प्रख्यात कवयित्री स्वर्णलता विश्वफूल की एक कविता है, उक्त कविता की काव्यांश यहां प्रस्तुत है । कविता का शीर्षक है --'चाक पर चढ़ी बेटी' :-
"उस स्त्रीलिंग प्रतिमा,
यौवन-उफनाई प्रतिमा को–
एक पुरुष ने खरीदा
और सीमेंटेड रोड पर
पटक-पटक
चू्र कर डाला ।
प्रतिमा के चूड़न को–
सिला में पीस डाला,
और अपनी लार से
मिट्टी का लौन्दा बनाया,
उसे चाक पर चढ़ा दिया,
कहा जाता है--
तब से बेटी
चाक पर चढ़ी है ।"
'मेरे आँगन की तितली'
मैं उसे रोज देखती हूँ,
सुबह-शाम दिन-रात,
उसके चमकीले-अनोखे रंगों से सजे पंखों के साथ,
उसका उड़ना-लहराना ऊपर-नीचे दायें-बायें इतराना,
मैं हो जाती हूँ उस पर वारी-न्यारी,
वह है मेरे आँगन की तितली ।
शायद वह उड़ना चाहती है दूर तलक,
छूना चाहती है चारों दिशायें औ' आसमां,
मंडराना चाहती है हर फूल के इर्द-गिर्द,
महसूस करना चाहती है उसकी सुन्दरता व सुगन्ध,
मैं भी तो यही चाहती हूँ,
पर मेरा दिल बैठ जाता है,
जब मैं उसे देखती हूँ, अपने आँगन से दूर।
मैं भी उसे आसमां छूते देखना चाहती हूँ,
उसको लहराते रंगीले पंखों का जादू बिखेरते,
आनंदित होते हुये महसूस करना चाहती हूँ,
पर देर तक उसका मेरी आँखों से ओझल होना
मुझे डरा देता है।
वह रहती है सदा मेरी पलकों में ,
पर दूसरों की नजरों में भी उसका आना
मुझे कंपा देता है,
हाँ ! मैं चाहती हूँ वह उड़े औ' छुये आसमां,
सांझ को वापस उसे अपने आँगन में पाकर,
आँखों से मापती हूँ, निहारती हूँ,
क्योंकि अभी वह बड़ी भोली है,
नहीं है उसे रस भरे फूलों की पहचान,
कुछ जहरीले फूलों और उसके शूलों से भी है अंजान,
कहीं उसके पँखों पर छिलने के निशां तो नहीं !
क्या आँखों में दहशत व कदमों में लड़खड़ाहट है कहीं ?
सब कुछ सामान्य-सी पाती हूँ औ' सुकूं से भर जाती हूँ,
क्योंकि मैं बागबां हूँ,
और एक माँ हूँ ।
"उस स्त्रीलिंग प्रतिमा,
यौवन-उफनाई प्रतिमा को–
एक पुरुष ने खरीदा
और सीमेंटेड रोड पर
पटक-पटक
चू्र कर डाला ।
प्रतिमा के चूड़न को–
सिला में पीस डाला,
और अपनी लार से
मिट्टी का लौन्दा बनाया,
उसे चाक पर चढ़ा दिया,
कहा जाता है--
तब से बेटी
चाक पर चढ़ी है ।"
प्रस्तुत कवितांश जहां अभी के हालात को चीख़-चीख कर बयां कर रही है, वहीं आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, एक माँ और उनकी उस पीड़ा को, जब उनके बच्चे व कलेजे के टुकड़े उनसे दूर हो जाते हैं, उनमें भी खासकर बेटियाँ ! तो आइये, पढ़ते हैं हम-- विज्ञान शिक्षिका श्रीमती शशि सिंह की ममता रुपी मिश्री से घुली बड़ी आनंददायी कविता ! पढ़िये तो जरा.......
