साहित्यिक दुनिया अथवा लेखन -विधा अप्रतिम त्याग लिए है, किंतु कभी -कभी हनुमान -कूद वाले लेखक भी अपनी प्रथम रचना के दम पर ही चर्चित -बहुचर्चित हो जाते हैं ! पांडुलिपि की क्वालिटी और प्रकाशकों के वरदहस्त पाकर जब कोई अनाम लेखक बड़े प्रकाशक से प्रोत्साहन पाते हैं और छप भी जाते हैं, तो पाठकों को ऐसे लेखकबंधु के साथ हतोत्साहन रवैये नहीं अपनाने चाहिए । हालाँकि ऐसे लेखकों को भी न तो हवाई उड़ान भरने चाहिए और न ही बड़प्पनवाले सपने देखने चाहिए । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, हिंदी के बेस्टसेलर उपन्यास 'ज़िन्दगी 50-50' की समीक्षा ! कोई उपन्यास आज के हाइटेक युग में इतनी जल्दी कैसे बेस्टसेलर बन जाती है, ये बातें कितने ही राइटर्स को पच नहीं पा रही हैं, लेकिन सच्चाई यही है और यह उपन्यास सच में आधी ज़िन्दगी और आधे अफ़साने लिए है । उपन्यासकार श्रीमान भगवंत अनमोल ने सराहनीय प्रयास किया है, आइये पढ़िए.... इस और उस ज़िन्दगी के बारे में......
मैं नास्तिकता का अखंड जाप करता इंसान हूँ । सीधा अर्थ है, चीजों को परखने, जाँचने के बाद ही मैं उसपर विश्वास करता हूँ । चाहे इंसान के जन्म होने में भगवान पर ही दोषारोपण क्यों ना हो कि कोई क्यों काले, राधा क्यों है गोरी ? .....या किसी अन्य चीजों के उदय या अस्त होने प्रसंगश: दोषारोपित ही क्यों न हो ?
ज़िन्दगी '50-50' !
अनोखा.... और ईमानदार प्रयास ! बेहद सार्थक !!
यह भगवंत अनमोल साहब के उपन्यास का नाम है । इस किताब को जिस वक्त मंगाया था, तो यह दिखने में बेहद मामूली किताब लगती थी, लेकिन मैंने जब इसे पढ़ना शुरू किया, तो यह 'बेस्टसेलर' लिस्ट में आ चुका था ।
जैसा कि उपन्यास का नाम धुंधलका-महक लिए है । कहानी के प्लाट के बारे में उपन्यास की गाथा और लेखनी से निःसृत विदग्धता अच्छी है या बुरी.... यह मैं आगे बताऊंगा, लेकिन उपन्यास के आवरण पृष्ठ पर रेखांकित फ़ोटो में लेखक भगवंत अनमोल स्वयं ही है, जो बेहद प्रेरक लगती है । समीक्षा करने से पहले मैं एक कहानी सुनाता हूँ, जिसकी अर्थ -तार्किकता मेरे जीवन और सम्प्रति उपन्यास पर कटु प्रहार करने जैसे है ।
बात तब की है, जब न तो अधिक ठंढक थी, न ही कम । वह फरवरी का महीना था और तारीख थी 14 फरवरी यानी वैलेंटाइन डे और मेरा वैलेंटाइन डे उस वर्ष 'थर्ड जेंडर' के साथ रहा । अरे ! हाँ दोस्तों !! गलत मत सोचिये । दरअसल हुआ यह कि BPSC आयोजित 60वीं से 62वीं सिविल सर्विसेज (पी.टी.) देकर लौट रहा था मैं, ट्रेन से ।
....सुबह मेरी नींद 'तालियों की आर्द्र थपथपाहट' से खुली और जब कान सजग हुई, तो 'तालियों' की धमक मेरे बोगी तक आ धमके थे । ज्यों मैंने आंखों की झिर्री से देखा तो वो किन्नर थे, समूह में थे और यात्रियों से रुपये-पैसे वसूले जा रहे थे । किन्नर को आम -फ़हम हिजड़े कहा करते हैं, जो कि अब सरकारी भाषा में थर्ड जेंडर व तृतीय लिंग नाम से संबोधित हैं ।
मुझे लगा कि रुपये देने ही पड़ेंगे, एक तो पास रुपये कम थे, दूजे माँगने के तरीके अज़ब, तीज़े सुबह की उनींदी बेला, सो 'सोने का नाटक' करने लगा और इस सोने के उपक्रम के बीच सोचने लगा.... किसी अंग में विकृति ही तो विकलांगता व दिव्यांगता है । जब दिव्यांगजन एक से बढ़कर एक कार्य करने के बाद ही भोजन ग्रहण करते हैं, तो ऐसे धंधे कर पेट भरना क्यों ? जब किन्नर बंधु विधायक तक बन गए हैं, तो अपनी क्षमता को वे देशसेवा के लिए समर्पित क्यों नहीं करते ! ट्रेनों में इसतरह से रुपये -पैसे वसूलना, जबरन उगाही है, जो भीख माँगने से भी घृणित से भी घृणित है ! मैं इस शैली को आजीविकोपार्जन नहीं मानता ! वे यदि उच्च शिक्षा ग्रहण करें, तो उनकी बेरोजगारी भी दूर हो सकती है !
