'मैसेंजर ऑफ आर्ट' हर माह 'इनबॉक्स इंटरव्यू' प्रकाशित व प्रसारित करते आये हैं । इसबार हिंदी की चर्चित लेखिका और कवयित्री श्रीमती मंजू गुप्ता के साहित्यिक अवदान से रूबरू होते हैं, उनसे लिए साक्षात्कार के माध्यम से ।
हिंदी भाषा और हिंदी की सेवा में विधारत बहु-सांस्कृतिक, सामाजिक, विश्वमैत्री, समन्वयकारी, मानवीय संरक्षिका, नव प्रयोगवादी, प्रबुद्ध विचारक, साहित्यिक और विकासवादी प्रगतिशीलता की हितचिंतक, नवदृष्टिकोण की धनी, सृजन की चाह के बीज से सृजित विराट वटवृक्ष'सी चट्टानी प्रतिभा पायी श्रीमती मंजू गुप्ता अपने जीवन के लक्ष्य को स्वयं निर्धारित करती दिखती हैं । हाँ, देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद भी इनकी काव्य -प्रतिभा के कायल हो गए थे, जैसे- भारतरत्न सुश्री लता मंगेश्कर की गायन-प्रतिभा से प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ।
वे विविधता में एकता, समरसता की मिसाल और उन्नायक भूमिका लिए हिंदी की कीर्ति- पताका व ध्वजवाहक हैं । जन्म- 21 दिसम्बर 1953 को ऋषियों की नगरी 'ऋषिकेश' में विद्वान माता- पिता के घर, तो शिक्षा के रूप उच्च शिक्षित हैं और नवी मुम्बई के एक माध्यमिक विद्यालय में हिंदी की अध्यापिका हैं । इनकी पुत्री- द्वय जाने-माने चिकित्सक हैं । हिंदी साहित्यकार श्रीमती मैत्रेयी पुष्पा की बेटियां भी चिकित्सक हैं । ...तो क्या इन दोनों की तुलना एतदर्थ की जा सकती है । आप ही निर्णय लीजिये, इन 14 गझिन प्रश्नों के जो जवाब श्रीमती मंजू जी ने दी हैं, उनकी लम्बाई औसत से अधिक है, किंतु हमें संतुष्ट करता है, तो आइए, इस माह के 'इनबॉक्स इंटरव्यू' में हम श्रीमती मंजू गुप्ता को पढ़ ही डालते हैं......
प्र.(1.)आपके कार्यों को इंटरनेट के माध्यम से जाना । इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के आईडिया-संबंधी 'ड्राफ्ट' को सुस्पष्ट कीजिये ?
उ:- जी हाँ ! अत्याधुनिकता के भागम-दौड़ में इन्टरनेट, मेरा ब्लॉग 'मंजु श्री', प्रिंट और ऑनलाइन लेखन मेरे भावों की अभिव्यक्ति का व्यापक प्रवेश द्वार है । जिसके माध्यम से पलक झपकते ही मैं देश-विदेश, दुनियाभर के पाठकों, साहित्यकारों, शुभचिंतकों, समीक्षकों से जुड़ जाती हूँ, जिसमें मुझे 'मातृ भारती' इ-बुक जैसा प्रसिद्ध व नायाब मंच का सान्निध्य भी मिला ! जिसमें मेरी साहित्यिक कहानियां, कविताएँ आदि प्रकाशित हुई हैं । जिनसे मुझे मानदेय भी प्राप्त हुई है, तो साहित्यपीडिया, प्रतिलिपि, कलम की सुगंध, सोशल मीडिया इत्यादि पर लेखन जारी है, मेरे चिन्तन की आग ने समाज, देश, विश्व में व्याप्त विद्रूपताओं, विसंगतियों, नकारात्मक प्रवृतियों में यथा-- दीनता, हीनता, दासता, अज्ञानता, संकीर्णता, नस्लीय भेदभाव, लैंगिक भेदभाव, वर्ण भेदभाव, जातीयता, प्रांतीयता, साम्प्रदायिकता, पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, भ्रष्टाचार, बाजारवाद, शोषण, असमानता, महिला उत्पीड़न, बलात्कार, नैसर्गिक आपदाएं इत्यादि सामाजिक बुराइयों, सामयिक समस्यात्मक विषयों पर अपनी लेखनी से प्रहार और समाधान निकालने की हरसंभव प्रयास की है । मेरी लेखन-यात्रा में भारतीय और विदेशी संस्कृति, जीवन का सच, महावीर, बुद्ध, गाँधी की अहिंसा, शान्ति, ईसा का प्रेम, करुणा इत्यादि मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करना हैं, जो साहित्य के द्वारा ही संभव है । इन सब मूल्यों का मूर्त्तरूप मेरी 8 नायाब किताबें हैं, जो देश - विदेश के वैश्विक साहित्यिक जगत को महका रही है । हिंदी शिक्षिका होने के नाते छात्रों को समाज के सकारात्मक, सृजनात्मक, प्रेरणात्मक-ऊर्जा से ऊर्जस्विन कराए । यह अतीत याद आ गया । जब दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों के विदाई-समारोह में छात्रों ने मुझे एक शब्द में मेरा वर्णन किया वह संबोधन शब्द था-- "मोटिवेटर" ! कवयित्री होने के नाते विभिन्न मंचों से कविताओं के द्वारा समाज में आयी गिरावट, आदमी से आदमी के बीच का फासला-- को दूर कराने हेतु सचेतन रिश्तों में जोड़ के सर्वांगीण विकास करने का प्रयास करती रहती हूँ, यथा- पेंटिंग, नृत्य, बागवानी के माध्यम से मेरी यह अभिव्यक्ति होती है कि जन -मन की खुशियों को मानवीय रंगों में सराबोर करती रहूँ । अहिन्दी भाषियों को मैं 'नेट' के माध्यम से राष्ट्रभाषा हिंदी पढ़ाती भी हूँ ।
प्र.(2.)आप किसतरह के पृष्ठभूमि से आये हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?
उ:- 'विचार पुष्पों के समान हैं और सोच उन पुष्पों को सुंदर माला में गुम्फित करने के समान है'-- स्वदेशी की यह उक्ति मेरे बहुआयामी व्यक्तित्व को सुरभित कर रही है ! हर खूबसूरत फूल भी क्षण भंगुर संसार को मिटने से पहले यही संदेश देता है कि सदगुणों की खुशबू से अपना और अन्य के जीवन को महका जाना । मेरे विचारों के चिंतन का बीज मेरे माता - पिता , भाई - बहनों , गुरुओं, संत- महापुरुषों और संगी- साथियों के सान्निध्य में अंकुरित हुई । मैं उत्तराखंड की देवभूमि , आध्यात्मिकता- धार्मिकता की तपस्थली , पावन गंगा माँ के तीर्थ धाम ऋषिकेश में जन्मी हूँ । शिक्षिका माँ स्व0 शान्ति देवी, विद्यालय के संस्थापक और अंग्रेजी, इतिहास के प्रोफ़ेसर, वक्तृत्वपटु, सामाजिक कार्यकर्त्ता पिता स्व0 प्रेमपाल वार्ष्णेय के व्यक्तित्व तथा उनके संस्कारों ने मुझे संस्कारित किया है । उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के समय ये युगल ऋषिकेश में आए थे । मंदिरों और ध्यात्म की इस नगरी में जहाँ चौराहों पर हवन-यज्ञ होते थे, मन्दिरों की घंटियों, गंगा आरती से विश्व की मंगल कामना की गूंज से मलय पवन गूंजती थी ! गोरों के काले शासन में जहां क्रांतिकारियों , आन्दोलनकारियों के लिए हर घर से हर हफ्ते का आटा जमा किया जाता था और बोरा भर के उन क्रांतिकारियों को दिया जाता था ! ऐसी दान - पुण्यस्थली में हमारी माँ हम सबको भोर में गंगा स्नान के लिए ले जाती थीं । गंगा स्नान के बाद पंडों , गरीबों को दान - पुण्य किया जाता था । ऐसे धार्मिक परिवेश में हमारा लालन - पालन हुआ । बहुआयामी व्यक्तित्व के दस्तावेज की धरोहर हमारे माँ - पिता हैं । उस गुलाम भारत के काले पानी की सजा वाले काले अंधकार में स्त्री सशक्तिकरण , बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ , सामाजिक समरसता , भेदभाव , नफरत की दीवारों को तोड़कर ज्ञान - मानवता की रोशनी की और वहाँ पर यह युगल ने शैक्षिक क्रांति कर ज्ञान की चेतना प्रस्फुटित की थी ! इसी कारण माँ - पिता की व्यापक मानसिकता के कारण सातों भाई - बहनों ने बिना लैंगिक भेद भाव के शिक्षा प्राप्त की थी । उन्होंने बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ, आगे बढ़ाओ के सिद्धांतों को ईमानदारी , ज्ञान का प्रकाश फैलाया । उन्हीं के आदर्श मेरे जीवन को चरितार्थ कर रहे हैं !
