हिन्दू सनातन धर्माख्यान में भगवान शिव को नीलकंठ कहा गया है, किन्तु उन्होंने तो हम जैसे जीवन के लिए 'विष' बाहर न छोड़ खुद को मौत देनेवाले पदार्थ के हवाले कर इसे वरण किया और अतृप्त योगबल से कंठ में ही इसे रखे रहा ! किन्तु हम जैसे जीवों को ऐसी कार्यिकी उपाधि प्राप्त नहीं हो सकती है और हमारी मृत्यु तब सुनिश्चित है । वैसे भी मृत्यु अकाट्य सत्य है । इस बारे में हम यह कह सकते है कि इनका 'सर्वाधिकार सुरक्षित' है, यानी कि मृत्यु को चुनौती आप किसी भी कोर्ट में नहीं दे सकते हैं .... ऐसे ही दर्शन से ओतप्रोत प्रस्तुत कविता विशद प्रासंगिकता लिए है । इससे आगे की वर्णिता के लिए पाठकों को श्रीमान कवि की सुंदर प्रस्तुति पढ़ने चाहिए । आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़ते हैं, श्रीमान गोपाल सुखदेव चतुर्वेदी की कविता । तो आइये समय के परवान चढ़ते ही इन्हें पढ़ डालते हैं......
श्रीमान गोपाल सुखदेव चतुर्वेदी |
'बस यही तो मौत है'
हर बार इक दरिया.....
मिलती रही है समंदर से,
हर बार इक दर्द
निकलता रहा है अंदर से ।
आख़िर ऐसा क्यूँ है ?
दरिया को ही हिमालय से चिरकर
बढ़ना है, वो भी खुद के अस्तित्व खोकर
इधर समंदर के आकार बरकरार रखने को ।
आख़िर ऐसा क्यूँ ना हो ?
कि समंदर चल पड़े दरिया को चीरते आगे
चढ़ जाये हिमालय की नभचुम्बी शिखर पर
और दरिया के खोते अस्तित्व बचाने को ।
लेकिन देखना ये होगा
कि निश्चित ही एक दिन
कि निश्चित ही एक दिन
समंदर चलेगा उल्टी चाल
मिल के दरिया को कर देगा सब जलमग्न।
और तब, उसी जल पर एक ख्वाहिशी नाव में
मेरे सब दर्द तैरते होंगे......
और नाव जा रही होगी अंतिम सफर पर
मैं दूर खड़ा मुक्त होकर सब देख रहा होऊँगा ।
बस यही तो मौत है,
दरिया का समंदर में मिल जाना
ख्वाहिशों और दर्द का मिलकर शून्य हो जाना
मेरा बेबस खड़ा रह सब देखते जाना, विष पीते जाना !
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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