31 जुलाई 1880 को ईदगाह के परिपक्व बचपना लिए दुनिया में लेखनी के माध्यम से करतब दिखाने वाले धनपत राय श्रीवास्तव का जन्म हुआ । प्रेमचंद' नाम रखने से पहले व सरकारी नौकरी करते हुए वे अपनी रचनाएं 'नवाब राय' के नाम से प्रकाशित करते थे, लेकिन जब सरकार ने उनकी पहली कहानी-संग्रह, 'सोज़े वतन' जब्त की, तब 'ज़माना' के संपादक दया नारायण निगम की सलाह पर उन्होंने अपना नाम 'प्रेमचंद' रख लिया। अमृत राय के अनुसार वे सच्चे 'कलम के सिपाही' थे, हैं, क्योंकि लेखनी से निःसृत सच्चा साहित्य हमेशा ही अमर रहती है । उन्होंने अपने 56 वर्ष के जीवनकाल में 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, तीन नाटक, 10 अनुवाद , 7 बाल पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख और हंस एवं जागरण-संपादकीय की रचना की, जो आज भी शोधकारों के लिए न खत्म होनेवाले शोध के सरोकारीय विषय हैं । उनकी कहानियों में सत्य की झलक दिखती है , पूस की रात में गरीबी की बखान तो दिखाई पड़ती ही है, लेकिन पशु प्रेम की प्रकृति भी दिखती है । उनके काफी कृतियों पर फ़िल्म, नाटक और सीरियल बन चुके हैं । कम उपन्यासों के बावजूद 'शरतचंद्र' ने उन्हें उपन्यास-सम्राट कहा, परंतु कुछ लेखकों ने उन्हें खेमों में बांट दिया है । कई उन्हें अंग्रेजों के डर से भागनेवाले कहा है, तो डॉ. धर्मवीर ने उन्हें 'सामंत का मुंशी' कहा है, बावजूद उनकी लेखनी-अवदानित 'गोदान' का कोई विकल्प नहीं है । पोपले गाल के मालिक प्रेमचंद का जीवन हमेशा ही प्रो. मेहता और होरी के बीच झूलता रहा ! ऐसे महान लेखक 8 अक्टूबर 1936 को इस दुनिया को छोड़ रूहानी दुनिया की ओर कूच कर गए, लेकिन हमारे लिए छोड़ गए बालक हमीद की परिपक्वता ! आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, सुश्री पंखुरी सिन्हा द्वारा लिखी गई मुंशी प्रेमचंद पर गंभीर आलेख !आइये, बिना देर किए इस प्रसंगश:आलेख को पढ़ ही डालते हैं.....
कुछ कम चर्चित कथाएं कथा सम्राट की........
कथा सम्राट प्रेमचंद को हम बचपन से पढ़ते चले आ रहे हैं. मुझे लगता है अगर छठी कक्षा में ईदगाह कहानी पढ़ी होगी, तो आठवीं में नशा. जैसा कि नवारुण पाल ने कहा है, बचपन का पढ़ा भूलता नहीं। जैसे रहीम और रसखान के दोहे याद हैं, वैसे ही प्रेमचंद की कहानियों की बारीकियां भी और इन सभी कहानियों में नई बारीकियाँ ढूंढी जा सकती हैं. वैश्वीकरण के इस अंध युग में, जब पैसा ईश्वर बनता जा रहा है, ये दोनों कहानियां बार बार पढ़ने पढ़ाने लायक हैं. इसी तरह, बूढी काकी, नमक का दरोगा और अन्य कई कहानियां, निर्मला और गोदान जैसे कई उपन्यास। लेकिन प्रेमचंद की कुछ कम चर्चित कहानियां हैं, जो इत्तफ़ाक से हाथ लग गयीं, और वाक़ई लाजवाब हैं. कथ्य से लेकर शिल्प तक, अनूठी संरचना और बनावट वाली कहानियां समय के सशक्त चित्रण के साथ साथ, अद्भुत मनोविज्ञान भी दिखाती हैं।
संयोग से, जो पहली कहानी हाथ लगी वह एक नवयुवक के नौकरी से घर लौटने की कहानी है. 'होली की छुट्टी' शीर्षक इस कहानी में मनोविज्ञान तो है ही, लेकिन बीतते हुए अंग्रेजी राज की शिक्षा प्रणाली समेत समूची व्यवस्था, अव्यवस्था का चित्रण है. साथ में, रेल समेत तमाम यातायात की बदहाली, ख़ास कर सडकों की भूल-भुलैया, का उम्दा चित्रण करती है कहानी। कहानी का लहजा नदी के उफान जैसा है. लहरों पर जैसे ठुमकती चलती है कहानी। उसमें अतिशय गति शीलता है, नदी की तरंगायित चाल. कहानी की शुरुआत एक घोषणा अथवा सूचना के साथ होती है, "वर्नाक्युलर फाइनल पास करने के बाद मुझे एक प्राइमरी स्कूल में जगह मिली, जो मेरे घर से ग्यारह मील पर था." दूसरे ही वाक्य से यह नव नियुक्त मास्टर अपने हेड मास्टर का वह चरित्र चित्रण करता है, कि सच स्कूल के दिन सजीव हो उठते हैं. हेड मास्टर की छुट्टियों में भी पढ़ाने की सनक, लड़कों की रात्रि भोजन के बाद की हाजिरी, हेड मास्टर का नींद से लोट पोट हो, खर्राटों से उन्हें पढ़ाना, लड़को के धौल धप्पे से चौंक कर जागना, उन्हें तमाचे जड़ पुनः निद्रा देवी की गोद में लौट जाना, और अंततः लड़कों का भी निढाल हो पड़ रहना, अर्ध रात्रि तक की स्कूली दिनचर्या का सजीव चित्रण यहाँ उपस्थित है. नायक बस इतने से संतुष्ट है, कि नाईट स्कूल की इस ड्रामे बाज़ी में उसे तलब नहीं किया जाता।
छुट्टी न मिलने का आधुनिक रोना, यहीं इसी कहानी में बखूबी आरम्भ है. सोमवती अमावस्या और शिव रात्रि जैसे अनोखे त्योहारों के गुज़र जाने का जिक्र तो है ही, वसंत के भी बीत जाने का अफ़सोस पर्व सा, और इतवारों का कहना ही क्या? नवयुवक की अधीरता, घर जाने की आतुरता, होली की तारीख तक के ऐलान में दिखती है, जिस अवसर पर छुट्टी लेने का हेडमास्टर को दिया अल्टीमेटम तो वह पाठकों के साथ साझा करता ही है, अपनी यह मंशा भी कि छुट्टी वह लेकर रहेगा, भले नौकरी से हाथ क्यों न धोना पड़े. लेकिन हेडमास्टर भी वैसी ही तबियत के हैं. उसे रोकते ये तक कह बैठते हैं, कि कहीं इस अप्रत्याशित छुट्टी की वजह से, लड़के फेल न हो जाएँ! लेकिन नव नियुक्त तो लिहाफ काँधे पर धर, किताबों की बांधे पोटली, स्कूल से नौ दो ग्यारह हो लेता है. इतनी एहतियात बरतता है, कि निकलते वक्त सलाम तक बजाने नहीं जाता, वर्ना औसत हाजिरी निकालने, रजिस्टर में फीस की मीजान लगाते जाने जैसे कामों की फेहरिस्त थमा कर रोक लिया जाता, लेकिन नव युवक की गाड़ी,जो छूटनी थी, वह छूट ही गयी. उसके सांस रोके स्टेशन तक की लपकती चाल का सुंदर वर्णन है. यह वर्णन अत्यंत सजीव तब हो आता है, जब स्टेशन दूर से दिखता है, सिग्नल डाउन भी और गाड़ी आती है, मिनट भर को रुकती है और चल देती है! जोश की जोश में युवक घर की १२ मील की दूरी पैदल ही पार कर लेने की सोचता है! उसके गांव का रास्ता गंगा पार है, जिसे वह नाँव पर बखूबी पार कर लेता है. नदी पर सूर्यास्त का वर्णन बहुत जीवंत है. नदी पार कर, चने के खेत से एक झाड़ तोड़ टूंगता हुआ वह चलता जाता है, सोचता, अब पहुंचा, तब पहुंचा। लेकिन जब वह काफी चलने पर भी नहीं पहुँचता तो सशंकित होता है. ऐसे में, अर्ध रात्रि के करीब, जब वह जंगली जानवरों से भी खौफ खा रहा है, उसकी भेंट एक अँगरेज़ सरीखे व्यक्ति से होती है. बिल जैक्सन उसे दिशा का समूचा ज्ञान देते हैं और यह सूचना भी कि दरअसल वह अँधेरे में रास्ता भटक गया है. वह एक बार फिर नदी पार करने की स्थिति में इसी ओर खड़ा है. मिस्टर जैक्सन न केवल दिशा निर्देश देते हैं, बल्कि कंधे पर बिठाकर उसे नदी भी पार करवा देते हैं! बीच धार में पहुंचने पर वह उसे बच्चों की तरह गोद में उठा लेते हैं.