मैंने आँखों की झिर्री से देखा, तो वे सब मिडिल बर्थ से रूपया मांग रहे थे और अचानक ही उनमें से एक किन्नरबंधु ने मिडिल बर्थ वाले के 'प्राइवेट पार्ट' को पकड़ कहने लगा-- "ऐ जीजा ! देही न कुछ रुपया !" बावजूद मिडिल बर्थ वाले टस से मस नहीं हुए ।
चूंकि किन्नरबंधुओं के द्वारा मेरी नाटकीय -सुताई को भांपा चला गया था, तो वो मेरे गाल उमेठते हुए और 'अपने अमूल्य वचनों' से मुझे इस तरह पुचकारने लगे-- "ऐ मेरे सोना, मेरे राजा ! दे द न कुछ रुपा ! ....तोर गाल कितना चिकन है, बड़ क्विट है मोर राजा ... ।" फिर मेरे गालों को छूने लगे, उमेठने लगे, तब मैंने टोका-- "आगे बढिए न !" वे सब आगे नहीं बढ़े, तब मैं सोचने लगा... अगर कुछ नहीं दिया, तो वे सब अपने -अपने हाथ को मेरे भी प्राइवेट पार्ट तक न पहुँचा दे ! लेकिन तब तक मेरी दीदी जो मेरे साथ थी तथा वो भी मेरी तरह परीक्षार्थी थी, उन्होंने इससे निज़ात पाने के सोद्देश्य अपनी पर्स से ₹20 निकालकर दे दी, क्योंकि मेरी दीदी को किसी के द्वारा इस छुटकू भाई के गाल छुआ जाना पसंद नहीं है !
रुपये प्राप्त करने के बाद वे सब मुझे 'हैप्पी वेलेंटाइन डे' भी कहते गए । तब ही मुझे याद आया..... । ..... ओह ! आज वेलेंटाइन दिवस है ।
काश ! कोई उन किन्नरबन्धुओं के काम-पीड़ा भी समझ पाते !
लेकिन इस घटना के बाद मैं उनके दर्द को समझने लगा था।
मैंने इन लोगों के लिए सोशल मीडिया पर एक दिन 3rd जेंडर के लिए भी (महिला दिवस , पुरूष दिवस की भाँति) होने को लेकर एक अभियान चला रखा है, लेकिन लोगों का साथ ज़िंदगी 50-50 की तरह इन किन्नरों के साथ सिर्फ शारिरिक क्षुद्धा शांत करने को रह जाती है ।
ज़िन्दगी 50-50 की कहानी सूर्योदय से शुरू होती हैं, लेकिन सूर्यास्त होते-होते कहानी '28' साल की हो जाती है । यह कहानी पिताजी की इज्ज़त, माँ की ममता, भाभी का प्यार से गुजरते -गुजारते कब 'हमारे' समाज की सोच पर चोट कर डालते हैं, मालूम नहीं चलता ! ..... लेकिन पेज नंबर 180 से लेखक के रहस्य का रोमांच उभरने लगता है ।
कहानी दो ऐसे पुत्र का है, जिनमें एक अपरिपक्व शिश्न के कारण समाज से बाहर कर दिए जाते हैं, न किसी मजबूरी कारण और न किसी के धक्कों के कारण, बल्कि यह होता है, एक निम्नतम सोच के कारण ! लेखक ने यहाँ नायक के रूप में अपने नाम को ही डाला है, जो मन को उधेड़बुन में डालता है ।
कहानी आगे बढ़ते जाती हैं और नायक के यादों से नई -नई कड़ी खुलती चली जाती हैं कि बिना कंडोम 'सेक्स' का अनंतिम अहसास का फायदा 28 साल बाद किन दर्दों में विचरती है, वो हमारे सामने आती चली जाती हैं, हमें मालूम पड़ते चले जाता है । यादें डायरी के रूप में इतनी गहरी हो जाती है कि नायक के बेटे भी समाज से लड़ते-लड़ते 'शिश्न' से हारा इंसान बन जाता है और सायास जासूस बनते -बनते अपने पिता के 'अनाया' भरी दर्द की गुत्थी को सुलझा नहीं पाते है कि हर्षा आखिर क्यों हर्षिता बन जाती हैं ?
