जब मैं 9वीं क्लास में था, तभी से मुझे नॉवेल पढ़ने का चस्का लग गया, लेकिन समयाभाव और समय की ओल-झोल के कारण नॉवेल पढ़ने की रफ्तार को मुझे कम करना पड़ा, बावजूद जहां उस समय सप्ताह में 7 व 8 नॉवेल पढ़ लिया करता था, वहीं आज सप्ताह में समय निकाल कर कोशिश करता हूँ कि 1 या 2 नॉवेल तो पढ़ ही लू ।
आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में जिस उपन्यास की मैं समीक्षा करने जा रहा हूँ यह मेरे द्वारा अबतक पढ़े गए नॉवेल्स में यह 2500 वां है, तो आइये पढ़ते हैं-- 'प्यार में सबकुछ गंदा होता है, बस देखने का अपना नजरिया चाहिए ।' यह लीजिये........
श्रीमान क्षितिज जी,
सादर नमस्ते !
स्टीफ़ेन हॉकिंग (Stevens Hocking) ने कुछ साल पहले ही यंत्र के माध्यम से दिए अपने इंटरव्यू में कहा था --'अंतरिक्ष के रहस्यों को समझना आसान हैं, लेकिन औरतों को नहीं !'
औपन्यासिक कृति 'गंदी बात' पढ़ा, जहां प्यार की शुरुआत तो पटना की गलियों से होती है, लेकिन प्रेम-पींगे गुजरते-गुजरते दिल्ली की आबोहवा में आबद्ध हो किसी गंध की भाँति फैलते-फैलते मोदीमय, केजरीमय और अन्नामय को साथ लेते-देते प्यार में कुर्बान आशिक के प्रसंगश: स्कार्पियो के चालक का पद ग्राह्य करता है ।
उपन्यास की रूपरेखा चिठ्ठी-पत्री लिए शुरू होती है और उस दौर से की याद दिला देती है, जिसे एक ऑटोवाला सुना रहा होता है, लेकिन डिजिटल इंडिया के इस दौर में चिट्ठी पर प्राप्तकर्त्ता के पता नहीं रहने के बावजूद प्रेमिका डेजी, जहाँ वह प्रेमी गोल्डन को ढूंढ ही लेती है, जो प्रेमी के लिए भी अबूझ पहेली है !
प्रस्तुत कथा बिल्कुल जुदा है, क्योंकि कथाई-मोड़ वहाँ आ जाती हैं, जहाँ उत्तेजना अपनी चरम सीमा पर पहुंच दम तोड़ लेती है, लेकिन कुत्ते (Dogs) के प्रति नायक का डर, खासकर 'हाड़ी-कुकर' का यह मंत्र गलत साबित हो जाती है, वो इसलिए कि भैरवदेव से डर मुझे भी लगता था, लेकिन वह डर मुझसे कैसे दूर भागा, उस दृष्टांतीय किस्सा को मैं सुनाता हूँ, जो यह कि 'मंत्र-तंत्र' बिल्कुल बकवास वस्तुस्थिति है, परंतु कथात्मक-दृष्टिकोण लिए यह बिल्कुल सही है ।
"बात तब की है, जब मैं 9-10 साल का रहा होऊँगा ! गांव में पतंगबाज़ी का उत्सव बड़े जोर-शोर से मनाया जा रहा था । पतंग यानी गुड्डी नाम सुनते ही बड़े-बड़े लोग भी घर से निकल पड़ते हैं उड़ाने को, पतंग कटने के बाद लूटने को भी ! पतंगबाजी चरम सीमा पर थी और मैंने एक दिन गोधूलि बेला में देखा कि एक पतंग कटकर मेरे घर के पास की बाड़ी में गिर रही है । बचपना और हुडदंगपना साथ-साथ लिए मैं जाफरी (बांस की सामग्री से बना पर्दा व दीवाल) को फांदकर पतंग लूटने चला गया । पतंग लूटना भी स्वयं में गजब की कला है, कभी आपने ऐसा किया है, क्षितिज जी !