अंधविश्वासों से जकड़े ऋषिकेश में , समाज में शिक्षा के अन्धकार में माँ - पिता कहा करते थे -- 'शिक्षा के आभूषण पहनो'। इसके लिए साक्षारता के बीज बोने में माँ - पिता ने काफी संघर्ष किए । अतः सरस्वती का निवास हमारे घर में सदा रहा । पढ़ने - पढ़ाने का माहौल था । उन सबकी त्याग , तपस्या , परिश्रम , लगन , और जागरूकता रूप़ी खाद ने मेरे संस्कारों को पोषित किया उनके मार्गदर्शन ने गति , नवचेतना , स्फूर्ति , सामाजिकता प्रदान की ।प्राकृतिक सौन्दर्य, सांस्कृतिक विरासत से भरपूर ऋषिकेश में देश - विदेश की कई महान हस्तियाँ आती हैं । भारत , चीन युद्ध होने से पहले भारत के प्रथम राष्ट्रपति महामहिम डा . राजेन्द्र प्रसाद जी यहाँ आए थे . तब मैंने यह स्वागत गान कवि हृदय भाई - बहन का लिखा गाना गाया था --
"स्वागत है श्रीमान आपका
आए बनकर कृपा निधान
युग - युग तक गाएँगे गान
जय - जय राष्ट्रपति महान"
उन्होंनें मुझे तब आशीर्वाद दिया था । जो मेरे जीवन में फल - फूल रहा है। जिसका प्रमाण मेरी यह तस्वीर महामहिम डा . राजेन्द्र प्रसाद जी के संग की है ।
जब भी कोई अतिथि बचपन में हमारे माँ - पिता से मिलने आते थे , तब माता - पिता हम सब भाई - बहनों को उनके सामने गाने को कहते थे और हम देश भक्ति , देश प्रेम के गीत गाया करते थे ! राष्ट्रीय चेतना के बीज वहीं से प्रस्फुटित हुए । इस तरह से दूरदर्शी माता - पिता ने हमारा स्टेज का डर दूर कराया । हिन्दी , अंग्रेजी की निबन्ध-प्रतियोगिता , वक्तृत्व स्पर्धा से हम सबकी प्रतिभाओं को खूब निखारा ! मेरी कविताओं की आज भी युवा डायरी साक्ष्य की रूप में साक्षी है . इसी की कविताओं के आधार पर सृष्टि खंड - काव्य प्रकाशित किया मैंने। मैं यूँ कह सकती हूँ कि सत्संगति का प्रभाव बचपन में अधिक पड़ता है । यहीं के संस्कारों की नींव से भविष्य का मूल्यों से निर्मित प्रतिभाओं से समाज , राष्ट्र का चारित्रिक व्यक्तित्व आयाम लेता है ,भारत का निर्माण होता है। मैं अभी भी स्पर्धाओं में भाग लेती हूँ । संघर्षों , रुकावटों को सफलता की सीढ़ी मानती हूँ ! सर्जन करना , बागवानी करना, दोस्त बनाना , सामाजिकता, चैरिटी करना मुझे विरासत में मिली है। घर में अंग्रेजी - हिन्दी की किताबों का पुस्तकालय था ! किताबों के पढने , पढ़ाने का सदा शौक रहा है । स्कूल की पत्रिका 'ज्योति' में हम सब भाई - बहनों की रचना प्रकाशित होती थी ।
प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किसतरह से इंस्पायर अथवा लाभान्वित हो सकते हैं ?
उ:- विद्यालय में जब मैं हिन्दी शिक्षिका थी, तो एसेम्बली में विद्यार्थियों को , संग की शिक्षिकाओं को कविताओं , सुविचारों , गीतों से प्रेरित करती थी। हिन्दी पखवाड़ों की मैं सर्वेसर्वा हुआ करती थी ! मौलिक सर्जनात्मक क्षमताओं से सारी योजनाओं को मूर्त रूप क्वीज , कहानियों , कविताओं , कविसम्मेलन , शब्दों के पर्यायवाची , विलोम , गीतों , दोहों की अंताक्षरी की स्पर्धाओं को छात्रों से करवाती थी । जिससे उन प्रतिभावान छात्रों ने अपना व हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल किया । आज भी मैं उन से जुड़ी हूँ , जो डाक्टर , इंजीनियर , प्रोफेसर बन मेरे से इंस्पायर हुए ! मेरी सहकर्मी शिक्षिकाएं मुझ से कहती थीं - मैं अपनी बेटियों को, अपने पति को आपकी श्रृंगार और प्रेम की कविताएँ सुनाती हूँ, उन्हें अच्छी लगती हैं, इस बड़ी प्रशंसा का और इनसे इंस्पायर का तोहफा क्या हो सकता है।डायरियों में लेखन जारी ही था । तभी एक दिन मेरे मन में ख्याल आया कि मेरा पार्थिव शरीर नहीं रहेगा । क्यों न समाज की पीड़ा , दर्द को अपनी अनुभूतियों , अनुभवों को किताबों में गढ़ के अपने जीवन की अनमोल धरोहर की निशानी देश , समाज , हिन्दी साहित्य जगत को दे जाऊं ? मैं न रहूंगी, परंतु मेरे विचार , मेरी किताबें तो ज़िंदा रहेंगी। ईशशक्ति ने मुझे शक्ति दी ! मेरी पहली पुस्तक 'प्रांत पर्व पयोधि' प्राकशित हुई । जिसमें मैंने भारत के पूरे प्रांत , भारत के त्योहारों और महाराष्ट्र का अरब सागर के साथ अन्य सागरों से जुड़ावकर मानवीयता का वर्णन किया है । इसी कृति ने पूरे भारत को एक ही किताब में समटने वाली पहली कवयित्री बना दी । हिन्दी साहित्य विभिन्न विधाओं में गद्य - पद्य , गीत, गजल , मुक्तक , दोहों , निबन्ध , कहानियां लिए 8 किताबें प्रकाशित हुई हैं । देश - विदेश के विभिन्न पत्रिकाओं में , समाचार पत्रों में आलेख , कहानी , कविताएँ प्रकाशित होती हैं . पाठक पढ़ कर लाभवान्वित होते हैं। पाठक फोन करके इन पर मुझ से संवाद भी करते हैं , टिप्पणी भी देते हैं । लेखन मेरे मित्र की तरह मुझ से लिखवाता है , मुझसे संवाद करता है , मुझसे बोलता है और मुझ से लिखवाता है । अकेलेपन का जीवनसाथी है लेखन । जो है, मेरी रूचि , मेरी हॉबी ! इन किताबों ने मुझे भारत के राष्ट्रपति , प्रधानमन्त्री , गणमान्य साहित्यकारों जैसे स्व0 निदा फाजली, मा0 गोपालदास नीरज जी , मा0 सूर्यबाला जी , मा0 मैत्रयी पुष्पा जी इत्यादि से जोड़ दिए । इन किताबों ने मुझे व्यष्टि से समष्टि बना दिया ।
प्र.(4.)आपके कार्य में आये जिन रूकावटों,बाधाओं या परेशानियों से आप या संगठन रू-ब-रू हुए, उनमें से दो उद्धरण दें ?
उ:-किसी भी सकारात्मक कार्य में ईश बाधाओं के रूप में , मुश्किलों के रोड़े डाल कर हमारी परीक्षा लेती है । जब मेरी रचनाएं पत्रिकाओं , समाचार पत्रों में प्रकाशित होती थी। तब मैं अपनी इस खुशी को ससुरालवालों व ननद , देवरों , सासू माँ को जाहिर करके रचना दिखाती थी , तो वे कहते थे पैसे देकर प्रकाशित कराई होगी ? तुम क्या महादेवी वर्मा बन गयी हो ? तब मैं मौन हो जाती थी ! जब प्रथम पांडुलिपि के रूप में मेरी प्रांत पर्व पयोधि तैयार हुई तो पिता जी ने ससुर जी से प्रकाशित कराने की राय मांगी, तो उन्होंने कहा - "कम्प्यूटर के जमाने में कौन तुम्हारी किताब पढ़ेगा ? रद्दी की तरह जगह घेरेगी ! " मन ने सोचा वाकई मुम्बई जैसे महानगरों में जगह की तो कमी होती है । मैं इन वचनों से हतोत्साहित, निराश तो नहीं हुई, लेकिन आँखों से आंसुओं की झड़ियाँ लग गयी थी ! घर में किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था । इन आँसुओं को मेरे पति श्री स्वतंत्र जी ने देख लिए और रोते हुए सब कुछ उन्हें बताया । ढाढस देते हुए उन्होंने आर्थिक मदद दे के अलीगढ़ बड़ी बहन के पास भेजा।इस काम में सहयोगी बनी मेरी माँ स्वरूपा बड़ी बहन श्रीमती डा . स्नेह लता वार्ष्णेय । दीदी के पहचान के प्रकाशक ने घर बैठे ही एक सप्ताह में किताब बनाकर मेरे हाथों सौंप दी । पहली सन्तान की प्रसव वेदना वाली खुशी जैसी इस किताब की खुशी मैंने महसूस की। उन्हीं के माता श्री - पिताश्री के द्वारा स्थापित लक्ष्मी - विष्णु जी के मंदिर में पंडित जी के द्वारा पुस्तक के लिए प्रार्थना की। कलम सदा सद्मार्ग दिखाए, फिर सरस्वती पूजा कराकर एक प्रति पंडित जी को देकर और आशीर्वाद के घर आए ! इस किताब ने मुझे सरल, शांत , सौम्य मुस्कान, उदार चित्त मा0 गोपालदास नीरज जी से जोड़ दिया । जिन्होंने मेरी कई किताबों की समीक्षा भी लिखी ! उनका आशीर्वाद मुझ पर बरस रहा है ।शुरू के दौर में तो अपनों की, रिश्तेदारों की आलोचना , ताने तो सुनने को मिले थे ! संकीर्ण मानसिकता की सोच को मेरे काम ने उनका मुँह बंद करा दिया । आज उन्हीं की संस्था के लोग मुझे सम्मानित कर रहे हैं । कोई आलोचना मेरे लिए प्रोत्साहन , ऊर्जा का काम करती हैं ! इस तरह मेरी किताबों का सिलसिला बढ़ता चला गया । कबीर ने भी कहा कि सदा निंदक को अपने साथ रखो।
प्र.(5.)अपने कार्य क्षेत्र के लिए क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के तो शिकार न हुए ?अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाये ?
मुझे बिलकुल भी नहीं किसी आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा । मेरी यह 'प्रांत पर्व पयोधि' किताब विद्यार्थियों - शिक्षकों , बड़ों के लिए सामान्य ज्ञान और निबंध से संबंधित है, इसलिए यह ज्ञानवर्द्धक काव्यात्मक पुस्तक मुम्बई , नवी मुंबई , देश - विदेश के विद्यालयों, महाविद्यालयों , पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा रही है, क्योंकि किताबों के बिकने से मेरी आने वाली किताब का खर्च निकल जाता है । इसी पुस्तक को देख के आदरणीय गीतकार नीरज जी ने मुझे फोन करके बुलाया था । तब उनसे मेरी पहली मुलाक़ात थी ।
फिर अन्य किताबों के लिए महावीर प्रसाद जी के 'किरनदेवी ट्रस्ट' से थोड़ी आर्थिक सहायता भी मिली।
प्र.(6.)आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट थे या उनसबों ने राहें अलग पकड़ ली !