बिल जैक्सन के परिचय में समय सजीव हो उठता है. उसके पिता एक अँगरेज़ फौजी थे, माँ फ़ौज के लिए खाना पकाने वाली एक महिला। बिल जैक्सन खुद द्वितीय विश्व युद्ध तक की लड़ाई लड़कर लौटे हैं. उनके पास युद्ध भूमि के एक से एक किस्से हैं, और इस बात का गुरूर भी कि उन्होंने एक आत ताई जर्मन जेनेरल का खून किया है, बतौर सैनिक, युद्ध के मैदान में. अब लड़ाई के मैदान से लौटकर, वह फसलों की निगरानी का काम करते हैं. उनकी बदौलत, कथा नायक, जोशीला नौजवान, सही सलामत उसी रात ३ बजे जब घर पहुँचता है, तब होली जल रही होती है. उसकी आतुर माँ उसके स्वागत में बाहर आती है, और इस तरह सफर पूरा होता है. लेकिन, यह कहानी का चरम बिंदु हो भी तो अंत नहीं है. अगले दो अनुच्छेद में कहानी समय का एक और अध्याय पार करती है. माँ को स्वर्ग में आसीन कर दिया जाता है, किन्तु बिल जैक्सन के साथ कथानायक की दोस्ती नियमित मुलाकातों में चल निकलती है. यह अंत और भी ह्रदय स्पर्शी इसलिए है, क्योंकि उसका मध्यान्न, उसकी ज़मीन, जिसपर कथा विकसित होती है, युवक के पैदल चलते हुए अपने बचपन की गुड़ चुराकर खाने की यादों की बनी है. इतनी खूबसूरती से अम्मा के साथ के वार्तालाप और उनके पीछे के सारे क्रिया कलाप का वर्णन है कि पाठक मिठास से भर उठता है. किन्तु गुड़ की सोंधी महक ही नहीं, उससे बचने का उपक्रम और पुनः समर्पण की कथा बेहद रोचक है, जिसके तहत गुड़ के मटकों वाले कमरे के ताले की चाभी, छिपाकर दीवार की एक संधि में रख दी जाती है, लेकिन फिर उसे कुदाल चलाकर ढूंढना पड़ता है. कुल मिलाकर यह एक अद्भुत कहानी है, जिसमें इतने रंग हैं उसे जीवंत बनाते, लेकिन उसका ऐतिहासिक चरित्र उसे सबसे अधिक अमरत्व देता है ।
प्रेमचंद की एक और अनूठी मनोवैज्ञानिक कहानी है, आखिरी मंज़िल।दरअसल, इस कहानी में प्रेम का मनोविज्ञान वर्णित है. कहानी की शैली बेहद रहस्यमय है. कहानी की शुरुआत एक प्रेमासिक्त नायक के विलाप से होती है, जो कोमल मन के चोगे में मज़बूत दिल लिए बैठा है. 'तीन साल गुज़र गए', वह कहता है, 'यही मकान है, यही बाग, यही गंगा का किनारा, यही संगमरमर का हौज.' इस पहले ही वाक्य से, एक बड़े हादसे के गुज़र जाने की सूचना कथाकार अपने पाठकों को दे देता है. 'यही मैं हूँ, यही दरो दीवार', का दिलासा वह भले ही दूसरे वाक्य में दे देता है, लेकिन पाठक जान जाता है कि बहुत कुछ दरका हुआ है. और तीसरे ही वाक्य में, इस दर्द का खुलासा हो जाता है, कि इस किसी भी चीज़ का नायक के दिल पर अब जैसे असर नहीं होता। प्रेम का अतिरेक, जिसके लिए प्रेमचंद ने सकारात्मक अर्थों में 'नशा' शब्द का प्रयोग किया है, लगभग अपने श्रृंगारिक रूप में वर्णित है. मोहिनी नामक नायिका के सौंदर्य वर्णन से लगता है कि प्रेम चंद श्रृंगार रस के भी सिद्ध हस्त लेखक हैं. उसके अलौकिक रूप वर्णन के साथ साथ, प्रेम का वह रहस्य वादी दृष्टिकोण भी मौजूद है, जो यह गणना करता है कि दो और दो मिलकर कभी एक नहीं होते।
किन्तु प्रेम के विषय में जो कथा नायिका मोहिनी कहती है, 'कि मिलन प्रेम का आदि है, अंत नहीं', वही तो सर्व ज्ञात सत्य है! फिर उसका नए से प्रतिपादन क्यों? वह तो उसे सवालिया बना देता है! कहीं नहीं बताया गया कि मोहिनी अस्वस्थ है, किन्तु उसके रूप वर्णन से एक अति सुकुमार छवि उभर कर आती है. वह क्यों इस दुनिया से रुखसत हो चुकी है, पता नहीं चलता। कथा वस्तु की स्थापना और पात्रों की मानसिक दशा से परिचय के बाद, कहानी एक तूफानी शाम को गंगा किनारे आ ठहरती है. नायक नायिका गंगा किनारे स्थित अपने बगीचे में बैठे नदी की लहरों का रसास्वादन कर रहे हैं कि तभी उन्हें लहरों पर बलखाता एक दिया दिखाई पड़ता है. मोहिनी उद्विग्न होकर, तत्काल नाँव तैयार कर उस दिए के पीछे चल दी. जबकि नायक का हृदय मोहिनी के प्रेम में डूबा था, बकौल उसके, जो मतवालापन उस वक़्त हमारे दिलों पर छाया था, उसपर मैं सौ होश मंदियाँ कुर्बान कर सकता हूँ.' किन्तु, मोहिनी तो दीये का पीछा करती ही चली जाती है, उस दिए के लहरों में खोने और मिलने में उसके प्राण अंटक गए हैं! "अभी है, अभी है, वह देखो, वह जा रहा है", दिए के गरजती लहरों पर ओझल और पुनः प्रकट होने पर वह हुलसकर कहती है.
उसके पीछे लहरों की सवारी करती वह गाती चलती है---'मैं साजन को मिलने चली'----यह गीत नायक को भी बहुत प्रभावित करता है, किन्तु जैसे ही दिया बुझता है, मोहिनी के आँसू छलक पड़ते हैं, रुंधे कंठ से वह इतना ही पूछ पाती है, "क्या यही उसकी आखिरी मंज़िल थी?" अगले दिन उसका मुख पीला है, वह रात भर जागी है. नायक कहता है, "वह कवि स्वभाव की स्त्री थी", भावुक ह्रदय और उसे दर्द में डूबी कवितायेँ पढ़ना और लिखना ही प्रिय था. दर्द का भी अपना एक नशा होता है! आत्मा और परमात्मा के सांकेतिक प्रेम के आभास के बीच, मृत्यु की छाया नदी के उस पार जलती चिता की रौशनी के बवंडर के रूप में आती है. हालाकि अंत तक नायक अपनी प्रेमिका के साथ चौपड़ की बिसात बिछाता, खेलता और हारने का लुत्फ़ उठाता है, वह आखिर कार आखिरी मंज़िल की दुहाई देती विदा हो जाती है. गंगा और बाग की सीढ़ियां अपने निष्ठुर सौंदर्य में नायक की तरह एकाकी रह जाती हैं. रहस्य के खांचों से बुनी यह प्रेम कथा प्रेम चंद की एकदम फरक लेखनी से परिचय करवाती हैं.
दरअसल, ऐसी कितनी ही कहानियां हैं, जिन्हे पढ़कर लगता है, प्रेमचंद की एक सर्वथा नयी लेखनी, नयी कलम से परिचय हो रहा है. बांका ज़मींदार एक ऐसी ही कहानी है, जिसमें एक क्रूर ज़मींदार के चरित्र चित्रण के साथ साथ, खानाबदोशों की दिलेरी और बहादुरी का चित्रण मिलता है. ज़मींदार इतना क्रूर है, कि मारे लगान की मांग के अपना गांव एक से अधिक बार खाली करवा चुका है. खाली गांव, खेत और ज़मीन से, उसे भी कोई आमदनी नहीं, किन्तु जब आस-पास के किसान वहां बस कर रबी की दूसरी फसल काटने की तैयारी में होते हैं, तो एक बार फिर अपने गुंडों की फ़ौज लेकर ठाकुर साहब वहां पहुँचते हैं. किसान उनकी आव भगत में कसर नहीं छोड़ते--दूध से हौज भर देते हैं, बकरे के ताज़े मांस के निमंत्रण स्वरुप मवेशिओं की कतार दरवाज़ों पर खड़ी कर देते हैं. किन्तु ठाकुर साहब ने जिस पहली चीज़ की मांग की, वह थी लेमोनेड और बर्फ। इस मांग पर "आसामियों के हाथों के तोते उड़ गए", कहकर कहानीकार ने एक साथ बदलते समय और शहरी ग्रामीण पसंद की सीमा रेखा को एक साथ उपस्थित कर दिया है. इतनी मज़बूत है यह दस्तक कि यह कहानी साहित्यिक मूल्यांकन के ही नहीं, इतिहास लेखन के भी काम आ सकती है.
कृषकों की क्षमा याचना का असर केवल यही हुआ कि उन्हें भी देश निकाला मिल गया---तैयार खड़ी फसल से बेदखल कर दिए गए. खालीपन का एक साल और ग़ुज़रा और उपजाऊ ज़मीन ने इस बार बंजारों को लुभाया। जैसे ही, बंजारे आकर वहां बसते हैं, तो वह ज़मींदार मुयायना करने फिर पहुँचता है. गांव वाले बंजारे उसकी अगुआई में पहुँचते हैं, तो इस बार वह उनके बात करने के तौर तरीके पर सवाल उठाता है, और इस हद तक सवालिया निशान लगाता है कि बात लड़ाई और मुकाबले तक पहुँच जाती है. किन्तु, जब बंजारे ज़मींदार की धमकियों का डटकर सामना करने का ऐलान करते हैं, तो वह अचानक प्रसन्न हो जाता है और उन्हें वहां बसे रहने की अनुमति दे देता है, यह कहता कि उसे ऐसे ही लोगों की तलाश थी. ज़मींदारी उन्मूलन के आस पास लिखी इस कहानी में पेशों की स्थितियां, तौर तरीके, कृषि की स्थिति, किसानो की मानसिकता और मनोदशा के साथ साथ समय का एक अखंड टुकड़ा कैद है.
