'इंजीनियरिंग स्टडी'और प्यार साथ-साथ चलता है, B.Tech. कोर्स पूर्ण होने के बाद फैशन की भाँति प्रेमिका छोड़ देती हैं और प्रेमी इंजीनियर अधूरे प्यारनामा को लिखने बैठ जाते हैं । आजकल यही हो रहा है । कथित नई हिंदी और उनसे जुड़े अफ़सानेकार वही तो कर रहे हैं । अंग्रेजी में चेतन भगत, तो हिंदी में कई हैं, कथित बेस्ट सेलिंग में शामिल हैं, लेकिन ईमानदार बनना और ईमानदारी को कोई भी अपना फैशन और पैशन नहीं बनाना चाहते हैं ! वक़्त के लेर-फ़ेर में लोग इतने आगे निकल गए हैं कि उनकी सोच 'टाइम मशीन' को भी फेल कर देती है । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, होरी (होली) के रंगों के बीच श्रीमान आलोक कुमार का उपन्यास the चिरकुट्स की बेबाक समीक्षा ......
'the चिरकुट्स' !
यही नाम है, किताब का, कथित नई वाली हिंदी घोलित उपन्यास का ।
जिसे पढ़ने में मुझे 46 मिनट और 26 सेकंड लगे, लेकिन इस किताब को लिखने में लेखक को 30 दिन लगा था, उस हिसाब से पढ़ने का स्पीड 'फास्ट' नहीं कहा जा सकता ! हाँ, मुझ इंजीनियर तक पहुँचने में इसे 365 दिन लगा और समीक्षा करने में ....!
आपको ऐसा लग रहा होगा कि इस किताब को मुझतक पहुंचने में साल भर कैसे और क्योंकर लग गया ? चलिए आते हैं, उसी मुद्दे पर !
यह किताब 31.12.17 की शाम को मैंने ऑर्डर किया था, लेकिन डिलीवरी बॉय की गलतियों के कारण 19.01.18 को मिला ! पर कहते हैं न --'देर आये, दुरस्त आये'!
सुबह 11बजे कुरियर बॉय से बुक रिसीव किया और दुपहरिया 2 बजे से पढ़ना स्टार्ट किया... लेखक श्रीमान आलोक कुमार को अपनी कथा का प्लॉट (पटकथा ) तैयार करने में 4 साल तो लगे ही होंगे, क्योंकि कहानी ही ऐसी है, किंतु 'the चिरकुट्स' की 139 पेजेज को इस मेकैनिकल इंजीनियर द्वारा पढ़ने में मात्र 46 मिनट और 26 सेकंड लगे !
इतनी जल्दी किताब पढ़कर 'लेखक' के लेखनी का आदर किया ? किंतु इसे अनादर करना बिल्कुल नहीं कहा जा सकता ! परंतु शायद ही इनका जवाब श्रीमान आलोक साहब मुझे दे पाये !
कहानी की शुरुआत तो रहस्य से शुरू होती है, लेकिन पढ़ने में मज़ा 96 पेज के बाद ही आती है, क्योंकि इस बीच यानी 95 पेजेज तक इंजीनियरिंग कॉलेज की कभी न सुलझनेवाली गाथायें हैं, जिन्हें अभी तक के सभी इस टाइप्ड कथाकारों ने अपनी कहानियों में जरूर जगह देते रहे हैं !
कहानी सुपरसोनिक स्पीड से आगे बढ़ती हैं, जहाँ '4' चिरकुट्स की कथा उफनती हैं और रैगिंग की घटनाएं सीनियर्स से निकलते हुए कब आगे बढ़ 'सैंडी' के प्यार में उलझ जाती है, मालूम ही नहीं चलती, लेकिन 'एडी' की फिलोसोफी 'प्यार के वायरस' को रोक नहीं पाती है, परंतु इंजीनियरों की ऐसी ज़िन्दगीनामा उनके नामों को जरूर बदल देते हैं !
पेजेज बढ़ने की रफ़्तार तेज़, the एंड के करीब... मोती जुड़कर कब 'माला' बन जाती है, लेकिन यह 'माला' क्या 'माला-डी' बन पाती है !