उ:-लेखन मेरी रुचि, शौक है, तो मेरी तपस्या है । इसके द्वारा मेरा ईश से साक्षात्कार होता है ! वे ही अलौकिक दिव्य शक्ति है। जो मेरे लेखन कार्य को गति देती है, लेकिन शादी के बाद मेरे ससुराल का माहौल रुढ़िवादी , संकुचित विचारधारा का रहा । संयुक्त परिवार की पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए , वहाँ पर अपने आप को समायोजित कर , नित्य नयी चुनौतियों का सामना करते हुए व मेरी पीड़ाओं को, बुलंद हौसलों ने कलम को हथियार बनाकर समाज, परिवार, देश, जगत की हर सच्चाई , सामाजिक बुराइयों के विरोध पर लिखकर मैं अपना रचनाधर्मिता को निभा रही हूँ ! मन अभी भी कहता है कुछ और करना है । लेखन के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर संघर्ष करने ही पड़ते हैं । मेरा पूरा परिवार मेरे लेखन कार्य से संतुष्ट है ! बेटी डा0शुचि ने ही मुझे कम्प्यूटर सिखाया । उसी की बदौलत आज मैं सारी दुनिया से जुड़ी हूँ । कितना बड़ा रचनात्मक सहयोग है । मेरी शुचि बेटी ने मुझे तकनीक सिखाकर जमाने के साथ कर दिया, ताकि समाज में कन्या भ्रूण हत्या रोकने की आवाज बन पाऊँ ।
प्र.(7.)आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ? यह सभी सम्बन्ध से हैं या इतर हैं !
उ:-जी हाँ ! मेरा पूरा परिवार मेरे लेखन कार्य से संतुष्ट है ! मेरे हमसफर स्वतंत्र जी, मेरी दोनों डाक्टर बेटियों ने कभी भी मेरे लेखन का विरोध नहीं किया, बल्कि वे ही मेरी रचनाओं के पहले पाठक होते हैं। वे मुझे सुझाव भी देते हैं । जब मैं लिखने में तल्लीन होती हूँ, तो कोई भी मुझे डिस्टर्ब नहीं करता है । वे मेरे इस कार्य में पूर्ण रूप से सहयोगी हैं । मेरी कृतियों पर मेरी साक्षात्कार पत्रिकाओं, समाचारपत्रों , दूरदर्शन के चैनलों में प्रकाशित व प्रसारित होता है, तो उनको भी उतनी खुशी होती है जितनी मुझे । पूरे मुम्बई , नवी मुम्बई मेरी लेखन की कर्मस्थली बनी, यहाँ के व्यापक , उदार मानसिकता वाले लोग, सारे प्रधानाचार्य को नमन करती हूँ । जिन्होंने मेरी कृतियों को सम्मान दिया । आकाशवाणी मुंबई, दूरदर्शन मुम्बई का, जिन्होंने मेरी प्रतिभा को पहचाना और आकाशवाणी ने मेरी कविताओं का प्रसारण किया ! गोधरा जब जला था, तब मैंने राष्ट्रीय कवियों के साथ पहली बार मुम्बई दूरदर्शन पर सांप्रदायिक सद्भाव की कविता पढ़ी थी । इस कवि सम्मेलन का पूरे भारत में प्रसारण हुआ था । हिंदी दिवस पर मुंबई दूरदर्शन से मेरी कविता का सह्र्याद्री चैनल पर प्रसारण हुआ था ।मेरे लेखन क्षेत्र में सफलता व उपलब्धियों को हासिल करने वाली परिवार से इतर ससुराल पक्ष और मायका पक्ष से एक मात्र सदस्या हूँ । मेरे कार्यों को हमारे साहित्यकारों , मित्रों, परिवार जनों ने खूब पसंद किया , प्रशंसा की और सराहा । मुझ से लगाव रखने वाले मुम्बई समाज के लोगों का सहयोग मैं कभी भी न भूला पाऊँगी । प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जो भी जन मेरे साथ जुड़े हैं, उन हस्ताक्षरों को मेरा प्रणाम । 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' का आभार - नमन, जिन्होंने मुझसे साक्षात्कार लेकर मुझे शेष दुनिया से जोड़ दिए । मेरे आलोचकों को भी मेरा नमन, जिनसे मैं सीखती हूँ और आगे बढ़ने हेतु प्रेरणा पाती हूँ ।
प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं अथवा संस्कृति पर चोट पहुँचाने के कोई वजह ?
उ:- प्राकृतिक और भौगोलिक विविधता के होते हुए भी और खान - पान , वेश - भूषा , भाषा के अलग होते हुए भारतीय संस्कृति विविधता में एकता की मिसाल है । अतीत की संस्कृति पर वर्तमान और भविष्य का आधार टिका होता है । सदियों से दिवाली , होली , दशहरा , भैया दूज , रक्षाबन्धन इत्यादि त्योहार सभी भारतवासी मानते हैं । सबके मनाने के तरीके अलग हो सकते हैं, लेकिन सब के पीछे भाव एक ही होता है-- मिलजुल के खुशियाँ मनाना। भारतीय संस्कृति की विरासत इतनी व्यापक है कि टूटे हुए रिश्तों को भी जोड़ देती है। आज के तकनीकी के युग में समय का अभाव है और इक्कीसवीं सदी में ज्यादातर एकल परिवार होने से लोगों को तीज -त्योहारों व पूजा - पाठ, महत्व आदि मालूम नहीं होते हैं ! मेरी प्रथम पुस्तक 'प्रांत पर्व पयोधि' भारतीय संस्कृति की धरोहर है । इससे पाठक प्रभावित होते हैं, ऐसी किताब तो संस्कृति को अक्षुण्ण रखती हैं । वसुधैव कुटुम्बकम , सर्वे भवन्तु सुखिनः , सर्वे सन्तु निरामया जैसे वेद -वाक्य सारी मानव जाति के कल्याण और मंगल की कामना करते हैं, जो मानवता का पोषण करते हैं । यही हमारी भारतीय संस्कृति का दर्शन है। तभी तो पाश्चात्य के लोगों का झुकाव भारत की संस्कृति के प्रति रहता है। इस भौतिकतावादी चकाचौंध के युग में मानव धर्म को जिस व्यक्ति ने अपना लिया, वहीं सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है । जिसके मूल में शान्ति , प्रेम , सत्य , समग्रता और शुचिता है । लेखन का भी यही धर्म होता है । जब हम इसे आचरण में लाए, तो पतनोन्मुखी समाज का उत्थान हो जाता है । मनुष्य को विनाश के कगार पर जाने से रोकता है । यह तब संभव होगा, जब हम संस्कृति का आचरण करेंगे और इसे व्यवहार में लाएंगे ! इन सांस्कृतिक मूल्यों से छोटे और बड़े हर जन , बाल , युवा , बड़े , वृद्ध हर कोई जुड़ सकता है । यही हमारी भारतीय संस्कृति की पहचान है । इन्हीं मूल्यों पर संस्कृति सदियों से टिकी हुई है और जब तक सूरज - चाँद हैं, तब तक कायम रहेगी ।
प्र.(9.)भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !
उ:-भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने के लिए सबसे बड़ी पहल अपने से शुरू करनी होती है। खुद के अंतर्मन को स्वच्छ रखना होगा। संसारभर में जीवों की 84 लाख योनियों में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। ईश की सृष्टि में, ईश के विधान में इसे व्यवधान डालने का अधिकार नहीं है। आज का मानव मूल्यों के विपरीत चल रहा है। इसलिए आज विश्व में चहुँओर भ्रष्टाचार का आतंक और नकारात्मकता व्याप्त है । तब मनुष्य के जमीर में सत्प्रवृत्तियों के वास होने से भ्रष्टाचार की समस्या स्वतः समाप्त हो जाएगी। मानवीय मूल्यों पर आधारित मेरी किताब 'संगम' सौ प्रतिशत भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने के लिए कारगार साबित हो सकती है। बस जरूरत है इन नैतिक मूल्यों का आचरण में लाने की। इसकी ताजा मिसाल हैं -- मिसाइलमैन हमारे राष्ट्रपति महामहिम स्व0 ए पी जे अब्दुल कलाम । भगवान बुद्ध और डाकू अंगुलिमाल की प्रेरणाप्रद कहानी, जो अमानवीयता के अंतर्मन को मानवीयता में परिवर्तन करने की पहल है। मेरी कलम की उर्जावान शक्ति के ज्ञानदीप किताबें इन्हीं मूल्यों से समाज में उजास भर रही हैं। पतित मानवता को मानवीय संवेदनाओं से, उसे जागरूक करके ही इस भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सकते हैं। भ्रष्टाचार तो लालच का पर्याय है। उक्ति भी है- 'लालच बुरी बला है' ! संकल्प लेकर समाज , राष्ट्र के हर व्यक्ति निस्वार्थता से अपने काम की जिम्मेदारी निभाए, हम मूल्यों की आचारसंहिता अपनाकर ही भ्रष्टाचारमुक्त समाज और टिकाऊ राष्ट्र बनाने में कारगार साबित हो सकते हैं।
प्र.(10.)इस कार्य के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे से इतर किसी प्रकार के सहयोग मिले या नहीं ? अगर हाँ, तो संक्षिप्त में बताइये ।
उ :- नहीं ! कोई आर्थिक सहयोग नहीं मिला। हाँ, सरकारी पत्रिकाओं से ही रचनाएँ प्रकाशन पर मानदेय मिलता है। बाकी तो चेरिटी के रूप में मेरी रचनाएँ प्रकाशित होती हैं। इस बहाने मैं राष्ट्रभाषा हिन्दी और हिंदी साहित्य की सेवा कर रही हूँ। हिदी दिवस पर जज की भूमिका निभाती हूँ , तो कहीं पर मुख्य अतिथि बनकर भी।
प्र.(11.)आपके कार्य क्षेत्र के कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी धोखा, केस या मुकद्दमे की परेशानियां झेलने पड़े हों ?
