समय के साथ लोगों में सोचने का नजरिया बदला है, परंतु कभी-कभी यह बदलाव क्षणिक होता है, तो कभी आशातीत ही नहीं, आशान्वित भी कराता है । लेकिन बदलाव लाने में सर्वाधिक योगदान हमारे आसपास के अच्छे व सुसंस्कारित माहौल और अच्छी और सच्ची पुस्तकें हैं । पुस्तक की बात आये और साहित्य-चर्चा-परिचर्चा न हो, तो कोई भी अवदान जुदा-जुदाई लगता है । आजकल अधिकतर विद्यार्थी और परीक्षार्थी भी 'लीक' से हटकर काम करना चाहते हैं... कोई टेक्निकल डिग्री लेकर देश की सेवा करना चाहते हैं, तो कोई 80 साल की अवस्था में आकर ही सही व वीर कुँवर सिंह की भाँति राष्ट्रसेवा और समाज सेवा करने को ठानते हैं । हाँ, 21 वीं सदी के वर्त्तमान दशक में ऐसा देखा गया है, अधिकतर युवक अथवा युवती डॉक्टर, इंजीनियर आदि की डिग्री लेने के बाद अपनी डिग्रीय पेशा के प्रति रुझान न पाल, अपितु 'राइटर्स' बनने की ओर मुड़ जाती हैं, लेकिन हिंदी राइटर्स को वह मुकाम व इज्ज़त नहीं मिल पाती हैं, जो इंग्लिश के रट्टामार विद्वानों को जल्द ही रसूख प्राप्त हो जाती हैं । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, नई वाली हिंदी के पेशकार श्रीमान सत्य व्यास लिखित उपन्यास 'दिल्ली दरबार' पर MOA की समीक्षा-यात्रा पर आंशिक पड़ाव ...
14 फरवरी यानी प्रेम दिवस को हिंदी उपन्यास 'दिल्ली दरबार' का अध्ययन पूर्ण किया, संभवतः पाठ रूप में, न कि परीक्षार्थी रूप में । वैसे भी पढ़ने का मज़ा ऐसे ही है, न कि परीक्षा के लिए पढ़ने जैसा ! तब समयाभाव के कारण उपन्यासनिहित हुड़दंगियों की चर्चा न कर पाया था, लेकिन अब सोचा है, इसपर कुछ टिप्पणी कर ही दूँ ।
यह एक ऐसी कहानी है, जिसमें दरबार तो कभी लगी नहीं, लेकिन दिल्ली की दिल्लगी को 'दिल्ली दूर है' के अधूरेपन को पूर्ण करती 'राधा' राधी हो आधी जरूर हो जाती है ।
कहानी दो दोस्तों की है, जो 'ब्रा-पेंटी' की भाँति है, सेक्सयाते अंग को छिपाने का असफल प्रयास करते हुए ! इन मित्र-द्वय में एक वह है, जिसका नाम तो उसके माता-पिता ने बहुत खूबसूरत रखा, लेकिन उनके बालों की कड़वाहट-स्टाइल के कारण उनकी कानों ने हमेशा 'झाड़ी' उपनाम को ग्रहण किया ।
कहानी यूँ आगे बढ़ती है, नायक साहब प्रसंगार्थ तैयारी के लिए निकल पड़ते हैं, झाड़ी के साथ, दिल्ली को, लेकिन दिल्ली किसी की सुनती कहाँ है, बावजूद इस साहब को 'साहिबा' दर्शन हो ही जाती है ।
उपन्यास में पिरोई गई 'शब्द' तो शब्दभेदी बाण चलाती हैं, जो हँसाती तो है और सेक्सयाती भी, लेकिन वृत की परिधि की तरह अन्दाजा लग ही जाती है कि कहानी के अगले पन्नों पर क्या उद्धृत हैं या क्या-क्या होने वाला है ?
प्रस्तुत कहानी में मज़ा भी है, तो सजा भी है। पढ़ाई भी है, तो हैकिंग वाला दिमाग चस्पाई भी, परंतु एक अल्पबुद्धियाई वो चायवाला 'छोटेचंद' क्या गुल खिला सकता है, यह बात क्रिकेटीय-रोमांच की तरह 'हेड' आएगा या 'टेल' या सिक्का खड़ा ही रह जायेगा यानी नॉट आउट... सोचने को बेबस और बेकस कर देती है ।
कहानी खत्म होते-होते दोस्ती की एक और यानी नई परिभाषा गढ़ी चली जाती है और जन्म लेती दिखती 'दिल्ली' की आबोहवा 'आबनूस' की रंगाई लिए इंग्लिश की नासमझी को दर्शाती है, तो वहीं कुछ प्रसंगों में लेखक का कलम हमें फिसलती हुई दिखती है, न कि बाँधती हुई! ...परंतु प्रस्तुत उपन्यास पर ONE टाइम watchable मूवी जरूर बन सकती है।
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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