कहानी यहां से पाठकों को अब तो और उलझाये रखती है, क्योंकि यहां से शुरू होती है... चिरकुट्स नायक की अजीबोगरीब लव-मारे-चांस-स्टोरी ! क्या नायक लव को सक्सेस कर पायेंगे ? क्या वे नायक स्कवायर इंजीनियरों के नाक कटने से बचा पाएंगे ? ...या नायक 'बबलू' चिरकुट्स ही बना रह जाएगा !
यह सभी बातें हमें बांधे तो रखती हैं, लेकिन 'किस' का मिलन हमें रोमांस करा ही देते हैं... लेकिन अचानक ही प्यार अंतर-धार्मिक हो जाती है, हमें मालूम ही नहीं होने देते !
प्रस्तुत औपन्यासिक सत्यनारायण-कथा में वो एक बात मुझे बहुत अच्छा लगा । जब दो चिरकुट्स के बीच बहस परवान चढ़ती है, तो 'चिरकुट' नायक का यह तर्क सोचने पर मजबूर कर देता है-- ''एक ही परिवार में लोग अलग-अलग विचार रखते हैं, उनकी पसंद अलग होती है, उनके शौक अलग होते हैं । अगर बड़े भाई को मीठा पसंद है, तो छोटे को खट्टा ! ... तो क्या आपस में लड़ते रहते हैं ? इतनी विविधताओं के बीच अगर हम सब मिलकर रह सकते हैं और अपने आप को एक परिवार कहते हैं, तो अलग-अलग जाति और धर्म के होने के बावजूद मिलकर हम रह सकते है । हमें बस यह सोचना होगा कि हमारा धर्म अलग नहीं है, बल्कि हमारे विचार अलग हैं । बस सारी समस्या समाप्त ।"
....पर क्या इतनी बड़ी समस्या का इतनी छोटी-सी तर्क से 'परिधित' किया जा सकता है ! हमें मानवता की जीत चाहिए और इस नाते हममें बदलाव अवश्यम्भावी है ।
श्रीमान आलोक कुमार के इस उपन्यास की ऊपर वर्णित सामासिक भावना भी सम्पूर्ण मानव जाति के हित में है, इनसे अगर कुछ प्रतिशत लोग ही सीख ले पाते हैं, तो मैं इसे लेखक की लेखनी से उपजी 'खेती' की श्रमसाध्य सफलता मानूंगा ! हाँ, मैं लता के बारे में जानना जरूर चाहूंगा कि क्या रियल ज़िंदगी में उनकी किसी (सैंडी को छोड़) और से मिलन हो पाई या ... ! ...या क्या सही मायने में वो चिरकुट्स निकल गयी ?
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
'the चिरकुट्स' !
यही नाम है, किताब का, कथित नई वाली हिंदी घोलित उपन्यास का ।
जिसे पढ़ने में मुझे 46 मिनट और 26 सेकंड लगे, लेकिन इस किताब को लिखने में लेखक को 30 दिन लगा था, उस हिसाब से पढ़ने का स्पीड 'फास्ट' नहीं कहा जा सकता ! हाँ, मुझ इंजीनियर तक पहुँचने में इसे 365 दिन लगा और समीक्षा करने में ....!
आपको ऐसा लग रहा होगा कि इस किताब को मुझतक पहुंचने में साल भर कैसे और क्योंकर लग गया ? चलिए आते हैं, उसी मुद्दे पर !
यह किताब 31.12.17 की शाम को मैंने ऑर्डर किया था, लेकिन डिलीवरी बॉय की गलतियों के कारण 19.01.18 को मिला ! पर कहते हैं न --'देर आये, दुरस्त आये'!
सुबह 11बजे कुरियर बॉय से बुक रिसीव किया और दुपहरिया 2 बजे से पढ़ना स्टार्ट किया... लेखक श्रीमान आलोक कुमार को अपनी कथा का प्लॉट (पटकथा ) तैयार करने में 4 साल तो लगे ही होंगे, क्योंकि कहानी ही ऐसी है, किंतु 'the चिरकुट्स' की 139 पेजेज को इस मेकैनिकल इंजीनियर द्वारा पढ़ने में मात्र 46 मिनट और 26 सेकंड लगे !