उ:-जी, दोष बिल्कुल नहीं है, लेकिन विसंगतियां के अपवाद भी हैं । इस क्षेत्र में उतरे विद्वान लेखकों को जागरूक होना पड़ेगा । मैं एक वाकया से नए लेखकों की आँखें खोल देना चाहती हूँ कि जब मैंने अपनी पुस्तक खण्ड काव्य 'सृष्टि' के संपादन की जिम्मेवारी पहचान के संपादक को दी । वे भी लेखक और प्रोफ़ेसर हैं । जब मैं इस किताब का अंतिम रूप यानी फाइनल प्रूफ देखने के लिए प्रकाशक के यहाँ गयी तो कम्प्युटर पर संपादक जी ने मेरे नाम के ऊपर अपना नाम रचनाकार लिख कर डाल दिया। दिन दहाड़े इस छल के अँधेरे को देखकर मन ही मन में दुःख के साथ गुस्सा भी आया कि दोगले नकाबपोश लोगों की मानसिकता की विसंगतियों से समाज पीड़ित हैं। फिर मैंने प्रकाशक जी को उनका नाम दिखाते हुए पूछा - 'इस किताब पर रचनाकार का नाम उनका क्यों है ? किताब प्रकाशित कराने का रुपये कौन दे रहा है ?'
तो प्रकाशक ने कहा - 'उन्होंने ही अपना नाम लिखने को कहा था। रूपये तो आप दे रही हैं।'
फिर मैंने उनका नाम हटवाने कहा । अगर चेक करने नहीं जाती, तो वे भी उस किताब में ज़िंदा रहते ! इस अनुभव ने मुझे बहुत कुछ सीखा दिया। फिर दोगली मानसिकता पर रचना भी लिख दी। अंततः, मैंने उन्हें माफ़ भी कर दी । ग़ालिब का शे'र है --
'रास्ता अपना आसान करता चला गया ,
किसी को माफ़ कर दिया, किसी से माफ़ी मांग ली।'
प्र.(12.)कोई किताब या पम्फलेट जो इस सम्बन्ध में प्रकाशित हो, तो बताएँगे ?
उ:-जी हाँ ! मेरी अब तक की लेखन यात्रा में 8 किताबें प्रकाशित हो गयीं हैं:-
कृतियाँ :-
प्रांत पर्व पयोधि ( काव्य) ,दीपक (नैतिक बाल कहानियाँ) ,सृष्टि (खंडकाव्य) ,संगम ( मानवीय मूल्यों का काव्य ), अलबम ( नैतिक कहानियाँ ) , भारत महान (बालगीत ) सार ( निबंध संग्रह ) ,परिवर्तन ( कहानियाँ ) ।
अन्य रचनाएँ:-
आधी आबादी का आकाश , सरस्वती पत्रिका , समाज कल्याण, हिमप्रस्थ , नव किरन साहित्यकुंज , वार्ष्णेय दर्पण , न्यु मिलिनम इत्यादि ।
देश - विदेश की पत्र - पत्रिकाओं में:-
E- पत्रिका मातृ भारती , हिन्द युग्म , अंतर्जाल अनुभूति और कई स्थापित समाचरपत्रों, जैसे- नवभारत टाइम्स , नव भारत , दोपहर का सामना , राष्ट्र विचार , दैनिक जागरण , वाशी टाइम्स , टीविन सिटी , महानगरी , ज्योतिष विज्ञान , वास्तु शास्त्र , मेराईन शिक्षक मैगजीन , ज्योति, मुम्बई से प्रकाशित साहित्यकारों की पुस्तक हास्य कवि स्व0 रामरिख मनहर जी की 'मंगल दीप' इत्यादि ।
प्रेस में अभी:-
तीर्थ यात्रा की सृष्टि ( आत्म - कथा ) जज्बा ( देश भक्ति गीत ) है ।
प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उ:- मेरे लेखन कार्य को समाज और संस्थाओं ने सराहा । जिसकी परिणिति के रूप में सम्मान / पुरस्कार हैं --
बचपन में ऋषिकेश में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा . राजेन्द्र प्रसाद जी से भेंट , राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जी , अटल बिहारी बाजपई जी की शुभकामनाएं मिली हैं । नवी मुंबई के श्री गणेश नाईक मंत्री , श्री स्व . प्रकाश परांजपे , म्हाडा अध्यक्ष मधु चव्हाण , गृह राज्य मंत्री कृपा शंकर , महापोर , उपमहापोर अविनाश लाड ने सम्मानित किया है ।
मेरी उपलब्धियां समेटे सकारात्मक रचना संसार है । समस्त भारत की विशेषताओं को प्रांतपर्व पयोधि में समेटनेवाली प्रथम महिला कवयित्री हूँ । गोधरा जब जला था, तब मुंबई दूरदर्शन से सांप्रदायिक सद्भाव पर कवि सम्मेलन में सहभाग रही हूँ । गांधी जीवन शैली निबंध स्पर्धा में तुषार गांधी द्वारा विशेष सम्मान से सम्मानित हुईं । माडर्न कॉलेज वाशी द्वारा सावित्री बाई फूले पुरस्कार से सम्मानित, भारतीय संस्कृति प्रतिष्ठान द्वारा प्रीत रंग में स्पर्धा में पुरस्कृत, आकाशवाणी मुंबई से कविताएँ प्रसारित , विभिन्न व्यंजन स्पर्धाओं में पुरस्कृत, मुंबई दूरदर्शन पर अखिल भारतीय कविसम्मेलन में सहभाग । आशीर्वाद , मुंबई द्वारा अखंड कवि सम्मेलन में सहभागी ।
वार्ष्णेय चेरिटेबल ट्रस्ट नवी मुंबई , एकता वेलफेयर असोसिएन नवी मुंबई , मैत्री फाउंडेशन विरार , के .जे . सौमेया , विद्याविहार , कन्नड़ समाज संघ , राष्ट्र भाषा महासंघ मुंबई, प्रेक्षा ध्यान केंद्र , नवचिंतन सावधान संस्था मुंबई कविरत्न से सम्मानित , हिन्द-युग्म यूनि पाठक सम्मान , राष्ट्रीय समता स्वतंत्र मंच दिल्ली द्वारा महिला शिरोमणी अवार्ड के लिए चयन, अग्नि शिखा मंच सम्मान , मुंबई , वार्ष्णेय सभा मुम्बई इत्यादि । उत्तर प्रदेश की जूनियर स्तर की खेल प्रतियोगिता में टू स्टार से भी सम्मानित हुई हूँ ।
प्र.(14.)आपके कार्य मूलतः कहाँ से संचालित हो रहे हैं तथा इसके विस्तार हेतु आप समाज और राष्ट्र को क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उ:- जी मेरा स्थाई निवास वाशी नवी मुंबई में है। जिसमें मैं और मेरे कमरे में अपने लेखन कार्य को कम्प्यूटर , मोबाइल फोन से ऑनलाइन लेखनकार्य संचालित करती हूँ । अंतर्जाल में E-पत्रिकाओं जैसे अनुभूति , साहित्यपीडिया , प्रतिलिपि, प्रयास इत्यादि में मन की अनुभूतियों की रचनाओं को यहाँ विस्तार मिलता है। कविसम्मेलन , काव्य गोष्ठियां , साहित्यकारों के विमोचित पुस्तको के लेखन से संपर्क के दायरे को बढ़ाते हैं। प्रतिभा को आगे बढ़ाने की कोई उम्र नहीं होती है। हर बच्चा , हर व्यक्ति ईश्वरीय उपहार होता है। जरूरत है, हमको उनमें आत्मविश्वास जगाने का है। आज विश्व का चौथा स्तम्भ मीडिया तो अपनी बात को दुनिया में पहुँचाने का सशक्त माध्यम है। बच्चों के, समाज, राष्ट्र का भविष्य बनाने के लिए किसी को प्राथमिकता देनी होगी। शिक्षा की आजादी के साथ सोच की भी आजादी हो। मेहनत , ईमानदारी , प्रेम , करुणा , अहिंसा के पाठ को जीवन में उतारना होगा। तभी अमन - चैन की दुनिया बना सकते हैं।
मेरे अनुसार --
जब मन ने ठान लिया
ऊँची उड़ान भरने का
तब हौसलों के पंखों से
आसमान छूना आसान है।
एक कदम सही उठाएं तो
दूसरा कदम सही उठाता है
बेटी बचाओ बेटी पढाओ , बेटी को आगे बढ़ाओ का नारा बुलंद करती हुई रचना -
दुर्गा - सी देश की बेटियाँ
अवनि , मोहना , भावना
थाम वायु सेना की कमान
गले लगा रहीं हैं वे
आजादी का जहान।
जब समता का आसमान , धूप , वर्षा बिना भेदभाव के जग को लुटाता है, तब लैंगिक भेदभाव क्यों है ? मैं तो भेदभाव को नहीं जानती हूँ। मैनें अपनी दोनों बेटी को डाक्टर बनाई । आज वे परिवार , समाज , देश की सेवा कर रही हैं, यथा:-
गौरव जननी का होता कोख से
जब एक कोख से जन्मते बेटा-बेटी
फिर लैंगिक भेदभाव करते क्यों ?