कविता पढ़ने से पहले कवयित्री शशि सिंह लिखित गद्यांश को भी जान लेते हैं--
"हम सब चाहते हैं कि हमारी बेटियाँ बुलन्दियाँ हासिल करे। वह सब हासिल करे, जो उनका दिल चाहता है और दूसरी ओर रोजाना कुछ ऐसा हो ही जाता है कि अखबार के पन्नों से, जो हमें बिल्कुल ही संशय की स्थिति में लाकर खड़ा कर देते हैं । इस संशय को व एक माँ की मनोस्थिति को शब्दों के माध्यम से यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ । इनसे जुड़ने की निश्चितश: कोशिश करेंगे, ताकि आप सबों के भी आशीर्वाद और प्यार मिल सके !"
"हम सब चाहते हैं कि हमारी बेटियाँ बुलन्दियाँ हासिल करे। वह सब हासिल करे, जो उनका दिल चाहता है और दूसरी ओर रोजाना कुछ ऐसा हो ही जाता है कि अखबार के पन्नों से, जो हमें बिल्कुल ही संशय की स्थिति में लाकर खड़ा कर देते हैं । इस संशय को व एक माँ की मनोस्थिति को शब्दों के माध्यम से यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ । इनसे जुड़ने की निश्चितश: कोशिश करेंगे, ताकि आप सबों के भी आशीर्वाद और प्यार मिल सके !"
'मेरे आँगन की तितली'
मैं उसे रोज देखती हूँ,
सुबह-शाम दिन-रात,
उसके चमकीले-अनोखे रंगों से सजे पंखों के साथ,
उसका उड़ना-लहराना ऊपर-नीचे दायें-बायें इतराना,
मैं हो जाती हूँ उस पर वारी-न्यारी,
वह है मेरे आँगन की तितली ।
शायद वह उड़ना चाहती है दूर तलक,
छूना चाहती है चारों दिशायें औ' आसमां,
मंडराना चाहती है हर फूल के इर्द-गिर्द,
महसूस करना चाहती है उसकी सुन्दरता व सुगन्ध,
मैं भी तो यही चाहती हूँ,
पर मेरा दिल बैठ जाता है,
जब मैं उसे देखती हूँ, अपने आँगन से दूर।
मैं भी उसे आसमां छूते देखना चाहती हूँ,
उसको लहराते रंगीले पंखों का जादू बिखेरते,
आनंदित होते हुये महसूस करना चाहती हूँ,
पर देर तक उसका मेरी आँखों से ओझल होना
मुझे डरा देता है।
वह रहती है सदा मेरी पलकों में ,
पर दूसरों की नजरों में भी उसका आना
मुझे कंपा देता है,
हाँ ! मैं चाहती हूँ वह उड़े औ' छुये आसमां,
देखें अपनी नजरों से ये जहाँ, यहाँ-वहाँ
पर लौटकर जब शाम को वह आये मेरे आँगन,
मैं देखूँ तसल्ली कर लूँ कि सलामत है
उसके पंखों की चमक ,उसके रंग-ढंग,
उसकी उड़ान उसके चेहरे की मुस्कान,
क्योंकि मैं हूँ इक बागबां,
पर लौटकर जब शाम को वह आये मेरे आँगन,
मैं देखूँ तसल्ली कर लूँ कि सलामत है
उसके पंखों की चमक ,उसके रंग-ढंग,
उसकी उड़ान उसके चेहरे की मुस्कान,
क्योंकि मैं हूँ इक बागबां,
क्योंकि मैं हूँ इक बागवां ।
सांझ को वापस उसे अपने आँगन में पाकर,
आँखों से मापती हूँ, निहारती हूँ,
क्योंकि अभी वह बड़ी भोली है,
नहीं है उसे रस भरे फूलों की पहचान,
कुछ जहरीले फूलों और उसके शूलों से भी है अंजान,
कहीं उसके पँखों पर छिलने के निशां तो नहीं !
क्या आँखों में दहशत व कदमों में लड़खड़ाहट है कहीं ?
सब कुछ सामान्य-सी पाती हूँ औ' सुकूं से भर जाती हूँ,
क्योंकि मैं बागबां हूँ,
और एक माँ हूँ ।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email - messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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बहुत खूब ।
ReplyDeleteशुक्रिया ।
Deletevery nice
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