सोशल मीडिया का युग है और यह विद्रूप पक्ष लिए चरम सीमा पर पहुँच गए हैं , लेकिन इस मीडिया के सोशलाइट लोग जहाँ इस मीडिया से 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के नाम पर अपनी राय तो रखते ही हैं, किंतु अनाप-शनाप परोसते भी हैं । यही नहीं, कुछ लोग लिखने व टंकण के क्रम में जोश तो खोते ही हैं, होश भी खो डालते हैं । ऐसे लोग देश-विरोधी नारे व स्लोगन व पंचलाइन देते रहते हैं । कुछ लोग सोशल मीडिया के द्वारा अघोषित 'फतवा' भी जारी करते हुए देखे जा सकते हैं । क्या यह पब्लिसिटी है ? ..... या सस्ती व सहज प्राप्य लोकप्रियता ! जहाँ एक ओर 'माननीय प्रधानमंत्री' 'डिजिटल-क्रांति' से देश को जोड़ रहे हैं, वहीं दूजे इसतरह के उठाये कदमों से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान आख़िरत: देश का ही हो रहा है, लेकिन फ़ायदा 'दुश्मन-देश' उठा लेते हैं । भारत में भारतीयों द्वारा 'जिन्ना' की प्रशंसा किया जाना किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है । चूंकि भारत-विभाजन में इस जिन्न की 100 फीसदी भूमिका रही थी, इस विभाजन से करोड़ों लोग न केवल बेघर हुए, बल्कि सांप्रदायिक दंगे में मारे भी गए । कोई भी व्यक्ति न तो राष्ट्र से ऊपर हो सकता है, न ही स्वधर्म से । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, श्रीमान वेद प्रकाश उपाध्याय लिखित शोध लिए पुस्तक 'कल्कि अवतार और मुहम्मद साहब' की समीक्षा...
मैं विज्ञानसम्मत यथार्थ विचारों से युक्त तर्कवादी तथा आस्था और विश्वास को फ़ख्त सीमा में रखते हुए श्रद्धाजनित व्यक्ति हूँ, जिसे आरम्भिक अवस्था में 'नास्तिक' कहा जाता है । तभी तो कथा को जानने-समझने के हेतुक महाभारत, रामायण को चलचित्र में देखा-सुना है और गीता, वेद, कुरआन को पढ़ा है । 'बाइबिल' अध्ययन में सर्टिफिकेट प्राप्त किया है ।
ईश्वरीय आस्था पर विश्वास भी करने का मन करता है, तो तर्कशील बातों को विज्ञान के तराजू में जबतक माप न लूँ, तब तक उस विषयवस्तु पर विश्वास नहीं कर पाता हूँ, क्योंकि मेरे मन में 'श्रद्धा' अबतक उपजाऊ नहीं हो पाया है । मेरे आस-पास के 80 फीसदी लोग सावन में वैद्यनाथ धाम में 'शिव' को जलावरण कर आये, मैं उसके लिए अबतक खींचा नहीं जा सका है । हो सकता है, श्रद्धा ने मेरे लिए बहरहाल सिंचाई-व्यवस्था तैयार नहीं की हो ! एक विद्यार्थी होने के नाते एग्जाम के कारण परीक्षार्थी भी हूँ, बावजूद इस सप्ताह मैंने लेखक डॉ. वेद प्रकाश उपाध्याय द्वारा धार्मिक एकता को तर्कशील माध्यम से जोड़ने वाली शोधपरक शोध-पुस्तक 'कल्कि अवतार और मोहम्मद साहब' पढ़ा । डेढ़ सप्ताह बाद ही पवित्र रमजान का महीना शुरू हो रहे हैं और पिछले सप्ताह ही बुद्ध पूर्णिमा सोल्लास सम्पन्न हुई ।