माँ को ईश का दीदार होता कोख से।
जिन्दगी की ऐसी किताब बनाओ
जिसका हर पन्ना हर कोई पढ़े।
श्रीमती मंजु गुप्ता |
हिंदी भाषा और हिंदी की सेवा में विधारत बहु-सांस्कृतिक, सामाजिक, विश्वमैत्री, समन्वयकारी, मानवीय संरक्षिका, नव प्रयोगवादी, प्रबुद्ध विचारक, साहित्यिक और विकासवादी प्रगतिशीलता की हितचिंतक, नवदृष्टिकोण की धनी, सृजन की चाह के बीज से सृजित विराट वटवृक्ष'सी चट्टानी प्रतिभा पायी श्रीमती मंजू गुप्ता अपने जीवन के लक्ष्य को स्वयं निर्धारित करती दिखती हैं । हाँ, देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद भी इनकी काव्य -प्रतिभा के कायल हो गए थे, जैसे- भारतरत्न सुश्री लता मंगेश्कर की गायन-प्रतिभा से प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ।
वे विविधता में एकता, समरसता की मिसाल और उन्नायक भूमिका लिए हिंदी की कीर्ति- पताका व ध्वजवाहक हैं । जन्म- 21 दिसम्बर 1953 को ऋषियों की नगरी 'ऋषिकेश' में विद्वान माता- पिता के घर, तो शिक्षा के रूप उच्च शिक्षित हैं और नवी मुम्बई के एक माध्यमिक विद्यालय में हिंदी की अध्यापिका हैं । इनकी पुत्री- द्वय जाने-माने चिकित्सक हैं । हिंदी साहित्यकार श्रीमती मैत्रेयी पुष्पा की बेटियां भी चिकित्सक हैं । ...तो क्या इन दोनों की तुलना एतदर्थ की जा सकती है । आप ही निर्णय लीजिये, इन 14 गझिन प्रश्नों के जो जवाब श्रीमती मंजू जी ने दी हैं, उनकी लम्बाई औसत से अधिक है, किंतु हमें संतुष्ट करता है, तो आइए, इस माह के 'इनबॉक्स इंटरव्यू' में हम श्रीमती मंजू गुप्ता को पढ़ ही डालते हैं......
प्र.(1.)आपके कार्यों को इंटरनेट के माध्यम से जाना । इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के आईडिया-संबंधी 'ड्राफ्ट' को सुस्पष्ट कीजिये ?
उ:- जी हाँ ! अत्याधुनिकता के भागम-दौड़ में इन्टरनेट, मेरा ब्लॉग 'मंजु श्री', प्रिंट और ऑनलाइन लेखन मेरे भावों की अभिव्यक्ति का व्यापक प्रवेश द्वार है । जिसके माध्यम से पलक झपकते ही मैं देश-विदेश, दुनियाभर के पाठकों, साहित्यकारों, शुभचिंतकों, समीक्षकों से जुड़ जाती हूँ, जिसमें मुझे 'मातृ भारती' इ-बुक जैसा प्रसिद्ध व नायाब मंच का सान्निध्य भी मिला ! जिसमें मेरी साहित्यिक कहानियां, कविताएँ आदि प्रकाशित हुई हैं । जिनसे मुझे मानदेय भी प्राप्त हुई है, तो साहित्यपीडिया, प्रतिलिपि, कलम की सुगंध, सोशल मीडिया इत्यादि पर लेखन जारी है, मेरे चिन्तन की आग ने समाज, देश, विश्व में व्याप्त विद्रूपताओं, विसंगतियों, नकारात्मक प्रवृतियों में यथा-- दीनता, हीनता, दासता, अज्ञानता, संकीर्णता, नस्लीय भेदभाव, लैंगिक भेदभाव, वर्ण भेदभाव, जातीयता, प्रांतीयता, साम्प्रदायिकता, पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, भ्रष्टाचार, बाजारवाद, शोषण, असमानता, महिला उत्पीड़न, बलात्कार, नैसर्गिक आपदाएं इत्यादि सामाजिक बुराइयों, सामयिक समस्यात्मक विषयों पर अपनी लेखनी से प्रहार और समाधान निकालने की हरसंभव प्रयास की है । मेरी लेखन-यात्रा में भारतीय और विदेशी संस्कृति, जीवन का सच, महावीर, बुद्ध, गाँधी की अहिंसा, शान्ति, ईसा का प्रेम, करुणा इत्यादि मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करना हैं, जो साहित्य के द्वारा ही संभव है । इन सब मूल्यों का मूर्त्तरूप मेरी 8 नायाब किताबें हैं, जो देश - विदेश के वैश्विक साहित्यिक जगत को महका रही है । हिंदी शिक्षिका होने के नाते छात्रों को समाज के सकारात्मक, सृजनात्मक, प्रेरणात्मक-ऊर्जा से ऊर्जस्विन कराए । यह अतीत याद आ गया । जब दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों के विदाई-समारोह में छात्रों ने मुझे एक शब्द में मेरा वर्णन किया वह संबोधन शब्द था-- "मोटिवेटर" ! कवयित्री होने के नाते विभिन्न मंचों से कविताओं के द्वारा समाज में आयी गिरावट, आदमी से आदमी के बीच का फासला-- को दूर कराने हेतु सचेतन रिश्तों में जोड़ के सर्वांगीण विकास करने का प्रयास करती रहती हूँ, यथा- पेंटिंग, नृत्य, बागवानी के माध्यम से मेरी यह अभिव्यक्ति होती है कि जन -मन की खुशियों को मानवीय रंगों में सराबोर करती रहूँ । अहिन्दी भाषियों को मैं 'नेट' के माध्यम से राष्ट्रभाषा हिंदी पढ़ाती भी हूँ ।
प्र.(2.)आप किसतरह के पृष्ठभूमि से आये हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?
उ:- 'विचार पुष्पों के समान हैं और सोच उन पुष्पों को सुंदर माला में गुम्फित करने के समान है'-- स्वदेशी की यह उक्ति मेरे बहुआयामी व्यक्तित्व को सुरभित कर रही है ! हर खूबसूरत फूल भी क्षण भंगुर संसार को मिटने से पहले यही संदेश देता है कि सदगुणों की खुशबू से अपना और अन्य के जीवन को महका जाना । मेरे विचारों के चिंतन का बीज मेरे माता - पिता , भाई - बहनों , गुरुओं, संत- महापुरुषों और संगी- साथियों के सान्निध्य में अंकुरित हुई । मैं उत्तराखंड की देवभूमि , आध्यात्मिकता- धार्मिकता की तपस्थली , पावन गंगा माँ के तीर्थ धाम ऋषिकेश में जन्मी हूँ । शिक्षिका माँ स्व0 शान्ति देवी, विद्यालय के संस्थापक और अंग्रेजी, इतिहास के प्रोफ़ेसर, वक्तृत्वपटु, सामाजिक कार्यकर्त्ता पिता स्व0 प्रेमपाल वार्ष्णेय के व्यक्तित्व तथा उनके संस्कारों ने मुझे संस्कारित किया है । उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के समय ये युगल ऋषिकेश में आए थे । मंदिरों और ध्यात्म की इस नगरी में जहाँ चौराहों पर हवन-यज्ञ होते थे, मन्दिरों की घंटियों, गंगा आरती से विश्व की मंगल कामना की गूंज से मलय पवन गूंजती थी ! गोरों के काले शासन में जहां क्रांतिकारियों , आन्दोलनकारियों के लिए हर घर से हर हफ्ते का आटा जमा किया जाता था और बोरा भर के उन क्रांतिकारियों को दिया जाता था ! ऐसी दान - पुण्यस्थली में हमारी माँ हम सबको भोर में गंगा स्नान के लिए ले जाती थीं । गंगा स्नान के बाद पंडों , गरीबों को दान - पुण्य किया जाता था । ऐसे धार्मिक परिवेश में हमारा लालन - पालन हुआ । बहुआयामी व्यक्तित्व के दस्तावेज की धरोहर हमारे माँ - पिता हैं । उस गुलाम भारत के काले पानी की सजा वाले काले अंधकार में स्त्री सशक्तिकरण , बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ , सामाजिक समरसता , भेदभाव , नफरत की दीवारों को तोड़कर ज्ञान - मानवता की रोशनी की और वहाँ पर यह युगल ने शैक्षिक क्रांति कर ज्ञान की चेतना प्रस्फुटित की थी ! इसी कारण माँ - पिता की व्यापक मानसिकता के कारण सातों भाई - बहनों ने बिना लैंगिक भेद भाव के शिक्षा प्राप्त की थी । उन्होंने बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ, आगे बढ़ाओ के सिद्धांतों को ईमानदारी , ज्ञान का प्रकाश फैलाया । उन्हीं के आदर्श मेरे जीवन को चरितार्थ कर रहे हैं !