दरअसल, यह बांका ज़मींदार गांव का नया ज़मींदार है. वह पेशे से वकील है और गांव के पुराने ज़मींदार को क़त्ल के मुक़दमे से बरी करवाने के इनाम में उसे यह जागीर उपहार में मिली है. क़त्ल किसी गवई मज़दूर का ही है, जिसकी माफ़ी कानून के सामंती चेहरे को उभारती है. हालाकि, गांव के बाशिंदों को "सरकश और झगड़ालू" कहा गया है, पर ज़मींदार की हेठी से लड़ने को बंजारे ही तैयार होते हैं. बे ज़मीन लोगों की ज़मीन के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने के साथ साथ, खेती का कच्चा चिटठा भी प्रेमचंद ने दिखाया है. आषाढ़ के महीने में किसान गहने और बर्तन बेचकर बैल ढूंढ रहे थे. अगर बैलों का यह अकाल समझ नहीं आता, तो तीन साल का बाकी लगान खेती की बदहाली दर्शा देता है. खेतों, फसलों और मौसमों के वर्णन के साथ साथ, कहानी का समूचा शिल्प अनूठा और सुंदर है।
कथा सम्राट की कितनी ही कहानियों का अनूठापन, हमें अभिभूत करता है. ऊपर वर्णित कथा में लगान की जघन्य बर्बरता के बीच जब गांव वाले दूध इत्यादि के अम्बार लगा रहे हों, ज़मींदार की बर्फ और लेमोनेड की मांग पाठक को थोड़ा तो ज़रूर गुदगुदाती है. बल्कि, कहिये कि जहाँ खुश हाली का एक चित्र सा खिंचा हो, वहां ज़मींदार की इस आधुनिक पेय की ज़िद हास्यास्पद हो जाती है! बदलते समय की विडम्बनाओं पर सुन्दर व्यंग्य, धन के अहंकार पर सशक्त छीटाकशी! बदलते तकनीक के योग से बदलते भोजन स्वाद का यह एक विरल वर्णन है. इसी तरह, तकनीक से भोजन से जुड़े रोजगार, यानी एक आटा चक्की में आयी तब्दीली की सुंदर कहानी है, मुबारक बीमारी। हालाकि, कहानी में आटा चक्की में नई मशीन लगने से आये इजाफे के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है, पिता पुत्र का रिश्ता, पीढ़ीयों के बीच का सहज अंतर्, लेकिन गौरतलब है कि यह कथाकार जीवन के चल पुर्जों के प्रति कितना सजग है. साथ ही, गौर तलब है कि प्रेम चंद का कथाकार वर्णन में किस किस्म की महारथ हासिल रखता है. कहानी की शुरुआत, अंगीठी के पास बैठी एक युवती के रूप वर्णन से होती है. उसके गाल अंगीठी से लाल हैं, वह देर रात तक पति के लिए खाना गर्म करती इंतज़ार में बैठी है. पति देर से आता है, मलिन मुख, आटा चक्की में मशीन लगा कर कुछ कर गुज़रने की तमन्ना बलवती है. उसके पिता भी पहले से गिरती आय से परेशान है, जो आटा चक्की के कीड़े मकोड़ों की तरह पैदा होने से उत्पन्न हुई है. उसी रात, उन्हें लकवे का आक्रमण होता है. किन्तु, बेटा भली भाँति चक्की संभाल लेता है, और पुत्र वधु की सेवा में उनकी तबियत भी सुधरती है. अंत में, चक्की के नवीनीकरण का राज़ उनपर खुलता है, और वे बेटे को गले लगा लेते हैं.
कहानी सुखांत है इसलिए नहीं, उसके ढाँचे में कहीं न कहीं एक पंचतंत्रीय उपदेशात्मकता है. यह किस्सा गो की कमज़ोरी नहीं, केवल हिंदी साहित्य में आधुनिकता के बाजाप्ता आगमन से पहले की बात है. हालाकि, हिंदी साहित्य में आधुनिक काल की घोषणा काफी पहले हो चुकी है, यह एक विवाद का मुद्दा है कि वास्तव में यह समय अगर हमारे गावों में नहीं आया तो कलम में कैसे आ जाएगा कृत्रिम ढंग से? इसका प्रतिपक्षी तर्क यह, कि यह समय हमारे शहरों में मौजूद है, और लगभग रोज़ लहू लुहान होता जिया जा रहा है. ऐसी ही उपदेशात्मकता लिए, प्रेमचंद की एक और ज़रूरी कहानी है, 'दूसरी शादी'. माँ के मरने के बाद, नन्हें राम स्वरुप को अगर कष्ट था, तो विमाता के आने से बढ़ ही जाता है. कहानी में पेंच यह है कि नायक खुले आम एक रूपसी अविवाहित लड़की को ब्याहने का अफ़सोस करता गहरा चिंतन करता है. शादी के दिन ही, उसके दोस्त उसे धिक्कारते हैं, कि किसी विधवा को न चुन कर एकदम कुंवारी कन्या ही ढूंढी, पर अब क्या ?
दर असल, यह विधवा विवाह को सम्भव और लोकप्रिय बनाने का युग था, और 'दूसरी शादी' कहानी कुछ इसी मंशा से प्रेरित लगती है. किन्तु, इस कहानी में अगर स्त्री स्वभाव की संकीर्णता दिखाई गयी है, तो प्रेमचंद के प्रसिद्द उपन्यास 'निर्मला' में पुरुष मन की जड़ता। जब जवान विमाता निर्मला अपने सौतेले पुत्र की स्नेहपूर्ण देखभाल करती है, तो बूढ़ा पति ईर्ष्या से जल उठता है.
प्रेम की विचित्रताओं पर एक और दिलचस्प कथा है--खुदी। दरअसल, यह एक अनाथ लड़की मुन्नी के सच्चे प्रेम की तलाश, प्रतिबद्धता, समर्पण और मोहभंग की कहानी है. मुन्नी जिस वक्त दिलदारनगर में आयी, उसकी उम्र पांच से ज़्यादा न थी. वह एक पेड़ के नीचे खेलती हुई पायी गयी थी, और उसे अपना कोई ठौर ठिकाना मालूम न था. माँ बाप का अता पता पूछने पर वह बड़ी मासूमियत से अपने हाथ ऊपर की ओर उठा देती! उनकी स्मृति उसके ज़ेहन में एक सपने की तरह थी, जो टूट चुका था या बीत चुका था. उसकी अदाएं ही मोहक नहीं, सूरत भी भोली और लुभावनी थी. सारे गांव ने उसे गोद ले लिया। हाथों हाथ खा लेती, किसी भी घर में सो जाती। और वह फ़ौरन बड़ी भी हो गयी, उन महिलाओं के काम काज में हाथ बटाने लायक जो उसे दाना पानी देती थीं. पर मुन्नी के टहल टिकोरे, काम काज का अंदाज़ यह कि जब वह तालाब पर कपड़े धोने जा रही होती, और कोई उसे किसी और काम के लिए पुकार लेता तो कपड़े वहीँ रखकर, कुँए से पानी लेने चल देती। बीच में, कोई कहता खेत से साग ले आ, तो घड़े वहीँ रख साग लेने चल देती। इस तरह, मुन्नी के पहले से लिए, कुबूले काम की ज़िम्मेदारी पूरी न कर पाने, अर्थात नए आदेश की मनाही न कर पाने की कमी से गांव की औरतें उससे नाराज़ भी हो जातीं। बड़ी बारीकी से कथाकार ने इस स्थिति को दर्शाया है--मुन्नी "सबकी थी, उसका कोई न था".
