प्रकार के सहयोग मिले या नहीं ? अगर हाँ, तो संक्षिप्त में बताइये ।
उ:- ये 'मुरब्बा' क्या है....? रंगमंच व्यापार नहीं है कि आप मुरब्बे अर्थात मुनाफे की बात करें । रंगमंच का अर्थ सिर्फ़ नाटक को मंच पर प्रस्तुत करना नहीं होता, अपितु इन मंचित अथवा अमन्चित नाटकों का लगातार अध्ययन और दर्शन भी ज़रूरी होता है । जो कि यहीं आकर सबसे बड़ा 'पार्थक्य' हो जाता है । नाट्य-संस्कृति एक सामूहिक आन्दोलन है, जिसे सबसे पहले तो समझने की ज़रूरत है । चूँकि रंगमंच सम्पूर्णत: समर्पण पर आधारित है, जहाँ लोग बिना किसी कमाई की आशा लिए आते हैं । समान मानसिकता वालों के सहयोग से ही रंगमंचीय गतिविधियाँ चलती रहती हैं ।
प्र.(11.)आपके कार्य क्षेत्र के कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी धोखा,केस या मुकद्दमे की परेशानियां झेलने पड़े हों ?
उ:- जी नहीं, मुझे ऐसी किसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा कभी...!
प्र.(12.)कोई किताब या पम्फलेट जो इस सम्बन्ध में प्रकाशित हों, तो बताएँगे ?
उ:- प्रश्न स्पष्ट नहीं है..."इस सम्बन्ध में” से तात्पर्य अगर मुक़दमे से है तो कोई किताब या पम्फलेट प्रकाशित नहीं है मेरी ।
*संपादक का हस्तक्षेप:- 'इस सम्बंध से मतलब आपके नाट्य-कार्यक्षेत्र से लगायी जाय !'*
प्रकाशित पुस्तकें -
मौलिक नाटक -
रेंगती परछाईयाँ (2014) प्रकाशन - ऑथर्स प्रेस,
उर्दू से हिंदी अनुवाद -
यादों के बुझे हुए सवेरे (इस्माइल चुनारा) प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन,
आबनूसी ख्याल (एन रशीद खान) प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन,
लैला मजनू (इस्माइल चुनारा) प्रकाशन दृश्यांतर, दिल्ली ।
अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद -
एक टूटी हुई कुर्सी एवं अन्य नाटक -(इस्माइल चुनारा) प्रकाशन-ऑथर्स प्रेस (चार नाटकों का संग्रह- दोपहर,पत्थर,एक टूटी हुई कुर्सी, यतीमखाना) ।
बंगला से उर्दू अनुवाद -
मुक्तधारा (टैगोर), (साहित्य अकादेमी से प्रकाशित / सयुंक्त अनुवादक - अज़हर आलम ) ।
अप्रकाशित नाटक -
पूर्णांग नाटक -
हज़ारों ख़्वाहिशें (2015) ।
अंग्रेजी से हिंदी अनुदित नाटक -
धोखा (राहुल वर्मा)
बलकान की औरतें (जुलेस तास्का) ।
बंगला से हिंदी अनुदित नाटक -
गोत्रहीन (रुद्रप्रसाद सेनगुप्ता),
अलका (मनोज मित्र) ।
एकांकी -
राजकुमारी और मेंढक, बुरे बुरे ख़्वाब, शैतान का खेल, हमारे हिस्से की धुप कहाँ है,
आग़ अब भी जल रही है, जाने कहाँ मंजिल मिल जाए, शपथ ।
अप्रकाशित रचनाएं (प्रकाशाधिन)-
मैं और मेरा मन (कविताएँ)
एक औरत की डायरी से ,
