गर्मी का मौसम अपनी चाल-चलन को जमाये जा रहे हैं । जहां मानसून पूर्व सिर्फ एक बारिश ने धरती पर कीचड़ फैला दी हैं, तो इस वर्षा जल से तापमान कभी घट जाती है, तो कभी इतनी बढ़ जाती है कि शरीर से तापमान आर-पार कर देह पर छोटे-छोटे दाने निकाल देते हैं । इस गर्मी में प्यास का लगना आम बात है । यह प्यास यात्रियों को जान-जोखिम में डाल देते हैं, क्योंकि रेलवेवेंडर से लेकर मार्किट में दूकानदार तक एमआरपी ₹15 मूल्य लिए पानी-बोतल ₹25 में बेचते हैं । विक्रेता चापाकल का पानी बोतल में डालकर व खुद से सील करके कमाई करते हैं ! जब उनसे बहस किया जाय तो वे इस मुद्दे को गौण कर कहते हैं कि 'ठंडा' करने का चार्ज कौन देगा ? तब प्यास बुझाने की जद्दोजहद रहती है, फिर उनसे बहस करना आफत मोल लेना भी है ! भूमिगत जल के सौ फीट नीचे चले जाने के कारण गाँव में चापाकल से पानी नहीं आ पा रही है, वहीं शहरी क्षेत्रों में सप्लाई वाटर भी नियमित नहीं है । स्थानीय प्रशासन को सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए प्रत्येक मुहल्ले या वार्ड में कम से कम 20 सरकारी चापाकल अवश्य गड़वाने चाहिए, ताकि प्यास मिट सके ! पानी की महत्ता लिए आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, प्रो. सदानंद पॉल के संस्मरण कि पानी के बाद खुले में शौच कर पानी-पानी मत होइए, पढ़िए लिमिटवा वाक्य दो-चार.......
नमस्कार दोस्तों !
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प्रो. सदानंद पॉल |
रेलयात्रा के क्रम में जब ट्रेन पटरी पर दौड़ रही हो और उषाकाल का समय हो यानी सूर्योदय अभी हुआ नहीं है, तब इस उषाप्रकाश में आप पटरी किनारे देख सकते हैं, ऐसे नज़ारे, जो सरकार की योजना ओडीएफ (खुले में शौच से मुक्ति) को खुले में चुनौती दे रहे होते हैं। महानंदा एक्सप्रेस से नई दिल्ली जाते समय मुगलसराय आते-आते ट्रेन पर सुबह हो जाय, तो खुले में शौच करनेवाले पुरुष हो या स्त्रियाँ सरकार की इस योजना को ठेंगा दिखाते मिलेंगे। सरकार चिल्लाते रहे, किन्तु हम आम जनता खुले में मल त्यागते रहेंगे और वह भी बिन पानी ! यह सिर्फ मुगलसराय की बात नहीं, लगभग पूरे देश की बात है । सुबह की ट्रेन यात्रा पर बिहार में कैपिटल एक्सप्रेस से नवगछिया पहुंच रहे हों, तो खुले में शौच कर रहे होते मर्द, औरत और बच्चे मिलेंगे । इसतरह के नज़ारे दिखाई पड़ने से हम भारतीय ही इस अभियान में पिछड़ते जरूर जा रहे हैं, किन्तु इस कृत्य से लजाते नहीं हैं ।
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