बीते साल 'विवेकानंद की जीवनी' पढ़ रहा था मैं ! इस पुस्तक के मूल लेखक रोमां रोलां हैं और इस पुस्तक के अनुवादक डॉ. रघुराज गुप्त जी है । इस पुस्तक के पृष्ठ सं. 23 पर एक अनोखी बात पढ़ने को मिली, जिनमें लिखा है-- 'वही (स्वामी विवेकानंद) अपने 6 जुलाई 1896 के पत्र में लिखते हैं, 33 वर्ष की आयु में मैं वेश्याओं के साथ रह सकता हूँ' !' पश्चिमी संसार के लेखक रोमां रोलां के संदर्भ के क्या मायने है ? क्या वे भारतीय आध्यात्मिकता से अनभिज्ञ रहे हैं । आइये, नरेंद्र नाथ उर्फ़ स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखते -परखते हैं। आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़ते हैं, 'युवा दिवस' पर उनसे संबंधित लेखकीय चाहतों पर एक नजर डालते हैं..........
उस महापुरुष को सादर प्रणाम, जिनके कारण "युवा" को हर देश का "कर्णधार" कहा जाने लगा है,1985 से भारत में राष्ट्रीय स्तर पर "युवा दिवस" मनाये जाना शुरू हुआ है, जैसे अबकी बात ठहरी ।
आज के युवा के लिए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं !"
विवेकानंद जी न केवल सन्त, अपितु महान देशभक्त, प्रखर वक्ता, गहन विचारक, आध्यात्मिक-लेखक और मानव-प्रेमी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-
"नया भारत निकल पड़े--
मोची की दुकान से,
बड़भूँजे के भाड़ से,
कारखाने से,हाट से,बाजार से;
निकल पडे झाड़ियों,जंगलों,पर्वत-पहाड़ से।" और जनता ने स्वामीजी सिरआँखों उठा लिया ।
उनके "मूर्तिपूजा" के विरोध में बयान उस समय काफी चर्चा में रहा था, हालाँकि उन्होंने यह विद्रोही बयान उस समय दिया था, जब इस देश के करोड़ों लोग भूख, दरिद्रता और कुपोषण के शिकार थे -- को देखते हुए कहा था-- "इन लोगों को देवी-देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये ।
स्वामी विवेकानन्द 'मैकाले' द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा-व्यवस्था के विरुद्ध थे, क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना ही रह गया था। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे, जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके ! बालक की शिक्षा का उद्देश्य आत्मनिर्भरता के साथ-साथ अनुशासन और ज्ञान भी होना चाहिए । स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित शिक्षा को 'निषेधात्मक शिक्षा' की संज्ञा देते हुए कहा था-- "क्या आप उस व्यक्ति को ही शिक्षित मानेंगे, जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो ! परन्तु वास्तविकता यह है, जो शिक्षा 'जनसाधारण' को जीवन-संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र-निर्माण नहीं करती, जो समाज-सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ ?"
वे महान सोचधारी हैं ! थे नहीं, क्योंक़ि "अच्छी सोच" कभी मरती नहीं !!
आज के युवा हर "चीज" में बेहतर है, वे "सामाजिक परिवर्तन"करने की कोशिश करते हैं । भले ही आज facebook पर कुछ नकारात्मक युवा विराजमान हैं !
आज के युवा "शेर जैसा साहस"रखते हैं, पर युवा "21वीं सदी" में "अपनी दिनचर्या" में खैनी,शराब,लड़की और फूँके मारकर अपने जीवन को "बर्बाद" कर रहे हैं । क्या इसतरह के हम साहसी-युवा बनने जा रहे हैं, जो कि बहादुरी की शेखी बघारते हैं और अपने दिनचर्या को "change" नहीं कर पा रहे हैं तथा हम कहते हैं- "हम देश के भविष्य हैं ! वाह रे युवा ...!!"
