कुछ कहने से पहले मैं पाठकों का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा कि मैसेंजर ऑफ आर्ट की व्यूअर्स दिन प्रतिदिन हज़ारों की संख्या में बढ़ रहे हैं । आज MoA पाठकों के लिए जो रिपोर्ताज़-लघुकथा लेकर आई है, अद्भुत है, किंतु टीस लिए ! जिससे हमसब भी कभी न कभी रूबरू होते हैं...
पहले मैं एक सच्ची कहानी पेश कर रहा हूँ.... घटना कुछ साल पहले की है, मैं और मेरी दीदी, ट्रेन से सफर कर वापस घर को आ रहे थे । ट्रेन से उतरते वक़्त दो जने (एक बालक और एक बालिका, शायद भाई-बहन !) कुछ नहीं खाये हैं, ऐसा कह, कुछ रुपये की मांग कर रहे थे । भीख के विरुद्ध होने के बावजूद, इन बच्चों से द्रवित हो मेरी दीदी ने उसे 20 रुपये दे दी, लेकिन कुछ देर के बाद वे दोनों किसी गली में पुनः भेंट हो गए, तो हमने उन दोनों बच्चों को यह कहते सुना ..... 'देखा, कैसे हमने इनसे 20 रुपये ठग लिए ?'
हम समझ सकते हैं, गरीबी, बेबसी और कई प्रकार की विवशता के कारण बच्चे चोरी-चकारी कर लेते हैं । हालाँकि इस कृत्य को बढ़ावा नहीं देना चाहिए, तथापि इस सामाजिक विषमता का निदान आवश्यक है । आज MoA में पढ़ते हैं, नवभारत न्यूज़पेपर, मुंम्बई में बतौर रिपोर्टर सुश्री आरती सिंह की प्रस्तुत रिपोर्ताज़-लघुकथा । आइये, इसे पढ़ ही लेते हैं....
बेबसी
शाम का समय था, यही कोई चार बज रहे होंगे ! मेरे दिमाग में काम का फ़ितूर दबाव बढ़ाये जा रहा था । अभी तक हाथ में ऐसी कोई स्टोरी नहीँ लगी थी, जिसे लेकर तसल्ली से ऑफिस जा सकूं ! स्टोरी के चक्कर में यहाँ-वहाँ दौड़ लगा रही थी कि इन हजारों के बीच मेरी नज़र 13-14 साल के बालक पर आ पड़ी, जिनकी आँखों में आँसू थे और उसके हाथ को रेलवे का एक सिपाही पकड़े व खींचते हुए जा रहा था । बच्चे के आँसू लुढ़क कर उसके गालों पर छा रहे थे और वह उसे पोंछने व यूँ कहे तो दुनिया से छुपाने का प्रयास भर कर रहे थे, यह कहना कतई गलत नहीं होगा ! उसकी आँखों की नीरवता से लाचारी साफ परिलक्षित हो रही थी और मैं इस अकिंचन विहंगम को देखे भर जा रही थी । उसके चेहरे से मेरी नज़र चाह कर हट नहीं रही थी । मैं उसे और उसकी बेबसी को जाते हुए देखती रही और कुछ देर बाद ही वो बालक मेरी आँखों से ओझल हो गया। कुछ देर तक मैं वहीं खड़ी-खड़ी सन्न थी और यही सोचती रही कि आखिर इस बच्चे का क्या कसूर है ? इसी उधेड़बुन में मेरी मस्तिष्क फिर 'स्टोरी' की तरफ़ चली गयी और अपने मिशन-ए-स्टोरी में लग गई।
शाम गहनतम हो गयी थी । इस बीच और भी बीट के पत्रकार मिल गये । अब साथ में मिल कर स्टोरी के लिये निकल पड़े, यही सोचकर कि शायद सफलता हाथ लगे ! हम सब फिर उसी ओर चल पड़े, जहाँ मैं अभी-अभी उस दृश्यित घटना से रूबरू हुए थी । हम उसी जगह आ खड़े हुए, जहाँ से वो बच्चा गुजरा था। उस बच्चे का चेहरा मेरी आँखों के सामने से हटने का नाम नहीं ले रहा था। मैं उसी सोच में डूबी ही थी कि फिर वही वाकया आँखों के सामने तरंगायित होने लगा, जो सच था, कोई कल्पना नहीं ! वह पुलिस वाला उसे लगभग घसीटते हुए लिये जा रहा था ... मन किया कि लपककर उस बच्चे को पुलिस से छुड़ा लूँ और पुलिस से इस बच्चे का कसूर पूछ लूँ कि इस बच्चे की उम्र ही क्या है, जो तुम इसतरह का निंदनीय सलूक कर रहे हो ! जब तक मैं आगे बढ़ पाती, तब तक बच्चे को टैक्सी में बिठा कर वह निकल गया। बच्चा अब दूर तलक दिखाई नहीं पड़ रहे, किंतु उनके आँसू भरे चेहरे तब ही नहीं, आज भी मेरी आँखों के सामने तैरती, डूबती और उतरती रहती है और यही सवाल करती हैं कि क्या कसूर था उस बच्चे का ? ....लाचारी, गरीबी, चोरी, काम का बोझ या बच्चे के माँ-बाप की कोई मज़बूरी या फिर हमारे ईमानदार देश में पैसे की बेबसी, जिसकी सजा वह काटने जा रहा था ! ....किंतु इसे मैं रोक क्यों नहीं पाई ?