कहानी हमें बाँधी रखती है, लेकिन अगर सामान्य लोगों द्वारा ऐसे लोगों के प्रति थोड़े भी दया पनपाए, तो लेखक की लेखनी से निकली शहदिया वमन भी वमन होकर अमृतमयी शहद कहलाएगी ! ..... लेकिन मैं यह काहना चाहूंगा कि इन दोस्तों के लिए भी एक दिवस उनके लिए निश्चितश: हो !
यदि आप इसके पक्ष में हैं तो मुझे नहीं बल्कि इन्हें सपोर्ट कीजिये !
#1डे_किन्नर_दिवस ।
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
मैं नास्तिकता का अखंड जाप करता इंसान हूँ । सीधा अर्थ है, चीजों को परखने, जाँचने के बाद ही मैं उसपर विश्वास करता हूँ । चाहे इंसान के जन्म होने में भगवान पर ही दोषारोपण क्यों ना हो कि कोई क्यों काले, राधा क्यों है गोरी ? .....या किसी अन्य चीजों के उदय या अस्त होने प्रसंगश: दोषारोपित ही क्यों न हो ?
ज़िन्दगी '50-50' !
अनोखा.... और ईमानदार प्रयास ! बेहद सार्थक !!
यह भगवंत अनमोल साहब के उपन्यास का नाम है । इस किताब को जिस वक्त मंगाया था, तो यह दिखने में बेहद मामूली किताब लगती थी, लेकिन मैंने जब इसे पढ़ना शुरू किया, तो यह 'बेस्टसेलर' लिस्ट में आ चुका था ।
जैसा कि उपन्यास का नाम धुंधलका-महक लिए है । कहानी के प्लाट के बारे में उपन्यास की गाथा और लेखनी से निःसृत विदग्धता अच्छी है या बुरी.... यह मैं आगे बताऊंगा, लेकिन उपन्यास के आवरण पृष्ठ पर रेखांकित फ़ोटो में लेखक भगवंत अनमोल स्वयं ही है, जो बेहद प्रेरक लगती है । समीक्षा करने से पहले मैं एक कहानी सुनाता हूँ, जिसकी अर्थ -तार्किकता मेरे जीवन और सम्प्रति उपन्यास पर कटु प्रहार करने जैसे है ।
बात तब की है, जब न तो अधिक ठंढक थी, न ही कम । वह फरवरी का महीना था और तारीख थी 14 फरवरी यानी वैलेंटाइन डे और मेरा वैलेंटाइन डे उस वर्ष 'थर्ड जेंडर' के साथ रहा । अरे ! हाँ दोस्तों !! गलत मत सोचिये । दरअसल हुआ यह कि BPSC आयोजित 60वीं से 62वीं सिविल सर्विसेज (पी.टी.) देकर लौट रहा था मैं, ट्रेन से ।
....सुबह मेरी नींद 'तालियों की आर्द्र थपथपाहट' से खुली और जब कान सजग हुई, तो 'तालियों' की धमक मेरे बोगी तक आ धमके थे । ज्यों मैंने आंखों की झिर्री से देखा तो वो किन्नर थे, समूह में थे और यात्रियों से रुपये-पैसे वसूले जा रहे थे । किन्नर को आम -फ़हम हिजड़े कहा करते हैं, जो कि अब सरकारी भाषा में थर्ड जेंडर व तृतीय लिंग नाम से संबोधित हैं ।
मुझे लगा कि रुपये देने ही पड़ेंगे, एक तो पास रुपये कम थे, दूजे माँगने के तरीके अज़ब, तीज़े सुबह की उनींदी बेला, सो 'सोने का नाटक' करने लगा और इस सोने के उपक्रम के बीच सोचने लगा.... किसी अंग में विकृति ही तो विकलांगता व दिव्यांगता है । जब दिव्यांगजन एक से बढ़कर एक कार्य करने के बाद ही भोजन ग्रहण करते हैं, तो ऐसे धंधे कर पेट भरना क्यों ? जब किन्नर बंधु विधायक तक बन गए हैं, तो अपनी क्षमता को वे देशसेवा के लिए समर्पित क्यों नहीं करते ! ट्रेनों में इसतरह से रुपये -पैसे वसूलना, जबरन उगाही है, जो भीख माँगने से भी घृणित से भी घृणित है ! मैं इस शैली को आजीविकोपार्जन नहीं मानता ! वे यदि उच्च शिक्षा ग्रहण करें, तो उनकी बेरोजगारी भी दूर हो सकती है !