रानी लक्ष्मी बाई संग्रहालय, झाँसी के लिए स्क्रिप्टिंग, लाइट, संगीत की परिकल्पना बंगला डॉक्यूमेंट्री फिल्म का हिंदी में अनुवाद,पत्र-पत्रिकाओं में रंगमंच पर आलेख, कविताएं और कहानी प्रकाशित ।
निर्देशन एवं अभिनय :-
★ बलकान की औरतें, 2016 (अभिनय)
★ एक माँ धरती सी (कहानी), 2016 (निर्देशन)
★ रश्मिरथी माँ (कहानी), 2016 (निर्देशन, अभिनय)
★ वे लडकियाँ (कहानी), 2016 (निर्देशन, अभिनय)
★ निर्वासनों को निर्वासन (कहानी), 2016 (निर्देशन, अभिनय)
★ धोखा, 2016 (अभिनय)
★ रेंगती परछाइयाँ, 2015 (अभिनय)
★ क़िस्सा ख्वानी, 2014 (निर्देशन, अभिनय)
★ अलका, 2013 (निर्देशन, अभिनय)
★ लाइसेंस (कहानी), 2012 (निर्देशन)
★ बदला (कहानी), 2012 (निर्देशन, अभिनय)
★ मवाली (कहानी), 2012 (निर्देशन)
★ गैंडा, 2011 (अभिनय)
★ सुइयोंवाली बीबी (कहानी), 2010 (निर्देशन, अभिनय)
★ एक वृश्चिक की डायरी (कहानी), 2010 (निर्देशन, अभिनय)
★ बजिया तुम क्यों रोती हो (कहानी), 2010 (निर्देशन, अभिनय)
★ ओलुकुन, 2010 (निर्देशन)
★ बड़े भाईसाहब (कहानी), 2009 (निर्देशन),
★ पतझड़ 2009, (अभिनय)
★ इश्क़ पर ज़ोर नहीं (कहानी), 2008 (निर्देशन, अभिनय)
★ दोपहर, 2008 (निर्देशन, अभिनय)
★ आख़िरी रात (कहानी), 2008 (निर्देशन, अभिनय)
★ दुराशा (कहानी), 2008 (निर्देशन, अभिनय)
★ राजकुमारी और मेढक, 2008 (निर्देशन)
★ एक सपने की मौत (कहानी), 2007 (निर्देशन)
★ रिहाई (कहानी), 2007 (निर्देशन)
★ फाइल (कहानी), 2007 (निर्देशन, अभिनय)
★ पॉलिथीन की दीवार (कहानी), 2007 (निर्देशन, अभिनय)
★ ठंडा गोश्त, 2007 (अभिनय)
★ औलाद, 2007 (अभिनय)
★ प्रश्न-चिह्न, 2007 (अभिनय)
★ तारतुफ़, 2006 (निर्देशन, अभिनय)
★ पहले आप, 2006(निर्देशन)
★ यादों के बुझे हुए सवेरे, 2005 (निर्देशन, अभिनय)
★ शुतुरमुर्ग, 2004 (अभिनय)
★ शैतान का खेल, 2003 (निर्देशन)
★ हमारे हिस्से की धूप कहाँ है, 2003 (निर्देशन)
★ कांच के खिलौने, 2002 (अभिनय)
★ नमक की गुड़िया, 2001 (अभिनय)
★ अदृश्य अभिशाप, 2001 (निर्देशन)
★ स्वप्न दुःस्वप्न, 2001 (निर्देशन)
★ लोहार, 1999 (अभिनय)
★ जोकर, 1997 (अभिनय)
★ जब आधार नहीं रहते हैं, 1998 (निर्देशन)
★ दर्द का पोट्रेट, 1997 (निर्देशन)
★ सुलगते चिनार, 1996 (अभिनय)
★ सीमारेखा, 1985 (निर्देशन, अभिनय)
★ महाकाल, 1995 (अभिनय)
★ सत्गति, 1994 (निर्देशन, अभिनय)
★ ब्लैक संडे, 1994 (निर्देशन, अभिनय)
★ आग अब भी जल रही है, 1990 (निर्देशन)
★ अपहरण कौमी एकता (भाईचारे), 1989 (अभिनय)
★ चन्द्रगुप्त, 1988 (निर्देशन)
★ कोणार्क, 1987 (निर्देशन)
★ अधिकार का रक्षक, 1986 (निर्देशन, अभिनय)
★ गुस्ताखी माफ़, 1984 (अभिनय)
प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उ:- अवार्ड्स ...