जैसे जैसे, मुन्नी जवान होती गयी, गांव के मनचले लड़कों के प्रेम का केंद्र बनती गयी. लड़के उसपर खुले आम जान छिड़कते थे, पर कोई उसकी बांह पकड़कर घर न बसाता था. जब वह चलती, उसकी राह में दिलफेंक तारे बिछाने वालों की कतार लग जाती, किन्तु कोई विवाह का प्रत्यक्ष प्रस्ताव न रखता। मुन्नी उनकी मिठाइयां ठुकरा कर सच्चे वचनबद्ध प्रेम की सूखी रोटियां तलाशती।
गांव में एक ह्रदय भग्न मुसाफिर का आना, जो मुन्नी के पूछने पर कहता है , उसे जहन्नुम में जाना है, उसका बसा बसाया घोंसला उजड़ चुका है, एक अद्भुत संयोग की तरह, कहानी में एक मोड़ लाता है . पर मुन्नी को वह काला नहीं, सांवला लगता है, उसका नयापन आकर्षक, उसकी बातें दिलेरी से भरी हुई. गांव में अपनी तीसरी रात मुसाफिर झोपड़ा डालता है, तो मुन्नी उससे पूछती है---यह झोपड़ा वह किसके लिए डालता है? मुसाफिर कहता है---जिससे वफ़ा की उम्मीद है. दरअसल, यह रूमानी और नाटकीय संवाद जितना दिलचस्प है, उतना ही कहानी का ज़रूरी हिस्सा भी. मुन्नी उसकी प्रेम दृष्टि पढ़ सशंकित होकर पूछती है, "चले तो न जाओगे?" वह कहता है, "झोंपड़ा तो रहेगा", मुन्नी कहती है, "खाली घर में भूत रहते हैं", मुसाफिर कहता है, "अपने प्यारे का भूत भी प्यारा होता है", और मुन्नी उसके साथ झोंपड़े में रहने लगती है. गांव वालों को लगता है, मुन्नी ज़रूर मुसाफिर को दग़ा देगी। पर ऐसा नहीं होता। बल्कि मुसाफिर को ही अगले दिन, शंका होती है. रूप में वफ़ा कहाँ? कहीं उसे दुबारा दग़ा का दर्द न झेलना पड़े! तीसरे दिन इस आशंका ने उसे उदास कर दिया और चौथे रोज़ वह चलता बना. किन्तु, मुन्नी ने उसके इंतज़ार में ७० लम्बे साल काट दिए! मौसम बीते, बिना मौसम भी बरसात हुई, बिजली चमकी, फूल खिले, फल लगे, पर मुन्नी दिन को मजूरी करती, शाम को झोंपड़े में आराम। कभी जो कोई रसिया उसके लकड़ियों के गट्ठर उठाये में, उसे छेड़ता, 'लकड़ी बराबर सोने से लाद दूंगा', वह अपनी मेहनत की कमाई की हेकड़ी झाड़ उसे चुप कर देती। रईस रसिक कहता, मुसाफिर गया, वह अब न आएगा! मुन्नी जवाब देती--वह गया कहाँ? वह तो मेरे दिल में बैठा है! और मुन्नी अपनी झोंपड़ी में महफूज़ रहती, जहाँ उसपर कोई आक्रमण करने की हिम्मत न करता।
इस कहानी का शीर्षक, 'अपना घर' अथवा 'अपनापा' भी हो सकता था. किन्तु, बात यह कि कहानी की विधा अपने आप में अद्भुत ढंग से मुकम्मल विधा है. जो बात कहानी में कह दी जाती है, उसकी शायद आलोचना में भी पर्याप्त व्याख्या नहीं की जा सकती। यह दो टूक बात से ज़्यादा सूक्ष्म कोई बात है. एक अनाथ किशोरी की मानसिकता को कहानी बखूबी दर्शाती है. मनुष्यगत कमजोरियों और मानव मन पेंचीदगियों के उद्घाटन में कहानी सफल है. यह सवाल भी बखूबी उठा कि जब मुन्नी के हाथ में लोग एक काम देखते हैं, तो दूसरा क्यों पकड़ा देते हैं? क्या एक के बाद दूसरे काम के क्रम के साथ, समय का हिसाब नन्ही सी बच्ची लगा सकती है? लेकिन, कहानी अपने कथानक में कुछ अनुत्तरित प्रश्न और कुछ अवांछित संकेत भी छोड़ जाती है. क्या वह मुसाफिर मानसिक रोगी था, जो तीसरे ही दिन अकारण आशंकाओं से घिर कर पलायन कर गया? लेकिन, कथा, कथा है. जो मुन्नी गांव से बाहर न गयी, तो बाहर से आये व्यक्ति से बंधकर रह गयी. प्रेम का प्रतिरोध, प्रतिशोध, उसकी विकृतियां, और उसका सौंदर्य सब वर्णित हैं।
यहाँ, यह कहना लाजिमी है कि प्रेम चंद की स्त्री दृष्टि पर आधुनिक महिला कथाकारों और आलोचकों ने कई सवाल उठाये हैं. प्रेमचंद की स्त्रियां या तो नायिकाएं होती हैं, या खलनायिकाएं, देवियां अथवा पतित। वे हमेशा पुरुष, समाज, स्थिति और समय के अधीन होती हैं. ये सभी अधीनताये आज के लेखन में भी कायम हैं, लेकिन उसमें व्यक्ति के विद्रोह और विरोध का स्वर और प्रबल हुआ है. चारित्रिक जटिलताओं के विश्लेषण की गुंजाइश बढ़ी है. कहना अत्यावश्यक है, कि प्रेमचंद ने मुन्नी के किरदार के साथ न्याय की फरसक कोशिश की है. वह तो कहानी का वितान है, केवल घटना क्रम, जो ऐसे दुखांत और फौलादी चारित्रिक वर्णन में परिणत होता है. निस्संदेह, यह चरित्र प्रधान और नायिका प्रधान कहानी है. गांव में मुन्नी की इच्छा और झोपड़े की मर्यादा का सम्मान, लोक चरित्र के साथ साथ लोक मान्यताओं को भी दर्शाता है. मुन्नी गांव में अकेली रहती है और कभी असुरक्षित नहीं होती। इस कहानी में, मुसाफिर के संवादों के माध्यम से धन दौलत द्वारा जन जीवन पर आक्रमण की त्रासदी दिखाई गयी है. मुन्नी को दिए गए प्रलोभन में भी धन दौलत का अहंकार झलकता है, जिसमें क्षति पहुंचाने की अपार क्षमता है.
इसी तरह, 'वासना की कड़ियाँ' कहानी घोड़े की टापों से लबरेज, शौर्य, पराक्रम, युद्ध, और जीत के बीच बुनी गयी एक लाजवाब प्रेम कहानी है. कहानी की भाषा न केवल उर्दू ज़दा है, बल्कि शायराना और बेहद कशिश भरी. अपने अंत तक पहुँचते पहुँचते कहानी इतनी ऊर्जा पैदा कर देती है कि जब जांबाज़ दिलेर आशिक का सर कलम होता है, तो दिल्ली के शहंशाह के कदमों में उसके लुढ़कने की आवाज़ तक सुनाई देती है!
बहादुर और भाग्य शाली कासिम मुल्तान की लड़ाई जीत कर आ रहा था. अगले दिन दिल्ली पहुंचकर शहर भर के शाही स्वागत से गुज़र कर, अपने हाकिम की शाबाशी लेने को आतुर, वह घोड़े को तेज़ दौड़ाता जाता था. तभी, उसे लश्कर की पालकी से झांकती दो जोड़ी आँखें दिखाई दीं---और वह उनके वशीभूत हो गया. इस कहानी में इस वशीकरण का जो वर्णन है, वह इस तरह से स्वर्गिक है कि पाठक को वशीभूत कर ले. इस तरह बाँध ले, जैसे जासूसी कथा का रोमांच या शायद उससे भी अधिक। प्रेम का रोमांच सर्वोपरि है. यहाँ इस रोमांच को पढ़कर, एक और ही प्रेमचंद से तआरुफ़ होता है.
कासिम जिसकी बहादुरी के चर्चे थे, जिसपर बड़ी लड़ाई की जीत का सुरूर पहले से छाया था, जो राजसी इनामों और शाही खिताबों की सुध में मतवाली सवारी कर रहा था, उसे न कोई बरछी लगी, न कटार, न किसी ने उसपर जादू किया, न मंतर, न टोना, बस, यूँ ही दिल में एक मज़ेदार सी बेसुधी, दर्द की एक लज्जत, मीठी की एक कैफियत, एक सुहानी चुभन की वह टीस महसूस हुई कि जी भर आया, रोने को आमादा हो गया, उन्हीं पलकों की पनाह तलाशने लगा. जो दो जोड़ी आँखें, सितारों सी चमककर कासिम को मोह गयी थीं, मुल्तान के राजा की बेग़मो और शहजादियों के खेमे से उठी थीं, जिनके आगे पीछे हथियार बंद ख्वाजा सराओं की एक बड़ी जमात चल रही थी. जिस कासिम ने गति बढ़ाने के लिए अपने घोड़े को एर लगाई थी, उसने तत्काल रात्रि विश्राम का ऐलान किया। किन्तु, कासिम को अपने तम्बू में चैन कहाँ ? जिन आँखों के देखे जाने से वह बेचैन हुआ था, वो शहजादी की आँखें थीं ! क्या यही इश्क़ की पहली मंज़िल थी ? कासिम अपने पहरेदारों को गश्त का हुक्म दे, शहजादी के खेमे में जा पहुँचता है.
कासिम के तम्बू की रस्सियां काट कर दाखिल होने पर भी शहजादी नहीं जागती, कासिम काफी देर उसके निद्रामग्न रूप की मदिरा का पान करता है, उसकी लटों में छिपा उसका चेहरा ऐसा है, जैसे काले अक्षरों में कोई शायराना ख़याल ! लम्बी उहा पोह के बाद, गुलाबपोश से कासिम न केवल उसे जगाता है, बल्कि अपने इश्क का इज़हार भी कर डालता है. शहजादी के पिता भाइयों के क़त्ल ए ख़ास, और उसकी रियाया के कत्ले आम के माफ़ीनामे के साथ साथ, वह समूचा हाले दिल सुना डालता है ! वह यहाँ तक कह देता है कि जिस बादशाह के हुक्म से उसने खून का यह दरिया बहाया, वे उसकी हुकूमत से दूर भाग, जंगलों में प्रेमी की तरह रह सकते हैं, लेकिन शहजादी के दिल में हरम ही में शामिल होकर सही, मलिका बनने का ख्वाब है. वह दोस्ती का हाथ बढ़ाती कहती है, हम हरम की ज़िल्लतें उठाएंगे, और आपकी तारीफ़ करेंगे शहंशाह से. न केवल उसके दिल में, शाही दीदार, शाही आगोश के मंसूबे हैं बल्कि राजनैतिक सपने भी ! लेकिन कासिम बार बार इल्तज़ा करता है और आखिरकार, शहजादी के हाथों मदिरा की प्रत्यक्ष मांग कर अपनी प्यास मिटाता है. जब वह पौ फटे, खेमे से निकलता है, तो दर्द और नशे में चूर! मुमकिन है, उसने भाँप लिया हो कि ऐसे में पारितोषिक के बजाये मिलने वाली सजाये मौत, कम दर्दनाक होगी !