इतनी जल्दी किताब पढ़कर 'लेखक' के लेखनी का आदर किया ? किंतु इसे अनादर करना बिल्कुल नहीं कहा जा सकता ! परंतु शायद ही इनका जवाब श्रीमान आलोक साहब मुझे दे पाये !
कहानी की शुरुआत तो रहस्य से शुरू होती है, लेकिन पढ़ने में मज़ा 96 पेज के बाद ही आती है, क्योंकि इस बीच यानी 95 पेजेज तक इंजीनियरिंग कॉलेज की कभी न सुलझनेवाली गाथायें हैं, जिन्हें अभी तक के सभी इस टाइप्ड कथाकारों ने अपनी कहानियों में जरूर जगह देते रहे हैं !
कहानी सुपरसोनिक स्पीड से आगे बढ़ती हैं, जहाँ '4' चिरकुट्स की कथा उफनती हैं और रैगिंग की घटनाएं सीनियर्स से निकलते हुए कब आगे बढ़ 'सैंडी' के प्यार में उलझ जाती है, मालूम ही नहीं चलती, लेकिन 'एडी' की फिलोसोफी 'प्यार के वायरस' को रोक नहीं पाती है, परंतु इंजीनियरों की ऐसी ज़िन्दगीनामा उनके नामों को जरूर बदल देते हैं !
पेजेज बढ़ने की रफ़्तार तेज़, the एंड के करीब... मोती जुड़कर कब 'माला' बन जाती है, लेकिन यह 'माला' क्या 'माला-डी' बन पाती है !
कहानी यहां से पाठकों को अब तो और उलझाये रखती है, क्योंकि यहां से शुरू होती है... चिरकुट्स नायक की अजीबोगरीब लव-मारे-चांस-स्टोरी ! क्या नायक लव को सक्सेस कर पायेंगे ? क्या वे नायक स्कवायर इंजीनियरों के नाक कटने से बचा पाएंगे ? ...या नायक 'बबलू' चिरकुट्स ही बना रह जाएगा !
यह सभी बातें हमें बांधे तो रखती हैं, लेकिन 'किस' का मिलन हमें रोमांस करा ही देते हैं... लेकिन अचानक ही प्यार अंतर-धार्मिक हो जाती है, हमें मालूम ही नहीं होने देते !
प्रस्तुत औपन्यासिक सत्यनारायण-कथा में वो एक बात मुझे बहुत अच्छा लगा । जब दो चिरकुट्स के बीच बहस परवान चढ़ती है, तो 'चिरकुट' नायक का यह तर्क सोचने पर मजबूर कर देता है-- ''एक ही परिवार में लोग अलग-अलग विचार रखते हैं, उनकी पसंद अलग होती है, उनके शौक अलग होते हैं । अगर बड़े भाई को मीठा पसंद है, तो छोटे को खट्टा ! ... तो क्या आपस में लड़ते रहते हैं ? इतनी विविधताओं के बीच अगर हम सब मिलकर रह सकते हैं और अपने आप को एक परिवार कहते हैं, तो अलग-अलग जाति और धर्म के होने के बावजूद मिलकर हम रह सकते है । हमें बस यह सोचना होगा कि हमारा धर्म अलग नहीं है, बल्कि हमारे विचार अलग हैं । बस सारी समस्या समाप्त ।"
....पर क्या इतनी बड़ी समस्या का इतनी छोटी-सी तर्क से 'परिधित' किया जा सकता है ! हमें मानवता की जीत चाहिए और इस नाते हममें बदलाव अवश्यम्भावी है ।
श्रीमान आलोक कुमार के इस उपन्यास की ऊपर वर्णित सामासिक भावना भी सम्पूर्ण मानव जाति के हित में है, इनसे अगर कुछ प्रतिशत लोग ही सीख ले पाते हैं, तो मैं इसे लेखक की लेखनी से उपजी 'खेती' की श्रमसाध्य सफलता मानूंगा ! हाँ, मैं लता के बारे में जानना जरूर चाहूंगा कि क्या रियल ज़िंदगी में उनकी किसी (सैंडी को छोड़) और से मिलन हो पाई या ... ! ...या क्या सही मायने में वो चिरकुट्स निकल गयी ?
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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