लेखक ने बारीकी से अध्ययन करने के बाद सम्प्रति पुस्तक को लिखने अतिशय मनोयोग का उपयोग किया है। प्रस्तुत पुस्तक जहां हिन्दू और इस्लाम धर्मावलम्बियों के आपस में एकता की बात तो करती ही है, साथ ही लेखक ईश्वरीय अवतार और उसकी विशेषता को किसी विशेषज्ञ की तरह बताते हुए ईश्वर के अंतिम अवतार यानि कल्कि अवतार को मुहम्मद साहब बताते हुए कुल 16 बिंदुओं पर तुलना कर यह साबित करते भी हैं कि ईश्वर, अल्लाह एक है और मुहम्मद साहब ही कल्कि अवतार है तथा हिंदुस्तान में रहनेवाले सारे व्यक्तियों को हिंदू बताते हुए इनका कारण भी बताया है ।
इस तुलनात्मक अध्ययन में लेखक ने गंभीरता से अनेक किताबों का अध्ययन किया है । लेखक यह बताते हैं कि कल्कि अवतार के पिता का नाम ( कल्कि पुराण के अनुसार ) विष्णुवश है ( विष्णु - अल्लाह, यश - बंदा ) और कल्कि अवतार के माता का नाम सुमति (सोमवती - अमन और सलामती वाली यानी अमीना ) । जिनका भावार्थ निकाला जाय, तो यह मुहम्मद साहब के परिवार से मेल खाते हैं ।
लेखक महत्वपूर्ण बिंदुओं के साथ यह भी कहते पाये जाते हैं, 'नाम से कोई हिन्दू, मुसलमान या ईसाई नहीं बनता ।' वे कहते हैं कि मैं सिराजुल हक को सत्यदीप, अब्दुल्लाह को रामदास या रामयश तथा अब्दुल रहमान को भगवान दास कहूंगा, तो वे बुरा नहीं मानेंगे, क्योंकि उनके नामों का संस्कृत में अनुवाद यही होता है । यदि वे चाहे, तो मेरे (लेखक) नाम का अनुवाद अरबी भाषा में करेंगे नुरूल हुदा भी कर सकते हैं।
लेखक ने मानवतावादी-सोच को सर्वोपरि मानते हुए अति संवेदनशील मुद्दे को सहज तुलनात्मक दृष्टि से शोध-पुस्तक में जगह दिए हैं, लेकिन अगर इस छोटी-सी शोध-पुस्तक को पढ़कर हमारी मोती बुद्धि समझ पाए, तो लेखकीय प्रयास न केवल सफल होंगे, अपितु तब धार्मिक-भेदभाव नहीं होंगे और हम लोग लेखक की तरह दुनिया को देखने लगेंगे ! साहित्य के इस संसार में इस 'कलमकार' को हम सभी सलाम करते हैं, लेकिन भाषाई और शैली-प्रवाहगत अशुद्धता में 'शुद्धता' लाकर प्रकाशक और लेखक को श्रमसाध्य कार्य और किये जाने चाहिए थे, अन्यथा न लेंगे !