अंधविश्वासों से जकड़े ऋषिकेश में , समाज में शिक्षा के अन्धकार में माँ - पिता कहा करते थे -- 'शिक्षा के आभूषण पहनो'। इसके लिए साक्षारता के बीज बोने में माँ - पिता ने काफी संघर्ष किए । अतः सरस्वती का निवास हमारे घर में सदा रहा । पढ़ने - पढ़ाने का माहौल था । उन सबकी त्याग , तपस्या , परिश्रम , लगन , और जागरूकता रूप़ी खाद ने मेरे संस्कारों को पोषित किया उनके मार्गदर्शन ने गति , नवचेतना , स्फूर्ति , सामाजिकता प्रदान की ।प्राकृतिक सौन्दर्य, सांस्कृतिक विरासत से भरपूर ऋषिकेश में देश - विदेश की कई महान हस्तियाँ आती हैं । भारत , चीन युद्ध होने से पहले भारत के प्रथम राष्ट्रपति महामहिम डा . राजेन्द्र प्रसाद जी यहाँ आए थे . तब मैंने यह स्वागत गान कवि हृदय भाई - बहन का लिखा गाना गाया था --
"स्वागत है श्रीमान आपका
आए बनकर कृपा निधान
युग - युग तक गाएँगे गान
जय - जय राष्ट्रपति महान"
उन्होंनें मुझे तब आशीर्वाद दिया था । जो मेरे जीवन में फल - फूल रहा है। जिसका प्रमाण मेरी यह तस्वीर महामहिम डा . राजेन्द्र प्रसाद जी के संग की है ।
जब भी कोई अतिथि बचपन में हमारे माँ - पिता से मिलने आते थे , तब माता - पिता हम सब भाई - बहनों को उनके सामने गाने को कहते थे और हम देश भक्ति , देश प्रेम के गीत गाया करते थे ! राष्ट्रीय चेतना के बीज वहीं से प्रस्फुटित हुए । इस तरह से दूरदर्शी माता - पिता ने हमारा स्टेज का डर दूर कराया । हिन्दी , अंग्रेजी की निबन्ध-प्रतियोगिता , वक्तृत्व स्पर्धा से हम सबकी प्रतिभाओं को खूब निखारा ! मेरी कविताओं की आज भी युवा डायरी साक्ष्य की रूप में साक्षी है . इसी की कविताओं के आधार पर सृष्टि खंड - काव्य प्रकाशित किया मैंने। मैं यूँ कह सकती हूँ कि सत्संगति का प्रभाव बचपन में अधिक पड़ता है । यहीं के संस्कारों की नींव से भविष्य का मूल्यों से निर्मित प्रतिभाओं से समाज , राष्ट्र का चारित्रिक व्यक्तित्व आयाम लेता है ,भारत का निर्माण होता है। मैं अभी भी स्पर्धाओं में भाग लेती हूँ । संघर्षों , रुकावटों को सफलता की सीढ़ी मानती हूँ ! सर्जन करना , बागवानी करना, दोस्त बनाना , सामाजिकता, चैरिटी करना मुझे विरासत में मिली है। घर में अंग्रेजी - हिन्दी की किताबों का पुस्तकालय था ! किताबों के पढने , पढ़ाने का सदा शौक रहा है । स्कूल की पत्रिका 'ज्योति' में हम सब भाई - बहनों की रचना प्रकाशित होती थी ।
प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किसतरह से इंस्पायर अथवा लाभान्वित हो सकते हैं ?
उ:- विद्यालय में जब मैं हिन्दी शिक्षिका थी, तो एसेम्बली में विद्यार्थियों को , संग की शिक्षिकाओं को कविताओं , सुविचारों , गीतों से प्रेरित करती थी। हिन्दी पखवाड़ों की मैं सर्वेसर्वा हुआ करती थी ! मौलिक सर्जनात्मक क्षमताओं से सारी योजनाओं को मूर्त रूप क्वीज , कहानियों , कविताओं , कविसम्मेलन , शब्दों के पर्यायवाची , विलोम , गीतों , दोहों की अंताक्षरी की स्पर्धाओं को छात्रों से करवाती थी । जिससे उन प्रतिभावान छात्रों ने अपना व हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल किया । आज भी मैं उन से जुड़ी हूँ , जो डाक्टर , इंजीनियर , प्रोफेसर बन मेरे से इंस्पायर हुए ! मेरी सहकर्मी शिक्षिकाएं मुझ से कहती थीं - मैं अपनी बेटियों को, अपने पति को आपकी श्रृंगार और प्रेम की कविताएँ सुनाती हूँ, उन्हें अच्छी लगती हैं, इस बड़ी प्रशंसा का और इनसे इंस्पायर का तोहफा क्या हो सकता है।डायरियों में लेखन जारी ही था । तभी एक दिन मेरे मन में ख्याल आया कि मेरा पार्थिव शरीर नहीं रहेगा । क्यों न समाज की पीड़ा , दर्द को अपनी अनुभूतियों , अनुभवों को किताबों में गढ़ के अपने जीवन की अनमोल धरोहर की निशानी देश , समाज , हिन्दी साहित्य जगत को दे जाऊं ? मैं न रहूंगी, परंतु मेरे विचार , मेरी किताबें तो ज़िंदा रहेंगी। ईशशक्ति ने मुझे शक्ति दी ! मेरी पहली पुस्तक 'प्रांत पर्व पयोधि' प्राकशित हुई । जिसमें मैंने भारत के पूरे प्रांत , भारत के त्योहारों और महाराष्ट्र का अरब सागर के साथ अन्य सागरों से जुड़ावकर मानवीयता का वर्णन किया है । इसी कृति ने पूरे भारत को एक ही किताब में समटने वाली पहली कवयित्री बना दी । हिन्दी साहित्य विभिन्न विधाओं में गद्य - पद्य , गीत, गजल , मुक्तक , दोहों , निबन्ध , कहानियां लिए 8 किताबें प्रकाशित हुई हैं । देश - विदेश के विभिन्न पत्रिकाओं में , समाचार पत्रों में आलेख , कहानी , कविताएँ प्रकाशित होती हैं . पाठक पढ़ कर लाभवान्वित होते हैं। पाठक फोन करके इन पर मुझ से संवाद भी करते हैं , टिप्पणी भी देते हैं । लेखन मेरे मित्र की तरह मुझ से लिखवाता है , मुझसे संवाद करता है , मुझसे बोलता है और मुझ से लिखवाता है । अकेलेपन का जीवनसाथी है लेखन । जो है, मेरी रूचि , मेरी हॉबी ! इन किताबों ने मुझे भारत के राष्ट्रपति , प्रधानमन्त्री , गणमान्य साहित्यकारों जैसे स्व0 निदा फाजली, मा0 गोपालदास नीरज जी , मा0 सूर्यबाला जी , मा0 मैत्रयी पुष्पा जी इत्यादि से जोड़ दिए । इन किताबों ने मुझे व्यष्टि से समष्टि बना दिया ।
प्र.(4.)आपके कार्य में आये जिन रूकावटों,बाधाओं या परेशानियों से आप या संगठन रू-ब-रू हुए, उनमें से दो उद्धरण दें ?
उ:-किसी भी सकारात्मक कार्य में ईश बाधाओं के रूप में , मुश्किलों के रोड़े डाल कर हमारी परीक्षा लेती है । जब मेरी रचनाएं पत्रिकाओं , समाचार पत्रों में प्रकाशित होती थी। तब मैं अपनी इस खुशी को ससुरालवालों व ननद , देवरों , सासू माँ को जाहिर करके रचना दिखाती थी , तो वे कहते थे पैसे देकर प्रकाशित कराई होगी ? तुम क्या महादेवी वर्मा बन गयी हो ? तब मैं मौन हो जाती थी ! जब प्रथम पांडुलिपि के रूप में मेरी प्रांत पर्व पयोधि तैयार हुई तो पिता जी ने ससुर जी से प्रकाशित कराने की राय मांगी, तो उन्होंने कहा - "कम्प्यूटर के जमाने में कौन तुम्हारी किताब पढ़ेगा ? रद्दी की तरह जगह घेरेगी ! " मन ने सोचा वाकई मुम्बई जैसे महानगरों में जगह की तो कमी होती है । मैं इन वचनों से हतोत्साहित, निराश तो नहीं हुई, लेकिन आँखों से आंसुओं की झड़ियाँ लग गयी थी ! घर में किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था । इन आँसुओं को मेरे पति श्री स्वतंत्र जी ने देख लिए और रोते हुए सब कुछ उन्हें बताया । ढाढस देते हुए उन्होंने आर्थिक मदद दे के अलीगढ़ बड़ी बहन के पास भेजा।इस काम में सहयोगी बनी मेरी माँ स्वरूपा बड़ी बहन श्रीमती डा . स्नेह लता वार्ष्णेय । दीदी के पहचान के प्रकाशक ने घर बैठे ही एक सप्ताह में किताब बनाकर मेरे हाथों सौंप दी । पहली सन्तान की प्रसव वेदना वाली खुशी जैसी इस किताब की खुशी मैंने महसूस की। उन्हीं के माता श्री - पिताश्री के द्वारा स्थापित लक्ष्मी - विष्णु जी के मंदिर में पंडित जी के द्वारा पुस्तक के लिए प्रार्थना की। कलम सदा सद्मार्ग दिखाए, फिर सरस्वती पूजा कराकर एक प्रति पंडित जी को देकर और आशीर्वाद के घर आए ! इस किताब ने मुझे सरल, शांत , सौम्य मुस्कान, उदार चित्त मा0 गोपालदास नीरज जी से जोड़ दिया । जिन्होंने मेरी कई किताबों की समीक्षा भी लिखी ! उनका आशीर्वाद मुझ पर बरस रहा है ।शुरू के दौर में तो अपनों की, रिश्तेदारों की आलोचना , ताने तो सुनने को मिले थे ! संकीर्ण मानसिकता की सोच को मेरे काम ने उनका मुँह बंद करा दिया । आज उन्हीं की संस्था के लोग मुझे सम्मानित कर रहे हैं । कोई आलोचना मेरे लिए प्रोत्साहन , ऊर्जा का काम करती हैं ! इस तरह मेरी किताबों का सिलसिला बढ़ता चला गया । कबीर ने भी कहा कि सदा निंदक को अपने साथ रखो।
प्र.(5.)अपने कार्य क्षेत्र के लिए क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के तो शिकार न हुए ?अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाये ?
मुझे बिलकुल भी नहीं किसी आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा । मेरी यह 'प्रांत पर्व पयोधि' किताब विद्यार्थियों - शिक्षकों , बड़ों के लिए सामान्य ज्ञान और निबंध से संबंधित है, इसलिए यह ज्ञानवर्द्धक काव्यात्मक पुस्तक मुम्बई , नवी मुंबई , देश - विदेश के विद्यालयों, महाविद्यालयों , पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा रही है, क्योंकि किताबों के बिकने से मेरी आने वाली किताब का खर्च निकल जाता है । इसी पुस्तक को देख के आदरणीय गीतकार नीरज जी ने मुझे फोन करके बुलाया था । तब उनसे मेरी पहली मुलाक़ात थी ।
फिर अन्य किताबों के लिए महावीर प्रसाद जी के 'किरनदेवी ट्रस्ट' से थोड़ी आर्थिक सहायता भी मिली।
प्र.(6.)आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट थे या उनसबों ने राहें अलग पकड़ ली !