पर ये हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि ऐसे महानपुरुष, मेधावी, तेज और मानवप्रेमी को भारत में नहीं, अमेरिका में पहचान मिला ! हालाँकि नरेन्द्रनाथ दत्त को 'विवेकानंद' रामकृष्ण परमहंस ने बनाये, किन्तु 'स्वामी' देश ने बनाया !
हमारा देश इस ओर अग्रसर हों, ये "हमारे युवा" चाहते हैं और युवाओं के लिए हमारे माननीय PM अंकल 'नरेंद्र' जी भी साथ हैं, क्या पता भविष्य के ये 'मोदी स्वामी हो जाएँ ।
'राष्ट्रीय युवा दिवस' की पुनः सहस्त्रश: शुभकामनायें ।
आज के युवा के लिए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं !"
विवेकानंद जी न केवल सन्त, अपितु महान देशभक्त, प्रखर वक्ता, गहन विचारक, आध्यात्मिक-लेखक और मानव-प्रेमी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-
"नया भारत निकल पड़े--
मोची की दुकान से,
बड़भूँजे के भाड़ से,
कारखाने से,हाट से,बाजार से;
निकल पडे झाड़ियों,जंगलों,पर्वत-पहाड़ से।" और जनता ने स्वामीजी सिरआँखों उठा लिया ।
उनके "मूर्तिपूजा" के विरोध में बयान उस समय काफी चर्चा में रहा था, हालाँकि उन्होंने यह विद्रोही बयान उस समय दिया था, जब इस देश के करोड़ों लोग भूख, दरिद्रता और कुपोषण के शिकार थे -- को देखते हुए कहा था-- "इन लोगों को देवी-देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये ।
स्वामी विवेकानन्द 'मैकाले' द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा-व्यवस्था के विरुद्ध थे, क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना ही रह गया था। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे, जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके ! बालक की शिक्षा का उद्देश्य आत्मनिर्भरता के साथ-साथ अनुशासन और ज्ञान भी होना चाहिए । स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित शिक्षा को 'निषेधात्मक शिक्षा' की संज्ञा देते हुए कहा था-- "क्या आप उस व्यक्ति को ही शिक्षित मानेंगे, जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो ! परन्तु वास्तविकता यह है, जो शिक्षा 'जनसाधारण' को जीवन-संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र-निर्माण नहीं करती, जो समाज-सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ ?"
वे महान सोचधारी हैं ! थे नहीं, क्योंक़ि "अच्छी सोच" कभी मरती नहीं !!
आज के युवा हर "चीज" में बेहतर है, वे "सामाजिक परिवर्तन"करने की कोशिश करते हैं । भले ही आज facebook पर कुछ नकारात्मक युवा विराजमान हैं !
आज के युवा "शेर जैसा साहस"रखते हैं, पर युवा "21वीं सदी" में "अपनी दिनचर्या" में खैनी,शराब,लड़की और फूँके मारकर अपने जीवन को "बर्बाद" कर रहे हैं । क्या इसतरह के हम साहसी-युवा बनने जा रहे हैं, जो कि बहादुरी की शेखी बघारते हैं और अपने दिनचर्या को "change" नहीं कर पा रहे हैं तथा हम कहते हैं- "हम देश के भविष्य हैं ! वाह रे युवा ...!!"
पर ये हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि ऐसे महानपुरुष, मेधावी, तेज और मानवप्रेमी को भारत में नहीं, अमेरिका में पहचान मिला ! हालाँकि नरेन्द्रनाथ दत्त को 'विवेकानंद' रामकृष्ण परमहंस ने बनाये, किन्तु 'स्वामी' देश ने बनाया !
हमारा देश इस ओर अग्रसर हों, ये "हमारे युवा" चाहते हैं और युवाओं के लिए हमारे माननीय PM अंकल 'नरेंद्र' जी भी साथ हैं, क्या पता भविष्य के ये 'मोदी स्वामी हो जाएँ ।
'राष्ट्रीय युवा दिवस' की पुनः सहस्त्रश: शुभकामनायें ।
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
0 comments:
Post a Comment