कासिम शहजादी के साथ न ज़बरदस्ती करता है, न एक रात का प्रस्ताव देता है, लेकिन, उसका प्रेम वासना इसलिए कहलाता है क्योंकि शहजादी बादशाह के लिए जीती गयी थी. वैसे, एक तरफा प्रेम भी प्रेम होता है. कहानीकार ने, शाही हुक्म, शाही फरमाबरदारी, शाही गुप्तचरों, के साथ साथ शाही खून और सल्तनत के अनुशासन को सबसे अधिक तवज्जो दी है. साथ में, वो कहीं कहीं तुलसीदास की कथनी 'नारी नर्क का द्वार है' से भी प्रभावित हैं. लेकिन, उस चुंबकीय आकर्षण का कथाकार ने बड़ी ईमानदारी के साथ वर्णन किया है. बहरहाल, मानव मन की जटिलताएं लैला मजनू और शीरी फरहाद की प्रेम कथा में क्या, आये दिन जाति के आधार पर प्रेम विवाहों में आयी अड़चनों में देखा जा सकता है. एक तरफ़ा प्रेम, मौन हो, खामोश हो, बलिदानी हो, आधुनिक कहानी इसे भी नहीं स्वीकारती। बहरहाल, जिस शायराना अंदाज़ में फतह और लश्कर के कूच के बीच, शहजादी और बादशाह के बीच के आकर्षण के चटकते धागे दिखाए गए हैं, काबिले तारीफ़ हैं. प्रेमचंद ने यह कहानी ठीक ठीक कब लिखी, मालूम करना कठिन है. लेकिन मुग़लिया सल्तनत की सारी शानो शौकत यहाँ बयां है. बीतते हुए, मध्य युगीन ज़माने का रुतबा और उसकी कशिश जैसे दर्ज़ है. लेकिन, प्रेम चंद द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ने से पहले १९३६ में दुनिया से कूच कर गए. इस युद्ध के दौरान, समय, संसाधन, मानवता, प्रेम, वासना, वहशियत की वह रेखाएं पार की गयीं कि नात्सी सैनिकों की कचहरी में सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा कि क़त्ल के जो तरीके उन्होंने अपनाये, वो केवल अपने सेना नायकों का हुक्म बजाते।
गौर तलब है, कि अंग्रेज़ों के साथ आधुनिकता के आने का जो वर्णन प्रेमचंद ने 'शतरंज के खिलाड़ी' में किया है वह अनेकार्थी और बहुआयामी है. वह कहानी, हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कहानियो में गिनी जाती है. हिंदी साहित्य में द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका से अधिक विभाजन की त्रासदी का चित्रण है. जाहिर सी बात है, विभाजन की त्रासदी वह सबसे बड़ी त्रासदी थी, जो इस भू भाग ने झेली, लेकिन उससे पहले अकाल से लेकर तमाम तरहों की विभीषिकाओं का दंश लोग झेल रहे थे. आश्चर्य है, कि लगान, बिगड़ी हुई खेती आदि विषयों पर बहुत कम लिखा गया है.
लेखन की दुनिया और प्रेम की एक और दिलचस्प दास्ताँ, जो एक शायर की है, प्रेमचंद की कलम से जैसे जीवित हो उठी है. 'अमृत' शीर्षक यह कहानी 'मैं' की शैली में कही गयी है. कमाल कि बात कि यहाँ भी दर्द के मज़े की बात कही गयी है. नायक की उठती जवानी थी जब लेखन के दर्दीले फन से उसका परिचय हुआ. कुछ समय तक वह शायरी का अभ्यास ही करता रहा, फिर इस शौक ने तल्लीनता का रूप इस तरह अख्त्यार किया, कि सामजिक संबंधों से मुंह मोड़कर कलम की दुनिया में आ बसा. तीन साल के भीतर कल्पना ने वो जौहर दिखाए कि शायर महोदय ने बड़े बड़ों से टक्कर ले ली. उन्होंने अपनी शायरी को फारस से निकालकर यूरोप तक पहुंचा दिया। लेखक के इस वर्णन से साफ़ जाहिर है, कि लेखन की स्थिति अच्छी थी. शायर ये तक कह डालता है, कि किसी उस्ताद के आगे सर झुकाये बिना, उसकी कल्पना और शायरी किसी पौधे की तरह छंद और पिंगल की कैद से आज़ाद बढ़ती रही, और ऐसे में निराले शेर गढ़ लिए. शोहरत अपने साथ दौलत भी लायी। सुंदरियों की संगति जैसे उन्हें विह्वल करती, किन्तु उन्होंने अपने दिल को किसी ख़ास की तलाश में खाली रख छोड़ा था. जनाब की पहली किताब, 'दुनिया ए हुस्न', के प्रकाशन के दो साल बाद, किन्तु उन्हें जैसे किसी रोग ने धर लिया।
शायरी ने जैसे उनसे मुंह मोड़ लिया, कलम जैसे बैरी बन गयी, दिमाग की ज़मीन जैसे उसर, धूसर, बंजर। पहाड़ घूम आये, पर लाभ न हुआ. ऐसे में, कई हथकंडे अपनाने के बाद, शायर महोदय ने अपनी मृत्यु की खबर अखबारों में भेज दी. कुहराम मच गया. अखबार ने जिस उदारता के साथ, उनकी कला को जीवित रखते हुए, उन्हें श्रद्धांजलि दी थी, उससे उन्हें संतोष हुआ. लेकिन शायरी पलटकर उनके करीब नहीं आयी. एक दिन, अपनी प्रेत दुनिया से निकलकर, अजमेर की लाइब्रेरी में भटकते हुए उन्हें एक शायरा की किताब मिली जिसपर उनका नाम लिखा था, 'कलाम-ए-अख्तर'. हमारे शायर जनाब जा कर मिलते हैं, और कुछ समय के बाद, शायरा मिस आयशा दुल्हन बन कर अख्तर साहब के घर आ जाती हैं. कुछ समय के बाद, शायर जी की अधूरी पड़ी किताब 'नैरंग' भी पूरी हो जाती है।
प्रेमचंद के यहाँ अगर दुर्योग हैं, तो सुयोग भी, अगर बड़ी घटनाएं हैं, तो उनकी नक़ल की कॉपी भी. प्रेमचंद के लेखन संसार में गंभीर चिंतन है, दिलेरी भी और किस्म किस्म के पेंच। कितनी ही ऐसी कहानियां हैं, जो अपनी कलाबाज़ी और जोखिम भरे कथानक से मोहित कर लेती हैं. गैरत की कटार, इज़्ज़त का खून, वफ़ा का खंजर कुछ ऐसी ही चमत्कृत कर देने वाली कहानियां हैं. कातिल एक विरल विषय पर दुर्लभ कहानी है, जो लम्बी व्याख्या गहन अध्ययन की मांग करती है. दरअसल, प्रेमचंद की कथाओं में अगर समय के अनेकानेक चेहरे देखने को मिलते हैं, तो मानव मन के भी गूढ़ रहस्य खुलते हैं।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
सुश्री पंखुरी सिन्हा |
कुछ कम चर्चित कथाएं कथा सम्राट की........