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
पहले मैं एक सच्ची कहानी पेश कर रहा हूँ.... घटना कुछ साल पहले की है, मैं और मेरी दीदी, ट्रेन से सफर कर वापस घर को आ रहे थे । ट्रेन से उतरते वक़्त दो जने (एक बालक और एक बालिका, शायद भाई-बहन !) कुछ नहीं खाये हैं, ऐसा कह, कुछ रुपये की मांग कर रहे थे । भीख के विरुद्ध होने के बावजूद, इन बच्चों से द्रवित हो मेरी दीदी ने उसे 20 रुपये दे दी, लेकिन कुछ देर के बाद वे दोनों किसी गली में पुनः भेंट हो गए, तो हमने उन दोनों बच्चों को यह कहते सुना ..... 'देखा, कैसे हमने इनसे 20 रुपये ठग लिए ?'
हम समझ सकते हैं, गरीबी, बेबसी और कई प्रकार की विवशता के कारण बच्चे चोरी-चकारी कर लेते हैं । हालाँकि इस कृत्य को बढ़ावा नहीं देना चाहिए, तथापि इस सामाजिक विषमता का निदान आवश्यक है । आज MoA में पढ़ते हैं, नवभारत न्यूज़पेपर, मुंम्बई में बतौर रिपोर्टर सुश्री आरती सिंह की प्रस्तुत रिपोर्ताज़-लघुकथा । आइये, इसे पढ़ ही लेते हैं....
सुश्री आरती सिंह |
बेबसी
शाम का समय था, यही कोई चार बज रहे होंगे ! मेरे दिमाग में काम का फ़ितूर दबाव बढ़ाये जा रहा था । अभी तक हाथ में ऐसी कोई स्टोरी नहीँ लगी थी, जिसे लेकर तसल्ली से ऑफिस जा सकूं ! स्टोरी के चक्कर में यहाँ-वहाँ दौड़ लगा रही थी कि इन हजारों के बीच मेरी नज़र 13-14 साल के बालक पर आ पड़ी, जिनकी आँखों में आँसू थे और उसके हाथ को रेलवे का एक सिपाही पकड़े व खींचते हुए जा रहा था । बच्चे के आँसू लुढ़क कर उसके गालों पर छा रहे थे और वह उसे पोंछने व यूँ कहे तो दुनिया से छुपाने का प्रयास भर कर रहे थे, यह कहना कतई गलत नहीं होगा ! उसकी आँखों की नीरवता से लाचारी साफ परिलक्षित हो रही थी और मैं इस अकिंचन विहंगम को देखे भर जा रही थी । उसके चेहरे से मेरी नज़र चाह कर हट नहीं रही थी । मैं उसे और उसकी बेबसी को जाते हुए देखती रही और कुछ देर बाद ही वो बालक मेरी आँखों से ओझल हो गया। कुछ देर तक मैं वहीं खड़ी-खड़ी सन्न थी और यही सोचती रही कि आखिर इस बच्चे का क्या कसूर है ? इसी उधेड़बुन में मेरी मस्तिष्क फिर 'स्टोरी' की तरफ़ चली गयी और अपने मिशन-ए-स्टोरी में लग गई।
शाम गहनतम हो गयी थी । इस बीच और भी बीट के पत्रकार मिल गये । अब साथ में मिल कर स्टोरी के लिये निकल पड़े, यही सोचकर कि शायद सफलता हाथ लगे ! हम सब फिर उसी ओर चल पड़े, जहाँ मैं अभी-अभी उस दृश्यित घटना से रूबरू हुए थी । हम उसी जगह आ खड़े हुए, जहाँ से वो बच्चा गुजरा था। उस बच्चे का चेहरा मेरी आँखों के सामने से हटने का नाम नहीं ले रहा था। मैं उसी सोच में डूबी ही थी कि फिर वही वाकया आँखों के सामने तरंगायित होने लगा, जो सच था, कोई कल्पना नहीं ! वह पुलिस वाला उसे लगभग घसीटते हुए लिये जा रहा था ... मन किया कि लपककर उस बच्चे को पुलिस से छुड़ा लूँ और पुलिस से इस बच्चे का कसूर पूछ लूँ कि इस बच्चे की उम्र ही क्या है, जो तुम इसतरह का निंदनीय सलूक कर रहे हो ! जब तक मैं आगे बढ़ पाती, तब तक बच्चे को टैक्सी में बिठा कर वह निकल गया। बच्चा अब दूर तलक दिखाई नहीं पड़ रहे, किंतु उनके आँसू भरे चेहरे तब ही नहीं, आज भी मेरी आँखों के सामने तैरती, डूबती और उतरती रहती है और यही सवाल करती हैं कि क्या कसूर था उस बच्चे का ? ....लाचारी, गरीबी, चोरी, काम का बोझ या बच्चे के माँ-बाप की कोई मज़बूरी या फिर हमारे ईमानदार देश में पैसे की बेबसी, जिसकी सजा वह काटने जा रहा था ! ....किंतु इसे मैं रोक क्यों नहीं पाई ?
नमस्कार दोस्तों !
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