1.) “Qaumi Ekta Awards 2016” for Art & Culture from All India Qaumi Ekta Manch.
2.) Felicitated by Bhartiya Sanskriti Sansad, Kolkata in 2015 for relentless and outstanding achievement in the field of theatre.
3.) “Shridevi Maheshwari Award” from West Bengal Provincial Marwari Federation in 2014 for the outstanding work in the field of Theatre.
4.) Felicitated by Aakrit, a foundation for Literary & amp; Cultural Advancement at their 1st Rajasthani Natya Mahotsav 2012 for outstanding contribution to theatre.
5.) Felicitated by Marudhara (a trust dedicated to Rajasthani society, its folk art and its culture) for outstanding achievements in the field of Theatre in 2011.
6.) Felicitated by Drama and Music Committee, Muslim Institute for contribution to Urdu/Hindi theatre in 2011.
7.) Mahila Samman Award for the outstanding work in the field of Theatre from Pradeshik Marwari Federation in 2006.
8.) Mahila Samman Award for the outstanding work in the field of Theatre from Akhil Bharatiya Marwari Sammelan in 1997.
9.) Best Actress Award (four times) in State Youth Festival organized by Ministry of Sports & amp; youth Affairs, Govt. of West Bengal.
10.) Awarded the Junior Fellowship from Ministry of Culture, Govt. of India for Story Theatre...Etc.
प्र.(14.)आपके कार्य मूलतः कहाँ से संचालित हो रहे हैं तथा इसके विस्तार हेतु आप समाज और राष्ट्र को क्या सन्देश देना चाहेंगी ?
उ:- मेरी कार्यक्षेत्र कोलकाता है । वर्तमान समय में हम समाज में आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच के संघर्ष को नए रूप में देख रहें हैं । फलस्वरूप नाटकों के प्रति रूचि उत्पन्न करने के लिए विभिन्न स्तरों पर दर्शकों के लिए सेमिनारों, संगोष्ठियों और वर्कशॉप के आयोजन की आवश्यकता है और ये ज़िम्मेदारी सभी सांस्कृतिक संस्थाओं की भी है और उन्हें यह जिम्मेवारी लेने भी चाहिए, ताकि सिर्फ़ पुरुषों के ही नहीं, बल्कि स्त्रियों की भागीदारी भी रंगमंच में सशक्त रूप में अधिष्ठापित हो पाये !
आप यू ही हँसते रहे , मुस्कराते रहे , स्वस्थ रहे-सानन्द रहे ----- 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' की ओर से सहस्रशः शुभ मंगलकामना ।
नमस्कार दोस्तों !
मैसेंजर ऑफ़ आर्ट' में आपने 'इनबॉक्स इंटरव्यू' पढ़ा । आपसे समीक्षा की अपेक्षा है, तथापि आप स्वयं या आपके नज़र में इसतरह के कोई भी तंत्र के गण हो, तो हम इस इंटरव्यू के आगामी कड़ी में जरूर जगह देंगे, बशर्ते वे हमारे 14 गझिन सवालों के सत्य, तथ्य और तर्कपूर्ण जवाब दे सके !
हमारा email है:- messengerofart94@gmail.com
प्रख्यात रंगकर्मी उमा झुनझुनवाला का साक्षात्कार पढ़ने को मिला और उनकी बहुमुखी प्रतिभा की झलक मिली.
ReplyDeleteमेरी आन्तरिक शुभकामनायें ...
# रावेल पुष्प /कोलकाता.