कथा सम्राट प्रेमचंद को हम बचपन से पढ़ते चले आ रहे हैं. मुझे लगता है अगर छठी कक्षा में ईदगाह कहानी पढ़ी होगी, तो आठवीं में नशा. जैसा कि नवारुण पाल ने कहा है, बचपन का पढ़ा भूलता नहीं। जैसे रहीम और रसखान के दोहे याद हैं, वैसे ही प्रेमचंद की कहानियों की बारीकियां भी और इन सभी कहानियों में नई बारीकियाँ ढूंढी जा सकती हैं. वैश्वीकरण के इस अंध युग में, जब पैसा ईश्वर बनता जा रहा है, ये दोनों कहानियां बार बार पढ़ने पढ़ाने लायक हैं. इसी तरह, बूढी काकी, नमक का दरोगा और अन्य कई कहानियां, निर्मला और गोदान जैसे कई उपन्यास। लेकिन प्रेमचंद की कुछ कम चर्चित कहानियां हैं, जो इत्तफ़ाक से हाथ लग गयीं, और वाक़ई लाजवाब हैं. कथ्य से लेकर शिल्प तक, अनूठी संरचना और बनावट वाली कहानियां समय के सशक्त चित्रण के साथ साथ, अद्भुत मनोविज्ञान भी दिखाती हैं।
संयोग से, जो पहली कहानी हाथ लगी वह एक नवयुवक के नौकरी से घर लौटने की कहानी है. 'होली की छुट्टी' शीर्षक इस कहानी में मनोविज्ञान तो है ही, लेकिन बीतते हुए अंग्रेजी राज की शिक्षा प्रणाली समेत समूची व्यवस्था, अव्यवस्था का चित्रण है. साथ में, रेल समेत तमाम यातायात की बदहाली, ख़ास कर सडकों की भूल-भुलैया, का उम्दा चित्रण करती है कहानी। कहानी का लहजा नदी के उफान जैसा है. लहरों पर जैसे ठुमकती चलती है कहानी। उसमें अतिशय गति शीलता है, नदी की तरंगायित चाल. कहानी की शुरुआत एक घोषणा अथवा सूचना के साथ होती है, "वर्नाक्युलर फाइनल पास करने के बाद मुझे एक प्राइमरी स्कूल में जगह मिली, जो मेरे घर से ग्यारह मील पर था." दूसरे ही वाक्य से यह नव नियुक्त मास्टर अपने हेड मास्टर का वह चरित्र चित्रण करता है, कि सच स्कूल के दिन सजीव हो उठते हैं. हेड मास्टर की छुट्टियों में भी पढ़ाने की सनक, लड़कों की रात्रि भोजन के बाद की हाजिरी, हेड मास्टर का नींद से लोट पोट हो, खर्राटों से उन्हें पढ़ाना, लड़को के धौल धप्पे से चौंक कर जागना, उन्हें तमाचे जड़ पुनः निद्रा देवी की गोद में लौट जाना, और अंततः लड़कों का भी निढाल हो पड़ रहना, अर्ध रात्रि तक की स्कूली दिनचर्या का सजीव चित्रण यहाँ उपस्थित है. नायक बस इतने से संतुष्ट है, कि नाईट स्कूल की इस ड्रामे बाज़ी में उसे तलब नहीं किया जाता।
छुट्टी न मिलने का आधुनिक रोना, यहीं इसी कहानी में बखूबी आरम्भ है. सोमवती अमावस्या और शिव रात्रि जैसे अनोखे त्योहारों के गुज़र जाने का जिक्र तो है ही, वसंत के भी बीत जाने का अफ़सोस पर्व सा, और इतवारों का कहना ही क्या? नवयुवक की अधीरता, घर जाने की आतुरता, होली की तारीख तक के ऐलान में दिखती है, जिस अवसर पर छुट्टी लेने का हेडमास्टर को दिया अल्टीमेटम तो वह पाठकों के साथ साझा करता ही है, अपनी यह मंशा भी कि छुट्टी वह लेकर रहेगा, भले नौकरी से हाथ क्यों न धोना पड़े. लेकिन हेडमास्टर भी वैसी ही तबियत के हैं. उसे रोकते ये तक कह बैठते हैं, कि कहीं इस अप्रत्याशित छुट्टी की वजह से, लड़के फेल न हो जाएँ! लेकिन नव नियुक्त तो लिहाफ काँधे पर धर, किताबों की बांधे पोटली, स्कूल से नौ दो ग्यारह हो लेता है. इतनी एहतियात बरतता है, कि निकलते वक्त सलाम तक बजाने नहीं जाता, वर्ना औसत हाजिरी निकालने, रजिस्टर में फीस की मीजान लगाते जाने जैसे कामों की फेहरिस्त थमा कर रोक लिया जाता, लेकिन नव युवक की गाड़ी,जो छूटनी थी, वह छूट ही गयी. उसके सांस रोके स्टेशन तक की लपकती चाल का सुंदर वर्णन है. यह वर्णन अत्यंत सजीव तब हो आता है, जब स्टेशन दूर से दिखता है, सिग्नल डाउन भी और गाड़ी आती है, मिनट भर को रुकती है और चल देती है! जोश की जोश में युवक घर की १२ मील की दूरी पैदल ही पार कर लेने की सोचता है! उसके गांव का रास्ता गंगा पार है, जिसे वह नाँव पर बखूबी पार कर लेता है. नदी पर सूर्यास्त का वर्णन बहुत जीवंत है. नदी पार कर, चने के खेत से एक झाड़ तोड़ टूंगता हुआ वह चलता जाता है, सोचता, अब पहुंचा, तब पहुंचा। लेकिन जब वह काफी चलने पर भी नहीं पहुँचता तो सशंकित होता है. ऐसे में, अर्ध रात्रि के करीब, जब वह जंगली जानवरों से भी खौफ खा रहा है, उसकी भेंट एक अँगरेज़ सरीखे व्यक्ति से होती है. बिल जैक्सन उसे दिशा का समूचा ज्ञान देते हैं और यह सूचना भी कि दरअसल वह अँधेरे में रास्ता भटक गया है. वह एक बार फिर नदी पार करने की स्थिति में इसी ओर खड़ा है. मिस्टर जैक्सन न केवल दिशा निर्देश देते हैं, बल्कि कंधे पर बिठाकर उसे नदी भी पार करवा देते हैं! बीच धार में पहुंचने पर वह उसे बच्चों की तरह गोद में उठा लेते हैं.
बिल जैक्सन के परिचय में समय सजीव हो उठता है. उसके पिता एक अँगरेज़ फौजी थे, माँ फ़ौज के लिए खाना पकाने वाली एक महिला। बिल जैक्सन खुद द्वितीय विश्व युद्ध तक की लड़ाई लड़कर लौटे हैं. उनके पास युद्ध भूमि के एक से एक किस्से हैं, और इस बात का गुरूर भी कि उन्होंने एक आत ताई जर्मन जेनेरल का खून किया है, बतौर सैनिक, युद्ध के मैदान में. अब लड़ाई के मैदान से लौटकर, वह फसलों की निगरानी का काम करते हैं. उनकी बदौलत, कथा नायक, जोशीला नौजवान, सही सलामत उसी रात ३ बजे जब घर पहुँचता है, तब होली जल रही होती है. उसकी आतुर माँ उसके स्वागत में बाहर आती है, और इस तरह सफर पूरा होता है. लेकिन, यह कहानी का चरम बिंदु हो भी तो अंत नहीं है. अगले दो अनुच्छेद में कहानी समय का एक और अध्याय पार करती है. माँ को स्वर्ग में आसीन कर दिया जाता है, किन्तु बिल जैक्सन के साथ कथानायक की दोस्ती नियमित मुलाकातों में चल निकलती है. यह अंत और भी ह्रदय स्पर्शी इसलिए है, क्योंकि उसका मध्यान्न, उसकी ज़मीन, जिसपर कथा विकसित होती है, युवक के पैदल चलते हुए अपने बचपन की गुड़ चुराकर खाने की यादों की बनी है. इतनी खूबसूरती से अम्मा के साथ के वार्तालाप और उनके पीछे के सारे क्रिया कलाप का वर्णन है कि पाठक मिठास से भर उठता है. किन्तु गुड़ की सोंधी महक ही नहीं, उससे बचने का उपक्रम और पुनः समर्पण की कथा बेहद रोचक है, जिसके तहत गुड़ के मटकों वाले कमरे के ताले की चाभी, छिपाकर दीवार की एक संधि में रख दी जाती है, लेकिन फिर उसे कुदाल चलाकर ढूंढना पड़ता है. कुल मिलाकर यह एक अद्भुत कहानी है, जिसमें इतने रंग हैं उसे जीवंत बनाते, लेकिन उसका ऐतिहासिक चरित्र उसे सबसे अधिक अमरत्व देता है ।
प्रेमचंद की एक और अनूठी मनोवैज्ञानिक कहानी है, आखिरी मंज़िल।दरअसल, इस कहानी में प्रेम का मनोविज्ञान वर्णित है. कहानी की शैली बेहद रहस्यमय है. कहानी की शुरुआत एक प्रेमासिक्त नायक के विलाप से होती है, जो कोमल मन के चोगे में मज़बूत दिल लिए बैठा है. 'तीन साल गुज़र गए', वह कहता है, 'यही मकान है, यही बाग, यही गंगा का किनारा, यही संगमरमर का हौज.' इस पहले ही वाक्य से, एक बड़े हादसे के गुज़र जाने की सूचना कथाकार अपने पाठकों को दे देता है. 'यही मैं हूँ, यही दरो दीवार', का दिलासा वह भले ही दूसरे वाक्य में दे देता है, लेकिन पाठक जान जाता है कि बहुत कुछ दरका हुआ है. और तीसरे ही वाक्य में, इस दर्द का खुलासा हो जाता है, कि इस किसी भी चीज़ का नायक के दिल पर अब जैसे असर नहीं होता। प्रेम का अतिरेक, जिसके लिए प्रेमचंद ने सकारात्मक अर्थों में 'नशा' शब्द का प्रयोग किया है, लगभग अपने श्रृंगारिक रूप में वर्णित है. मोहिनी नामक नायिका के सौंदर्य वर्णन से लगता है कि प्रेम चंद श्रृंगार रस के भी सिद्ध हस्त लेखक हैं. उसके अलौकिक रूप वर्णन के साथ साथ, प्रेम का वह रहस्य वादी दृष्टिकोण भी मौजूद है, जो यह गणना करता है कि दो और दो मिलकर कभी एक नहीं होते।
किन्तु प्रेम के विषय में जो कथा नायिका मोहिनी कहती है, 'कि मिलन प्रेम का आदि है, अंत नहीं', वही तो सर्व ज्ञात सत्य है! फिर उसका नए से प्रतिपादन क्यों? वह तो उसे सवालिया बना देता है! कहीं नहीं बताया गया कि मोहिनी अस्वस्थ है, किन्तु उसके रूप वर्णन से एक अति सुकुमार छवि उभर कर आती है. वह क्यों इस दुनिया से रुखसत हो चुकी है, पता नहीं चलता। कथा वस्तु की स्थापना और पात्रों की मानसिक दशा से परिचय के बाद, कहानी एक तूफानी शाम को गंगा किनारे आ ठहरती है. नायक नायिका गंगा किनारे स्थित अपने बगीचे में बैठे नदी की लहरों का रसास्वादन कर रहे हैं कि तभी उन्हें लहरों पर बलखाता एक दिया दिखाई पड़ता है. मोहिनी उद्विग्न होकर, तत्काल नाँव तैयार कर उस दिए के पीछे चल दी. जबकि नायक का हृदय मोहिनी के प्रेम में डूबा था, बकौल उसके, जो मतवालापन उस वक़्त हमारे दिलों पर छाया था, उसपर मैं सौ होश मंदियाँ कुर्बान कर सकता हूँ.' किन्तु, मोहिनी तो दीये का पीछा करती ही चली जाती है, उस दिए के लहरों में खोने और मिलने में उसके प्राण अंटक गए हैं! "अभी है, अभी है, वह देखो, वह जा रहा है", दिए के गरजती लहरों पर ओझल और पुनः प्रकट होने पर वह हुलसकर कहती है.