उ:-लेखन मेरी रुचि, शौक है, तो मेरी तपस्या है । इसके द्वारा मेरा ईश से साक्षात्कार होता है ! वे ही अलौकिक दिव्य शक्ति है। जो मेरे लेखन कार्य को गति देती है, लेकिन शादी के बाद मेरे ससुराल का माहौल रुढ़िवादी , संकुचित विचारधारा का रहा । संयुक्त परिवार की पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए , वहाँ पर अपने आप को समायोजित कर , नित्य नयी चुनौतियों का सामना करते हुए व मेरी पीड़ाओं को, बुलंद हौसलों ने कलम को हथियार बनाकर समाज, परिवार, देश, जगत की हर सच्चाई , सामाजिक बुराइयों के विरोध पर लिखकर मैं अपना रचनाधर्मिता को निभा रही हूँ ! मन अभी भी कहता है कुछ और करना है । लेखन के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर संघर्ष करने ही पड़ते हैं । मेरा पूरा परिवार मेरे लेखन कार्य से संतुष्ट है ! बेटी डा0शुचि ने ही मुझे कम्प्यूटर सिखाया । उसी की बदौलत आज मैं सारी दुनिया से जुड़ी हूँ । कितना बड़ा रचनात्मक सहयोग है । मेरी शुचि बेटी ने मुझे तकनीक सिखाकर जमाने के साथ कर दिया, ताकि समाज में कन्या भ्रूण हत्या रोकने की आवाज बन पाऊँ ।
प्र.(7.)आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ? यह सभी सम्बन्ध से हैं या इतर हैं !
उ:-जी हाँ ! मेरा पूरा परिवार मेरे लेखन कार्य से संतुष्ट है ! मेरे हमसफर स्वतंत्र जी, मेरी दोनों डाक्टर बेटियों ने कभी भी मेरे लेखन का विरोध नहीं किया, बल्कि वे ही मेरी रचनाओं के पहले पाठक होते हैं। वे मुझे सुझाव भी देते हैं । जब मैं लिखने में तल्लीन होती हूँ, तो कोई भी मुझे डिस्टर्ब नहीं करता है । वे मेरे इस कार्य में पूर्ण रूप से सहयोगी हैं । मेरी कृतियों पर मेरी साक्षात्कार पत्रिकाओं, समाचारपत्रों , दूरदर्शन के चैनलों में प्रकाशित व प्रसारित होता है, तो उनको भी उतनी खुशी होती है जितनी मुझे । पूरे मुम्बई , नवी मुम्बई मेरी लेखन की कर्मस्थली बनी, यहाँ के व्यापक , उदार मानसिकता वाले लोग, सारे प्रधानाचार्य को नमन करती हूँ । जिन्होंने मेरी कृतियों को सम्मान दिया । आकाशवाणी मुंबई, दूरदर्शन मुम्बई का, जिन्होंने मेरी प्रतिभा को पहचाना और आकाशवाणी ने मेरी कविताओं का प्रसारण किया ! गोधरा जब जला था, तब मैंने राष्ट्रीय कवियों के साथ पहली बार मुम्बई दूरदर्शन पर सांप्रदायिक सद्भाव की कविता पढ़ी थी । इस कवि सम्मेलन का पूरे भारत में प्रसारण हुआ था । हिंदी दिवस पर मुंबई दूरदर्शन से मेरी कविता का सह्र्याद्री चैनल पर प्रसारण हुआ था ।मेरे लेखन क्षेत्र में सफलता व उपलब्धियों को हासिल करने वाली परिवार से इतर ससुराल पक्ष और मायका पक्ष से एक मात्र सदस्या हूँ । मेरे कार्यों को हमारे साहित्यकारों , मित्रों, परिवार जनों ने खूब पसंद किया , प्रशंसा की और सराहा । मुझ से लगाव रखने वाले मुम्बई समाज के लोगों का सहयोग मैं कभी भी न भूला पाऊँगी । प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जो भी जन मेरे साथ जुड़े हैं, उन हस्ताक्षरों को मेरा प्रणाम । 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' का आभार - नमन, जिन्होंने मुझसे साक्षात्कार लेकर मुझे शेष दुनिया से जोड़ दिए । मेरे आलोचकों को भी मेरा नमन, जिनसे मैं सीखती हूँ और आगे बढ़ने हेतु प्रेरणा पाती हूँ ।
प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं अथवा संस्कृति पर चोट पहुँचाने के कोई वजह ?
उ:- प्राकृतिक और भौगोलिक विविधता के होते हुए भी और खान - पान , वेश - भूषा , भाषा के अलग होते हुए भारतीय संस्कृति विविधता में एकता की मिसाल है । अतीत की संस्कृति पर वर्तमान और भविष्य का आधार टिका होता है । सदियों से दिवाली , होली , दशहरा , भैया दूज , रक्षाबन्धन इत्यादि त्योहार सभी भारतवासी मानते हैं । सबके मनाने के तरीके अलग हो सकते हैं, लेकिन सब के पीछे भाव एक ही होता है-- मिलजुल के खुशियाँ मनाना। भारतीय संस्कृति की विरासत इतनी व्यापक है कि टूटे हुए रिश्तों को भी जोड़ देती है। आज के तकनीकी के युग में समय का अभाव है और इक्कीसवीं सदी में ज्यादातर एकल परिवार होने से लोगों को तीज -त्योहारों व पूजा - पाठ, महत्व आदि मालूम नहीं होते हैं ! मेरी प्रथम पुस्तक 'प्रांत पर्व पयोधि' भारतीय संस्कृति की धरोहर है । इससे पाठक प्रभावित होते हैं, ऐसी किताब तो संस्कृति को अक्षुण्ण रखती हैं । वसुधैव कुटुम्बकम , सर्वे भवन्तु सुखिनः , सर्वे सन्तु निरामया जैसे वेद -वाक्य सारी मानव जाति के कल्याण और मंगल की कामना करते हैं, जो मानवता का पोषण करते हैं । यही हमारी भारतीय संस्कृति का दर्शन है। तभी तो पाश्चात्य के लोगों का झुकाव भारत की संस्कृति के प्रति रहता है। इस भौतिकतावादी चकाचौंध के युग में मानव धर्म को जिस व्यक्ति ने अपना लिया, वहीं सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है । जिसके मूल में शान्ति , प्रेम , सत्य , समग्रता और शुचिता है । लेखन का भी यही धर्म होता है । जब हम इसे आचरण में लाए, तो पतनोन्मुखी समाज का उत्थान हो जाता है । मनुष्य को विनाश के कगार पर जाने से रोकता है । यह तब संभव होगा, जब हम संस्कृति का आचरण करेंगे और इसे व्यवहार में लाएंगे ! इन सांस्कृतिक मूल्यों से छोटे और बड़े हर जन , बाल , युवा , बड़े , वृद्ध हर कोई जुड़ सकता है । यही हमारी भारतीय संस्कृति की पहचान है । इन्हीं मूल्यों पर संस्कृति सदियों से टिकी हुई है और जब तक सूरज - चाँद हैं, तब तक कायम रहेगी ।
प्र.(9.)भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !
उ:-भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने के लिए सबसे बड़ी पहल अपने से शुरू करनी होती है। खुद के अंतर्मन को स्वच्छ रखना होगा। संसारभर में जीवों की 84 लाख योनियों में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। ईश की सृष्टि में, ईश के विधान में इसे व्यवधान डालने का अधिकार नहीं है। आज का मानव मूल्यों के विपरीत चल रहा है। इसलिए आज विश्व में चहुँओर भ्रष्टाचार का आतंक और नकारात्मकता व्याप्त है । तब मनुष्य के जमीर में सत्प्रवृत्तियों के वास होने से भ्रष्टाचार की समस्या स्वतः समाप्त हो जाएगी। मानवीय मूल्यों पर आधारित मेरी किताब 'संगम' सौ प्रतिशत भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने के लिए कारगार साबित हो सकती है। बस जरूरत है इन नैतिक मूल्यों का आचरण में लाने की। इसकी ताजा मिसाल हैं -- मिसाइलमैन हमारे राष्ट्रपति महामहिम स्व0 ए पी जे अब्दुल कलाम । भगवान बुद्ध और डाकू अंगुलिमाल की प्रेरणाप्रद कहानी, जो अमानवीयता के अंतर्मन को मानवीयता में परिवर्तन करने की पहल है। मेरी कलम की उर्जावान शक्ति के ज्ञानदीप किताबें इन्हीं मूल्यों से समाज में उजास भर रही हैं। पतित मानवता को मानवीय संवेदनाओं से, उसे जागरूक करके ही इस भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सकते हैं। भ्रष्टाचार तो लालच का पर्याय है। उक्ति भी है- 'लालच बुरी बला है' ! संकल्प लेकर समाज , राष्ट्र के हर व्यक्ति निस्वार्थता से अपने काम की जिम्मेदारी निभाए, हम मूल्यों की आचारसंहिता अपनाकर ही भ्रष्टाचारमुक्त समाज और टिकाऊ राष्ट्र बनाने में कारगार साबित हो सकते हैं।
प्र.(10.)इस कार्य के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे से इतर किसी प्रकार के सहयोग मिले या नहीं ? अगर हाँ, तो संक्षिप्त में बताइये ।
उ :- नहीं ! कोई आर्थिक सहयोग नहीं मिला। हाँ, सरकारी पत्रिकाओं से ही रचनाएँ प्रकाशन पर मानदेय मिलता है। बाकी तो चेरिटी के रूप में मेरी रचनाएँ प्रकाशित होती हैं। इस बहाने मैं राष्ट्रभाषा हिन्दी और हिंदी साहित्य की सेवा कर रही हूँ। हिदी दिवस पर जज की भूमिका निभाती हूँ , तो कहीं पर मुख्य अतिथि बनकर भी।
प्र.(11.)आपके कार्य क्षेत्र के कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी धोखा, केस या मुकद्दमे की परेशानियां झेलने पड़े हों ?