पतंग तो मैंने लूट लिया, लेकिन जब बाड़ी से निकलने की बारी आई, तो बाड़ी में घुस आए मात्र एक दुबले कुत्ता ने ऐसा दौड़ाया कि पतंग को छोड़ते हुए मैं बाड़ी में जो तालाब है, उनमें कूद पड़ा, यह जाने बगैर कि तालाब में पानी गहरी हो सकती है । आधा घंटा के बाद कुकरदेव जब वहां से चले गये, तब मैं रात में ही रोते-बिलखते घर आ सका था !
.... और उस दिन के बाद से मैंने कभी पतंग नहीं लूटा, लेकिन अब जब भी किसी कुत्ते को देखता हूँ, तो उनकी आंखों में झाँकते हुए शांतचित हो कुत्ते के बगल से निकल जाता हूँ। बेचारा कुत्ता तब कूँ-कूँ भी नहीं कर पाता है । शायद मैं उन्हें हिप्नोटिज्म करना जान गया हूँ ।"
मेरे किस्से का सार यह है कि आपको भी ऐसे किस्से से सांगोपांग होने चाहिए, क्योंकि प्रस्तुत कहानी में गोल्डन के रूप में मुझे आपका अक्स दिखाई दे रहा है, क्षितिज जी ! लेकिन 'गंदी बात' के अंतिम पृष्ठ पर मुझे डेज़ी के रूप में शायदतन असली डेज़ी ने ही दर्शन दे दी । इसप्रकार, कहानी अनेक सवालों को छोड़ती हुई आगे निकल पड़ती है, लेकिन इस 21 वीं सदी के डिजिटल युग में उपन्यास 'गन्दी बात' ने पत्र-लेखन को अवश्य जिंदा रखा है और पात्र भी जीवंतता लिए है, इसे मैं लेखक की महानता कहूँगा ।
शेष-विशेष कभी मिलने पर ! आशा है, घर पर सब स्वस्थ व सानन्द होंगे । अंकल-आंटी, दीदी, भैया सभी को सादर प्रणाम ।
आपका ....
"प्यार में सभी कुछ गंदा होता है, बस देखने की नजरें होनी चाहिए"
आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में जिस उपन्यास की मैं समीक्षा करने जा रहा हूँ यह मेरे द्वारा अबतक पढ़े गए नॉवेल्स में यह 2500 वां है, तो आइये पढ़ते हैं-- 'प्यार में सबकुछ गंदा होता है, बस देखने का अपना नजरिया चाहिए ।' यह लीजिये........
श्रीमान क्षितिज जी,
सादर नमस्ते !
स्टीफ़ेन हॉकिंग (Stevens Hocking) ने कुछ साल पहले ही यंत्र के माध्यम से दिए अपने इंटरव्यू में कहा था --'अंतरिक्ष के रहस्यों को समझना आसान हैं, लेकिन औरतों को नहीं !'
औपन्यासिक कृति 'गंदी बात' पढ़ा, जहां प्यार की शुरुआत तो पटना की गलियों से होती है, लेकिन प्रेम-पींगे गुजरते-गुजरते दिल्ली की आबोहवा में आबद्ध हो किसी गंध की भाँति फैलते-फैलते मोदीमय, केजरीमय और अन्नामय को साथ लेते-देते प्यार में कुर्बान आशिक के प्रसंगश: स्कार्पियो के चालक का पद ग्राह्य करता है ।
उपन्यास की रूपरेखा चिठ्ठी-पत्री लिए शुरू होती है और उस दौर से की याद दिला देती है, जिसे एक ऑटोवाला सुना रहा होता है, लेकिन डिजिटल इंडिया के इस दौर में चिट्ठी पर प्राप्तकर्त्ता के पता नहीं रहने के बावजूद प्रेमिका डेजी, जहाँ वह प्रेमी गोल्डन को ढूंढ ही लेती है, जो प्रेमी के लिए भी अबूझ पहेली है !