उसके पीछे लहरों की सवारी करती वह गाती चलती है---'मैं साजन को मिलने चली'----यह गीत नायक को भी बहुत प्रभावित करता है, किन्तु जैसे ही दिया बुझता है, मोहिनी के आँसू छलक पड़ते हैं, रुंधे कंठ से वह इतना ही पूछ पाती है, "क्या यही उसकी आखिरी मंज़िल थी?" अगले दिन उसका मुख पीला है, वह रात भर जागी है. नायक कहता है, "वह कवि स्वभाव की स्त्री थी", भावुक ह्रदय और उसे दर्द में डूबी कवितायेँ पढ़ना और लिखना ही प्रिय था. दर्द का भी अपना एक नशा होता है! आत्मा और परमात्मा के सांकेतिक प्रेम के आभास के बीच, मृत्यु की छाया नदी के उस पार जलती चिता की रौशनी के बवंडर के रूप में आती है. हालाकि अंत तक नायक अपनी प्रेमिका के साथ चौपड़ की बिसात बिछाता, खेलता और हारने का लुत्फ़ उठाता है, वह आखिर कार आखिरी मंज़िल की दुहाई देती विदा हो जाती है. गंगा और बाग की सीढ़ियां अपने निष्ठुर सौंदर्य में नायक की तरह एकाकी रह जाती हैं. रहस्य के खांचों से बुनी यह प्रेम कथा प्रेम चंद की एकदम फरक लेखनी से परिचय करवाती हैं.
दरअसल, ऐसी कितनी ही कहानियां हैं, जिन्हे पढ़कर लगता है, प्रेमचंद की एक सर्वथा नयी लेखनी, नयी कलम से परिचय हो रहा है. बांका ज़मींदार एक ऐसी ही कहानी है, जिसमें एक क्रूर ज़मींदार के चरित्र चित्रण के साथ साथ, खानाबदोशों की दिलेरी और बहादुरी का चित्रण मिलता है. ज़मींदार इतना क्रूर है, कि मारे लगान की मांग के अपना गांव एक से अधिक बार खाली करवा चुका है. खाली गांव, खेत और ज़मीन से, उसे भी कोई आमदनी नहीं, किन्तु जब आस-पास के किसान वहां बस कर रबी की दूसरी फसल काटने की तैयारी में होते हैं, तो एक बार फिर अपने गुंडों की फ़ौज लेकर ठाकुर साहब वहां पहुँचते हैं. किसान उनकी आव भगत में कसर नहीं छोड़ते--दूध से हौज भर देते हैं, बकरे के ताज़े मांस के निमंत्रण स्वरुप मवेशिओं की कतार दरवाज़ों पर खड़ी कर देते हैं. किन्तु ठाकुर साहब ने जिस पहली चीज़ की मांग की, वह थी लेमोनेड और बर्फ। इस मांग पर "आसामियों के हाथों के तोते उड़ गए", कहकर कहानीकार ने एक साथ बदलते समय और शहरी ग्रामीण पसंद की सीमा रेखा को एक साथ उपस्थित कर दिया है. इतनी मज़बूत है यह दस्तक कि यह कहानी साहित्यिक मूल्यांकन के ही नहीं, इतिहास लेखन के भी काम आ सकती है.
कृषकों की क्षमा याचना का असर केवल यही हुआ कि उन्हें भी देश निकाला मिल गया---तैयार खड़ी फसल से बेदखल कर दिए गए. खालीपन का एक साल और ग़ुज़रा और उपजाऊ ज़मीन ने इस बार बंजारों को लुभाया। जैसे ही, बंजारे आकर वहां बसते हैं, तो वह ज़मींदार मुयायना करने फिर पहुँचता है. गांव वाले बंजारे उसकी अगुआई में पहुँचते हैं, तो इस बार वह उनके बात करने के तौर तरीके पर सवाल उठाता है, और इस हद तक सवालिया निशान लगाता है कि बात लड़ाई और मुकाबले तक पहुँच जाती है. किन्तु, जब बंजारे ज़मींदार की धमकियों का डटकर सामना करने का ऐलान करते हैं, तो वह अचानक प्रसन्न हो जाता है और उन्हें वहां बसे रहने की अनुमति दे देता है, यह कहता कि उसे ऐसे ही लोगों की तलाश थी. ज़मींदारी उन्मूलन के आस पास लिखी इस कहानी में पेशों की स्थितियां, तौर तरीके, कृषि की स्थिति, किसानो की मानसिकता और मनोदशा के साथ साथ समय का एक अखंड टुकड़ा कैद है.
दरअसल, यह बांका ज़मींदार गांव का नया ज़मींदार है. वह पेशे से वकील है और गांव के पुराने ज़मींदार को क़त्ल के मुक़दमे से बरी करवाने के इनाम में उसे यह जागीर उपहार में मिली है. क़त्ल किसी गवई मज़दूर का ही है, जिसकी माफ़ी कानून के सामंती चेहरे को उभारती है. हालाकि, गांव के बाशिंदों को "सरकश और झगड़ालू" कहा गया है, पर ज़मींदार की हेठी से लड़ने को बंजारे ही तैयार होते हैं. बे ज़मीन लोगों की ज़मीन के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने के साथ साथ, खेती का कच्चा चिटठा भी प्रेमचंद ने दिखाया है. आषाढ़ के महीने में किसान गहने और बर्तन बेचकर बैल ढूंढ रहे थे. अगर बैलों का यह अकाल समझ नहीं आता, तो तीन साल का बाकी लगान खेती की बदहाली दर्शा देता है. खेतों, फसलों और मौसमों के वर्णन के साथ साथ, कहानी का समूचा शिल्प अनूठा और सुंदर है।
कथा सम्राट की कितनी ही कहानियों का अनूठापन, हमें अभिभूत करता है. ऊपर वर्णित कथा में लगान की जघन्य बर्बरता के बीच जब गांव वाले दूध इत्यादि के अम्बार लगा रहे हों, ज़मींदार की बर्फ और लेमोनेड की मांग पाठक को थोड़ा तो ज़रूर गुदगुदाती है. बल्कि, कहिये कि जहाँ खुश हाली का एक चित्र सा खिंचा हो, वहां ज़मींदार की इस आधुनिक पेय की ज़िद हास्यास्पद हो जाती है! बदलते समय की विडम्बनाओं पर सुन्दर व्यंग्य, धन के अहंकार पर सशक्त छीटाकशी! बदलते तकनीक के योग से बदलते भोजन स्वाद का यह एक विरल वर्णन है. इसी तरह, तकनीक से भोजन से जुड़े रोजगार, यानी एक आटा चक्की में आयी तब्दीली की सुंदर कहानी है, मुबारक बीमारी। हालाकि, कहानी में आटा चक्की में नई मशीन लगने से आये इजाफे के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है, पिता पुत्र का रिश्ता, पीढ़ीयों के बीच का सहज अंतर्, लेकिन गौरतलब है कि यह कथाकार जीवन के चल पुर्जों के प्रति कितना सजग है. साथ ही, गौर तलब है कि प्रेम चंद का कथाकार वर्णन में किस किस्म की महारथ हासिल रखता है. कहानी की शुरुआत, अंगीठी के पास बैठी एक युवती के रूप वर्णन से होती है. उसके गाल अंगीठी से लाल हैं, वह देर रात तक पति के लिए खाना गर्म करती इंतज़ार में बैठी है. पति देर से आता है, मलिन मुख, आटा चक्की में मशीन लगा कर कुछ कर गुज़रने की तमन्ना बलवती है. उसके पिता भी पहले से गिरती आय से परेशान है, जो आटा चक्की के कीड़े मकोड़ों की तरह पैदा होने से उत्पन्न हुई है. उसी रात, उन्हें लकवे का आक्रमण होता है. किन्तु, बेटा भली भाँति चक्की संभाल लेता है, और पुत्र वधु की सेवा में उनकी तबियत भी सुधरती है. अंत में, चक्की के नवीनीकरण का राज़ उनपर खुलता है, और वे बेटे को गले लगा लेते हैं.