मैंने आँखों की झिर्री से देखा, तो वे सब मिडिल बर्थ से रूपया मांग रहे थे और अचानक ही उनमें से एक किन्नरबंधु ने मिडिल बर्थ वाले के 'प्राइवेट पार्ट' को पकड़ कहने लगा-- "ऐ जीजा ! देही न कुछ रुपया !" बावजूद मिडिल बर्थ वाले टस से मस नहीं हुए ।
चूंकि किन्नरबंधुओं के द्वारा मेरी नाटकीय -सुताई को भांपा चला गया था, तो वो मेरे गाल उमेठते हुए और 'अपने अमूल्य वचनों' से मुझे इस तरह पुचकारने लगे-- "ऐ मेरे सोना, मेरे राजा ! दे द न कुछ रुपा ! ....तोर गाल कितना चिकन है, बड़ क्विट है मोर राजा ... ।" फिर मेरे गालों को छूने लगे, उमेठने लगे, तब मैंने टोका-- "आगे बढिए न !" वे सब आगे नहीं बढ़े, तब मैं सोचने लगा... अगर कुछ नहीं दिया, तो वे सब अपने -अपने हाथ को मेरे भी प्राइवेट पार्ट तक न पहुँचा दे ! लेकिन तब तक मेरी दीदी जो मेरे साथ थी तथा वो भी मेरी तरह परीक्षार्थी थी, उन्होंने इससे निज़ात पाने के सोद्देश्य अपनी पर्स से ₹20 निकालकर दे दी, क्योंकि मेरी दीदी को किसी के द्वारा इस छुटकू भाई के गाल छुआ जाना पसंद नहीं है !
रुपये प्राप्त करने के बाद वे सब मुझे 'हैप्पी वेलेंटाइन डे' भी कहते गए । तब ही मुझे याद आया..... । ..... ओह ! आज वेलेंटाइन दिवस है ।
काश ! कोई उन किन्नरबन्धुओं के काम-पीड़ा भी समझ पाते !
लेकिन इस घटना के बाद मैं उनके दर्द को समझने लगा था।
मैंने इन लोगों के लिए सोशल मीडिया पर एक दिन 3rd जेंडर के लिए भी (महिला दिवस , पुरूष दिवस की भाँति) होने को लेकर एक अभियान चला रखा है, लेकिन लोगों का साथ ज़िंदगी 50-50 की तरह इन किन्नरों के साथ सिर्फ शारिरिक क्षुद्धा शांत करने को रह जाती है ।
ज़िन्दगी 50-50 की कहानी सूर्योदय से शुरू होती हैं, लेकिन सूर्यास्त होते-होते कहानी '28' साल की हो जाती है । यह कहानी पिताजी की इज्ज़त, माँ की ममता, भाभी का प्यार से गुजरते -गुजारते कब 'हमारे' समाज की सोच पर चोट कर डालते हैं, मालूम नहीं चलता ! ..... लेकिन पेज नंबर 180 से लेखक के रहस्य का रोमांच उभरने लगता है ।
कहानी दो ऐसे पुत्र का है, जिनमें एक अपरिपक्व शिश्न के कारण समाज से बाहर कर दिए जाते हैं, न किसी मजबूरी कारण और न किसी के धक्कों के कारण, बल्कि यह होता है, एक निम्नतम सोच के कारण ! लेखक ने यहाँ नायक के रूप में अपने नाम को ही डाला है, जो मन को उधेड़बुन में डालता है ।
कहानी आगे बढ़ते जाती हैं और नायक के यादों से नई -नई कड़ी खुलती चली जाती हैं कि बिना कंडोम 'सेक्स' का अनंतिम अहसास का फायदा 28 साल बाद किन दर्दों में विचरती है, वो हमारे सामने आती चली जाती हैं, हमें मालूम पड़ते चले जाता है । यादें डायरी के रूप में इतनी गहरी हो जाती है कि नायक के बेटे भी समाज से लड़ते-लड़ते 'शिश्न' से हारा इंसान बन जाता है और सायास जासूस बनते -बनते अपने पिता के 'अनाया' भरी दर्द की गुत्थी को सुलझा नहीं पाते है कि हर्षा आखिर क्यों हर्षिता बन जाती हैं ?
कहानी हमें बाँधी रखती है, लेकिन अगर सामान्य लोगों द्वारा ऐसे लोगों के प्रति थोड़े भी दया पनपाए, तो लेखक की लेखनी से निकली शहदिया वमन भी वमन होकर अमृतमयी शहद कहलाएगी ! ..... लेकिन मैं यह काहना चाहूंगा कि इन दोस्तों के लिए भी एक दिवस उनके लिए निश्चितश: हो !
यदि आप इसके पक्ष में हैं तो मुझे नहीं बल्कि इन्हें सपोर्ट कीजिये !
#1डे_किन्नर_दिवस ।
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
बेहतरीन पुस्तक है और उतनी ही बेहतर समीक्षा की गई है।
ReplyDeleteशुक्रिया।
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