उ:-जी, दोष बिल्कुल नहीं है, लेकिन विसंगतियां के अपवाद भी हैं । इस क्षेत्र में उतरे विद्वान लेखकों को जागरूक होना पड़ेगा । मैं एक वाकया से नए लेखकों की आँखें खोल देना चाहती हूँ कि जब मैंने अपनी पुस्तक खण्ड काव्य 'सृष्टि' के संपादन की जिम्मेवारी पहचान के संपादक को दी । वे भी लेखक और प्रोफ़ेसर हैं । जब मैं इस किताब का अंतिम रूप यानी फाइनल प्रूफ देखने के लिए प्रकाशक के यहाँ गयी तो कम्प्युटर पर संपादक जी ने मेरे नाम के ऊपर अपना नाम रचनाकार लिख कर डाल दिया। दिन दहाड़े इस छल के अँधेरे को देखकर मन ही मन में दुःख के साथ गुस्सा भी आया कि दोगले नकाबपोश लोगों की मानसिकता की विसंगतियों से समाज पीड़ित हैं। फिर मैंने प्रकाशक जी को उनका नाम दिखाते हुए पूछा - 'इस किताब पर रचनाकार का नाम उनका क्यों है ? किताब प्रकाशित कराने का रुपये कौन दे रहा है ?'
तो प्रकाशक ने कहा - 'उन्होंने ही अपना नाम लिखने को कहा था। रूपये तो आप दे रही हैं।'
फिर मैंने उनका नाम हटवाने कहा । अगर चेक करने नहीं जाती, तो वे भी उस किताब में ज़िंदा रहते ! इस अनुभव ने मुझे बहुत कुछ सीखा दिया। फिर दोगली मानसिकता पर रचना भी लिख दी। अंततः, मैंने उन्हें माफ़ भी कर दी । ग़ालिब का शे'र है --
'रास्ता अपना आसान करता चला गया ,
किसी को माफ़ कर दिया, किसी से माफ़ी मांग ली।'
प्र.(12.)कोई किताब या पम्फलेट जो इस सम्बन्ध में प्रकाशित हो, तो बताएँगे ?
उ:-जी हाँ ! मेरी अब तक की लेखन यात्रा में 8 किताबें प्रकाशित हो गयीं हैं:-
कृतियाँ :-
प्रांत पर्व पयोधि ( काव्य) ,दीपक (नैतिक बाल कहानियाँ) ,सृष्टि (खंडकाव्य) ,संगम ( मानवीय मूल्यों का काव्य ), अलबम ( नैतिक कहानियाँ ) , भारत महान (बालगीत ) सार ( निबंध संग्रह ) ,परिवर्तन ( कहानियाँ ) ।
अन्य रचनाएँ:-
आधी आबादी का आकाश , सरस्वती पत्रिका , समाज कल्याण, हिमप्रस्थ , नव किरन साहित्यकुंज , वार्ष्णेय दर्पण , न्यु मिलिनम इत्यादि ।
देश - विदेश की पत्र - पत्रिकाओं में:-
E- पत्रिका मातृ भारती , हिन्द युग्म , अंतर्जाल अनुभूति और कई स्थापित समाचरपत्रों, जैसे- नवभारत टाइम्स , नव भारत , दोपहर का सामना , राष्ट्र विचार , दैनिक जागरण , वाशी टाइम्स , टीविन सिटी , महानगरी , ज्योतिष विज्ञान , वास्तु शास्त्र , मेराईन शिक्षक मैगजीन , ज्योति, मुम्बई से प्रकाशित साहित्यकारों की पुस्तक हास्य कवि स्व0 रामरिख मनहर जी की 'मंगल दीप' इत्यादि ।
प्रेस में अभी:-
तीर्थ यात्रा की सृष्टि ( आत्म - कथा ) जज्बा ( देश भक्ति गीत ) है ।
प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उ:- मेरे लेखन कार्य को समाज और संस्थाओं ने सराहा । जिसकी परिणिति के रूप में सम्मान / पुरस्कार हैं --
बचपन में ऋषिकेश में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा . राजेन्द्र प्रसाद जी से भेंट , राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जी , अटल बिहारी बाजपई जी की शुभकामनाएं मिली हैं । नवी मुंबई के श्री गणेश नाईक मंत्री , श्री स्व . प्रकाश परांजपे , म्हाडा अध्यक्ष मधु चव्हाण , गृह राज्य मंत्री कृपा शंकर , महापोर , उपमहापोर अविनाश लाड ने सम्मानित किया है ।
मेरी उपलब्धियां समेटे सकारात्मक रचना संसार है । समस्त भारत की विशेषताओं को प्रांतपर्व पयोधि में समेटनेवाली प्रथम महिला कवयित्री हूँ । गोधरा जब जला था, तब मुंबई दूरदर्शन से सांप्रदायिक सद्भाव पर कवि सम्मेलन में सहभाग रही हूँ । गांधी जीवन शैली निबंध स्पर्धा में तुषार गांधी द्वारा विशेष सम्मान से सम्मानित हुईं । माडर्न कॉलेज वाशी द्वारा सावित्री बाई फूले पुरस्कार से सम्मानित, भारतीय संस्कृति प्रतिष्ठान द्वारा प्रीत रंग में स्पर्धा में पुरस्कृत, आकाशवाणी मुंबई से कविताएँ प्रसारित , विभिन्न व्यंजन स्पर्धाओं में पुरस्कृत, मुंबई दूरदर्शन पर अखिल भारतीय कविसम्मेलन में सहभाग । आशीर्वाद , मुंबई द्वारा अखंड कवि सम्मेलन में सहभागी ।
वार्ष्णेय चेरिटेबल ट्रस्ट नवी मुंबई , एकता वेलफेयर असोसिएन नवी मुंबई , मैत्री फाउंडेशन विरार , के .जे . सौमेया , विद्याविहार , कन्नड़ समाज संघ , राष्ट्र भाषा महासंघ मुंबई, प्रेक्षा ध्यान केंद्र , नवचिंतन सावधान संस्था मुंबई कविरत्न से सम्मानित , हिन्द-युग्म यूनि पाठक सम्मान , राष्ट्रीय समता स्वतंत्र मंच दिल्ली द्वारा महिला शिरोमणी अवार्ड के लिए चयन, अग्नि शिखा मंच सम्मान , मुंबई , वार्ष्णेय सभा मुम्बई इत्यादि । उत्तर प्रदेश की जूनियर स्तर की खेल प्रतियोगिता में टू स्टार से भी सम्मानित हुई हूँ ।
प्र.(14.)आपके कार्य मूलतः कहाँ से संचालित हो रहे हैं तथा इसके विस्तार हेतु आप समाज और राष्ट्र को क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उ:- जी मेरा स्थाई निवास वाशी नवी मुंबई में है। जिसमें मैं और मेरे कमरे में अपने लेखन कार्य को कम्प्यूटर , मोबाइल फोन से ऑनलाइन लेखनकार्य संचालित करती हूँ । अंतर्जाल में E-पत्रिकाओं जैसे अनुभूति , साहित्यपीडिया , प्रतिलिपि, प्रयास इत्यादि में मन की अनुभूतियों की रचनाओं को यहाँ विस्तार मिलता है। कविसम्मेलन , काव्य गोष्ठियां , साहित्यकारों के विमोचित पुस्तको के लेखन से संपर्क के दायरे को बढ़ाते हैं। प्रतिभा को आगे बढ़ाने की कोई उम्र नहीं होती है। हर बच्चा , हर व्यक्ति ईश्वरीय उपहार होता है। जरूरत है, हमको उनमें आत्मविश्वास जगाने का है। आज विश्व का चौथा स्तम्भ मीडिया तो अपनी बात को दुनिया में पहुँचाने का सशक्त माध्यम है। बच्चों के, समाज, राष्ट्र का भविष्य बनाने के लिए किसी को प्राथमिकता देनी होगी। शिक्षा की आजादी के साथ सोच की भी आजादी हो। मेहनत , ईमानदारी , प्रेम , करुणा , अहिंसा के पाठ को जीवन में उतारना होगा। तभी अमन - चैन की दुनिया बना सकते हैं।
मेरे अनुसार --
जब मन ने ठान लिया
ऊँची उड़ान भरने का
तब हौसलों के पंखों से
आसमान छूना आसान है।
एक कदम सही उठाएं तो
दूसरा कदम सही उठाता है
बेटी बचाओ बेटी पढाओ , बेटी को आगे बढ़ाओ का नारा बुलंद करती हुई रचना -
दुर्गा - सी देश की बेटियाँ
अवनि , मोहना , भावना
थाम वायु सेना की कमान
गले लगा रहीं हैं वे
आजादी का जहान।
जब समता का आसमान , धूप , वर्षा बिना भेदभाव के जग को लुटाता है, तब लैंगिक भेदभाव क्यों है ? मैं तो भेदभाव को नहीं जानती हूँ। मैनें अपनी दोनों बेटी को डाक्टर बनाई । आज वे परिवार , समाज , देश की सेवा कर रही हैं, यथा:-
गौरव जननी का होता कोख से
जब एक कोख से जन्मते बेटा-बेटी
फिर लैंगिक भेदभाव करते क्यों ?
माँ को ईश का दीदार होता कोख से।
जिन्दगी की ऐसी किताब बनाओ
जिसका हर पन्ना हर कोई पढ़े।
आप यू ही हँसते रहे, मुस्कराते रहे, स्वस्थ रहे, सानन्द रहे ----- 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' की ओर से सहस्रशः शुभ मंगलकामना ।
नमस्कार दोस्तों !
मैसेंजर ऑफ़ आर्ट' में आपने 'इनबॉक्स इंटरव्यू' पढ़ा । आपसे समीक्षा की अपेक्षा है, तथापि आप स्वयं या आपके नज़र में इसतरह के कोई भी तंत्र के गण हो, तो हम इस इंटरव्यू के आगामी कड़ी में जरूर जगह देंगे, बशर्ते वे हमारे 14 गझिन सवालों के सत्य, तथ्य और तर्कपूर्ण जवाब दे सके !
हमारा email है:- messengerofart94@gmail.com
बहुत खूब ।
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