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
मैं विज्ञानसम्मत यथार्थ विचारों से युक्त तर्कवादी तथा आस्था और विश्वास को फ़ख्त सीमा में रखते हुए श्रद्धाजनित व्यक्ति हूँ, जिसे आरम्भिक अवस्था में 'नास्तिक' कहा जाता है । तभी तो कथा को जानने-समझने के हेतुक महाभारत, रामायण को चलचित्र में देखा-सुना है और गीता, वेद, कुरआन को पढ़ा है । 'बाइबिल' अध्ययन में सर्टिफिकेट प्राप्त किया है ।
ईश्वरीय आस्था पर विश्वास भी करने का मन करता है, तो तर्कशील बातों को विज्ञान के तराजू में जबतक माप न लूँ, तब तक उस विषयवस्तु पर विश्वास नहीं कर पाता हूँ, क्योंकि मेरे मन में 'श्रद्धा' अबतक उपजाऊ नहीं हो पाया है । मेरे आस-पास के 80 फीसदी लोग सावन में वैद्यनाथ धाम में 'शिव' को जलावरण कर आये, मैं उसके लिए अबतक खींचा नहीं जा सका है । हो सकता है, श्रद्धा ने मेरे लिए बहरहाल सिंचाई-व्यवस्था तैयार नहीं की हो ! एक विद्यार्थी होने के नाते एग्जाम के कारण परीक्षार्थी भी हूँ, बावजूद इस सप्ताह मैंने लेखक डॉ. वेद प्रकाश उपाध्याय द्वारा धार्मिक एकता को तर्कशील माध्यम से जोड़ने वाली शोधपरक शोध-पुस्तक 'कल्कि अवतार और मोहम्मद साहब' पढ़ा । डेढ़ सप्ताह बाद ही पवित्र रमजान का महीना शुरू हो रहे हैं और पिछले सप्ताह ही बुद्ध पूर्णिमा सोल्लास सम्पन्न हुई ।
लेखक ने बारीकी से अध्ययन करने के बाद सम्प्रति पुस्तक को लिखने अतिशय मनोयोग का उपयोग किया है। प्रस्तुत पुस्तक जहां हिन्दू और इस्लाम धर्मावलम्बियों के आपस में एकता की बात तो करती ही है, साथ ही लेखक ईश्वरीय अवतार और उसकी विशेषता को किसी विशेषज्ञ की तरह बताते हुए ईश्वर के अंतिम अवतार यानि कल्कि अवतार को मुहम्मद साहब बताते हुए कुल 16 बिंदुओं पर तुलना कर यह साबित करते भी हैं कि ईश्वर, अल्लाह एक है और मुहम्मद साहब ही कल्कि अवतार है तथा हिंदुस्तान में रहनेवाले सारे व्यक्तियों को हिंदू बताते हुए इनका कारण भी बताया है ।
इस तुलनात्मक अध्ययन में लेखक ने गंभीरता से अनेक किताबों का अध्ययन किया है । लेखक यह बताते हैं कि कल्कि अवतार के पिता का नाम ( कल्कि पुराण के अनुसार ) विष्णुवश है ( विष्णु - अल्लाह, यश - बंदा ) और कल्कि अवतार के माता का नाम सुमति (सोमवती - अमन और सलामती वाली यानी अमीना ) । जिनका भावार्थ निकाला जाय, तो यह मुहम्मद साहब के परिवार से मेल खाते हैं ।
लेखक महत्वपूर्ण बिंदुओं के साथ यह भी कहते पाये जाते हैं, 'नाम से कोई हिन्दू, मुसलमान या ईसाई नहीं बनता ।' वे कहते हैं कि मैं सिराजुल हक को सत्यदीप, अब्दुल्लाह को रामदास या रामयश तथा अब्दुल रहमान को भगवान दास कहूंगा, तो वे बुरा नहीं मानेंगे, क्योंकि उनके नामों का संस्कृत में अनुवाद यही होता है । यदि वे चाहे, तो मेरे (लेखक) नाम का अनुवाद अरबी भाषा में करेंगे नुरूल हुदा भी कर सकते हैं।
लेखक ने मानवतावादी-सोच को सर्वोपरि मानते हुए अति संवेदनशील मुद्दे को सहज तुलनात्मक दृष्टि से शोध-पुस्तक में जगह दिए हैं, लेकिन अगर इस छोटी-सी शोध-पुस्तक को पढ़कर हमारी मोती बुद्धि समझ पाए, तो लेखकीय प्रयास न केवल सफल होंगे, अपितु तब धार्मिक-भेदभाव नहीं होंगे और हम लोग लेखक की तरह दुनिया को देखने लगेंगे ! साहित्य के इस संसार में इस 'कलमकार' को हम सभी सलाम करते हैं, लेकिन भाषाई और शैली-प्रवाहगत अशुद्धता में 'शुद्धता' लाकर प्रकाशक और लेखक को श्रमसाध्य कार्य और किये जाने चाहिए थे, अन्यथा न लेंगे !
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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