प्रस्तुत कथा बिल्कुल जुदा है, क्योंकि कथाई-मोड़ वहाँ आ जाती हैं, जहाँ उत्तेजना अपनी चरम सीमा पर पहुंच दम तोड़ लेती है, लेकिन कुत्ते (Dogs) के प्रति नायक का डर, खासकर 'हाड़ी-कुकर' का यह मंत्र गलत साबित हो जाती है, वो इसलिए कि भैरवदेव से डर मुझे भी लगता था, लेकिन वह डर मुझसे कैसे दूर भागा, उस दृष्टांतीय किस्सा को मैं सुनाता हूँ, जो यह कि 'मंत्र-तंत्र' बिल्कुल बकवास वस्तुस्थिति है, परंतु कथात्मक-दृष्टिकोण लिए यह बिल्कुल सही है ।
"बात तब की है, जब मैं 9-10 साल का रहा होऊँगा ! गांव में पतंगबाज़ी का उत्सव बड़े जोर-शोर से मनाया जा रहा था । पतंग यानी गुड्डी नाम सुनते ही बड़े-बड़े लोग भी घर से निकल पड़ते हैं उड़ाने को, पतंग कटने के बाद लूटने को भी ! पतंगबाजी चरम सीमा पर थी और मैंने एक दिन गोधूलि बेला में देखा कि एक पतंग कटकर मेरे घर के पास की बाड़ी में गिर रही है । बचपना और हुडदंगपना साथ-साथ लिए मैं जाफरी (बांस की सामग्री से बना पर्दा व दीवाल) को फांदकर पतंग लूटने चला गया । पतंग लूटना भी स्वयं में गजब की कला है, कभी आपने ऐसा किया है, क्षितिज जी !
पतंग तो मैंने लूट लिया, लेकिन जब बाड़ी से निकलने की बारी आई, तो बाड़ी में घुस आए मात्र एक दुबले कुत्ता ने ऐसा दौड़ाया कि पतंग को छोड़ते हुए मैं बाड़ी में जो तालाब है, उनमें कूद पड़ा, यह जाने बगैर कि तालाब में पानी गहरी हो सकती है । आधा घंटा के बाद कुकरदेव जब वहां से चले गये, तब मैं रात में ही रोते-बिलखते घर आ सका था !
.... और उस दिन के बाद से मैंने कभी पतंग नहीं लूटा, लेकिन अब जब भी किसी कुत्ते को देखता हूँ, तो उनकी आंखों में झाँकते हुए शांतचित हो कुत्ते के बगल से निकल जाता हूँ। बेचारा कुत्ता तब कूँ-कूँ भी नहीं कर पाता है । शायद मैं उन्हें हिप्नोटिज्म करना जान गया हूँ ।"
मेरे किस्से का सार यह है कि आपको भी ऐसे किस्से से सांगोपांग होने चाहिए, क्योंकि प्रस्तुत कहानी में गोल्डन के रूप में मुझे आपका अक्स दिखाई दे रहा है, क्षितिज जी ! लेकिन 'गंदी बात' के अंतिम पृष्ठ पर मुझे डेज़ी के रूप में शायदतन असली डेज़ी ने ही दर्शन दे दी । इसप्रकार, कहानी अनेक सवालों को छोड़ती हुई आगे निकल पड़ती है, लेकिन इस 21 वीं सदी के डिजिटल युग में उपन्यास 'गन्दी बात' ने पत्र-लेखन को अवश्य जिंदा रखा है और पात्र भी जीवंतता लिए है, इसे मैं लेखक की महानता कहूँगा ।
शेष-विशेष कभी मिलने पर ! आशा है, घर पर सब स्वस्थ व सानन्द होंगे । अंकल-आंटी, दीदी, भैया सभी को सादर प्रणाम ।
आपका ....
"प्यार में सभी कुछ गंदा होता है, बस देखने की नजरें होनी चाहिए"
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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