आज कुछ प्रकाशक जहां नये और युवा प्रतिभा को साहित्य में लाने के प्रयास कर रहे हैं, वहीं कुछ प्रकाशक सिर्फ बड़े लेखकों की प्रतिभा को ही जगतप्रसिद्ध करते व कराते दिखते हैं । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, सुश्री सुरभि सिंघल की नवोदित उपन्यास "फीवर 104°F" की समीक्षा, जो कि यादों के गलियारों से गुजरते हुए 'मौत' की विषवमनी गलियारे तक पहुंच जाती हैं । हाल-फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु को संवैधानिक करार देकर चोरी छिपे हत्या व आत्महत्या को रोकने का प्रयास किया है और इसे नीतिगत बनाया है । प्रस्तुत उपन्यास में प्यार में अमर्यादित होकर इंसान कैसे मौत को गले लगा बैठते हैं, यह दिखाया गया है । आइये पढ़ते हैं, सच्ची कहानी की सच्ची समीक्षा ...
फीवर 104°F उपन्यास पढ़ा ।
उपन्यास 'फ़ीवर 104°F' की प्रथम पृष्ठोल्लिखित 'विशेष आभार' ही कहानी की रूपरेखा को तय कर देती है । उपन्यास के 200 पेजेज हमें पकाती भी हैं, तो हँसाती भी हैं, लेकिन गर्ल्स हॉस्टल की ज़िन्दगानी जहां नई लगती है, वहीं इंजीनियरिंग कॉलेज के दिनों की मुझे भी याद दिला देती है, परंतु इश्क का यह फीवर उपन्यास में सिर्फ़ 'मिल्की मिस्ट्री' चैप्टर में दिखती है । कहानी तीन रूम पार्टनर्स से शुरू होकर कब 4 रूममेट्स तक पहुंचते - पहुंचते और कॉलेज से गुजरते- गुजरते 'लेस्बो' तक पहुंचकर ठहर जाती है, परंतु पाठकगण मदहोश न हो जाए, इसलिए कहानी अलग मोड़ से मुड़ अन्य राह पकड़ती और भटकती नजर आती है ।
कहानी लड़कपन में ही बिगड़े 'एक लड़का' द्वारा लड़की केे साथ की 'नाईट स्टे' की पीड़ा को भी व्यक्त करती है, तो लेखिका सुश्री सुरभि सिंघल ने लड़कियों की एकांत पीड़ा को उठाने की हिम्मत दिखाकर समाज के पुरुष ठेकेदारों पर अच्छी- खासी व्यंग्य की है, परंतु कहानी की व्याकरणिक विवेक और शब्दों की सटीकता को सही जगह इस्तेमाल करने में कमजोर दिखती है, सुरभि जी !
प्रस्तुत उपन्यास में ढेर सारे फीवरों के जिक्र हुए हैं, लेकिन 'मिस कॉल' जैसी खिलंदड़ हरकतें लड़कियां भी करती हैं, वह ऐसा बताना नहीं भूलती ! पर ज़िंदगी किसी भी रिजल्ट्स के नाम से किस तरह बौखला जाती है, यह बात आमफ़हम न होकर खास बन जाती है-- ऐसे तथ्यों को नज़रअंदाज़ भी नहीं किया गया है।
औपन्यासिक पाठों में किशोर पाठकगण को शब्दों को समझने में दिक्कत आ सकती हैं, लेकिन होस्टल की रंगरेलियों को बियर के साथ लड़कियों द्वारा यूँ पी जाना, 21 वीं सदीं से भी आगे ले जाती है और युवकों के तन-बदन को आग लगा देती है । होस्टल की यादें कब पीछे छूटती हुई एग्जाम का प्रेशर बन जाती है, मालूम ही नहीं चलता ! परंतु कहानी खत्म होते-होते रुलाने को विवश कर देती है और तब बन जाते हैं.... बेबस !
प्रस्तुत उपन्यास ग्रेजुएट होने की कहानी है । पाठकों को यह पसंद भी आयेगी और नापसंद भी, पर नायिका को नायक का इस तरह गूगलिंग- व्यवहार होना उन्हें हँसाती जरूर है, क्योंकि उस नायक में मुझे अपना अक्स नजर आता है । .... और खो जाता हूँ, इसी उधेड़बुन में .... कहानी की नायिका की भाँति मेरी नायिका भी शायद ऐसी ही होगी.... सोच कर मन पुलकित हो जाता है और रोम- रोम सिहर जाता है !
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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