कहानी सुखांत है इसलिए नहीं, उसके ढाँचे में कहीं न कहीं एक पंचतंत्रीय उपदेशात्मकता है. यह किस्सा गो की कमज़ोरी नहीं, केवल हिंदी साहित्य में आधुनिकता के बाजाप्ता आगमन से पहले की बात है. हालाकि, हिंदी साहित्य में आधुनिक काल की घोषणा काफी पहले हो चुकी है, यह एक विवाद का मुद्दा है कि वास्तव में यह समय अगर हमारे गावों में नहीं आया तो कलम में कैसे आ जाएगा कृत्रिम ढंग से? इसका प्रतिपक्षी तर्क यह, कि यह समय हमारे शहरों में मौजूद है, और लगभग रोज़ लहू लुहान होता जिया जा रहा है. ऐसी ही उपदेशात्मकता लिए, प्रेमचंद की एक और ज़रूरी कहानी है, 'दूसरी शादी'. माँ के मरने के बाद, नन्हें राम स्वरुप को अगर कष्ट था, तो विमाता के आने से बढ़ ही जाता है. कहानी में पेंच यह है कि नायक खुले आम एक रूपसी अविवाहित लड़की को ब्याहने का अफ़सोस करता गहरा चिंतन करता है. शादी के दिन ही, उसके दोस्त उसे धिक्कारते हैं, कि किसी विधवा को न चुन कर एकदम कुंवारी कन्या ही ढूंढी, पर अब क्या ?
दर असल, यह विधवा विवाह को सम्भव और लोकप्रिय बनाने का युग था, और 'दूसरी शादी' कहानी कुछ इसी मंशा से प्रेरित लगती है. किन्तु, इस कहानी में अगर स्त्री स्वभाव की संकीर्णता दिखाई गयी है, तो प्रेमचंद के प्रसिद्द उपन्यास 'निर्मला' में पुरुष मन की जड़ता। जब जवान विमाता निर्मला अपने सौतेले पुत्र की स्नेहपूर्ण देखभाल करती है, तो बूढ़ा पति ईर्ष्या से जल उठता है.
प्रेम की विचित्रताओं पर एक और दिलचस्प कथा है--खुदी। दरअसल, यह एक अनाथ लड़की मुन्नी के सच्चे प्रेम की तलाश, प्रतिबद्धता, समर्पण और मोहभंग की कहानी है. मुन्नी जिस वक्त दिलदारनगर में आयी, उसकी उम्र पांच से ज़्यादा न थी. वह एक पेड़ के नीचे खेलती हुई पायी गयी थी, और उसे अपना कोई ठौर ठिकाना मालूम न था. माँ बाप का अता पता पूछने पर वह बड़ी मासूमियत से अपने हाथ ऊपर की ओर उठा देती! उनकी स्मृति उसके ज़ेहन में एक सपने की तरह थी, जो टूट चुका था या बीत चुका था. उसकी अदाएं ही मोहक नहीं, सूरत भी भोली और लुभावनी थी. सारे गांव ने उसे गोद ले लिया। हाथों हाथ खा लेती, किसी भी घर में सो जाती। और वह फ़ौरन बड़ी भी हो गयी, उन महिलाओं के काम काज में हाथ बटाने लायक जो उसे दाना पानी देती थीं. पर मुन्नी के टहल टिकोरे, काम काज का अंदाज़ यह कि जब वह तालाब पर कपड़े धोने जा रही होती, और कोई उसे किसी और काम के लिए पुकार लेता तो कपड़े वहीँ रखकर, कुँए से पानी लेने चल देती। बीच में, कोई कहता खेत से साग ले आ, तो घड़े वहीँ रख साग लेने चल देती। इस तरह, मुन्नी के पहले से लिए, कुबूले काम की ज़िम्मेदारी पूरी न कर पाने, अर्थात नए आदेश की मनाही न कर पाने की कमी से गांव की औरतें उससे नाराज़ भी हो जातीं। बड़ी बारीकी से कथाकार ने इस स्थिति को दर्शाया है--मुन्नी "सबकी थी, उसका कोई न था".
जैसे जैसे, मुन्नी जवान होती गयी, गांव के मनचले लड़कों के प्रेम का केंद्र बनती गयी. लड़के उसपर खुले आम जान छिड़कते थे, पर कोई उसकी बांह पकड़कर घर न बसाता था. जब वह चलती, उसकी राह में दिलफेंक तारे बिछाने वालों की कतार लग जाती, किन्तु कोई विवाह का प्रत्यक्ष प्रस्ताव न रखता। मुन्नी उनकी मिठाइयां ठुकरा कर सच्चे वचनबद्ध प्रेम की सूखी रोटियां तलाशती।
गांव में एक ह्रदय भग्न मुसाफिर का आना, जो मुन्नी के पूछने पर कहता है , उसे जहन्नुम में जाना है, उसका बसा बसाया घोंसला उजड़ चुका है, एक अद्भुत संयोग की तरह, कहानी में एक मोड़ लाता है . पर मुन्नी को वह काला नहीं, सांवला लगता है, उसका नयापन आकर्षक, उसकी बातें दिलेरी से भरी हुई. गांव में अपनी तीसरी रात मुसाफिर झोपड़ा डालता है, तो मुन्नी उससे पूछती है---यह झोपड़ा वह किसके लिए डालता है? मुसाफिर कहता है---जिससे वफ़ा की उम्मीद है. दरअसल, यह रूमानी और नाटकीय संवाद जितना दिलचस्प है, उतना ही कहानी का ज़रूरी हिस्सा भी. मुन्नी उसकी प्रेम दृष्टि पढ़ सशंकित होकर पूछती है, "चले तो न जाओगे?" वह कहता है, "झोंपड़ा तो रहेगा", मुन्नी कहती है, "खाली घर में भूत रहते हैं", मुसाफिर कहता है, "अपने प्यारे का भूत भी प्यारा होता है", और मुन्नी उसके साथ झोंपड़े में रहने लगती है. गांव वालों को लगता है, मुन्नी ज़रूर मुसाफिर को दग़ा देगी। पर ऐसा नहीं होता। बल्कि मुसाफिर को ही अगले दिन, शंका होती है. रूप में वफ़ा कहाँ? कहीं उसे दुबारा दग़ा का दर्द न झेलना पड़े! तीसरे दिन इस आशंका ने उसे उदास कर दिया और चौथे रोज़ वह चलता बना. किन्तु, मुन्नी ने उसके इंतज़ार में ७० लम्बे साल काट दिए! मौसम बीते, बिना मौसम भी बरसात हुई, बिजली चमकी, फूल खिले, फल लगे, पर मुन्नी दिन को मजूरी करती, शाम को झोंपड़े में आराम। कभी जो कोई रसिया उसके लकड़ियों के गट्ठर उठाये में, उसे छेड़ता, 'लकड़ी बराबर सोने से लाद दूंगा', वह अपनी मेहनत की कमाई की हेकड़ी झाड़ उसे चुप कर देती। रईस रसिक कहता, मुसाफिर गया, वह अब न आएगा! मुन्नी जवाब देती--वह गया कहाँ? वह तो मेरे दिल में बैठा है! और मुन्नी अपनी झोंपड़ी में महफूज़ रहती, जहाँ उसपर कोई आक्रमण करने की हिम्मत न करता।
इस कहानी का शीर्षक, 'अपना घर' अथवा 'अपनापा' भी हो सकता था. किन्तु, बात यह कि कहानी की विधा अपने आप में अद्भुत ढंग से मुकम्मल विधा है. जो बात कहानी में कह दी जाती है, उसकी शायद आलोचना में भी पर्याप्त व्याख्या नहीं की जा सकती। यह दो टूक बात से ज़्यादा सूक्ष्म कोई बात है. एक अनाथ किशोरी की मानसिकता को कहानी बखूबी दर्शाती है. मनुष्यगत कमजोरियों और मानव मन पेंचीदगियों के उद्घाटन में कहानी सफल है. यह सवाल भी बखूबी उठा कि जब मुन्नी के हाथ में लोग एक काम देखते हैं, तो दूसरा क्यों पकड़ा देते हैं? क्या एक के बाद दूसरे काम के क्रम के साथ, समय का हिसाब नन्ही सी बच्ची लगा सकती है? लेकिन, कहानी अपने कथानक में कुछ अनुत्तरित प्रश्न और कुछ अवांछित संकेत भी छोड़ जाती है. क्या वह मुसाफिर मानसिक रोगी था, जो तीसरे ही दिन अकारण आशंकाओं से घिर कर पलायन कर गया? लेकिन, कथा, कथा है. जो मुन्नी गांव से बाहर न गयी, तो बाहर से आये व्यक्ति से बंधकर रह गयी. प्रेम का प्रतिरोध, प्रतिशोध, उसकी विकृतियां, और उसका सौंदर्य सब वर्णित हैं।
यहाँ, यह कहना लाजिमी है कि प्रेम चंद की स्त्री दृष्टि पर आधुनिक महिला कथाकारों और आलोचकों ने कई सवाल उठाये हैं. प्रेमचंद की स्त्रियां या तो नायिकाएं होती हैं, या खलनायिकाएं, देवियां अथवा पतित। वे हमेशा पुरुष, समाज, स्थिति और समय के अधीन होती हैं. ये सभी अधीनताये आज के लेखन में भी कायम हैं, लेकिन उसमें व्यक्ति के विद्रोह और विरोध का स्वर और प्रबल हुआ है. चारित्रिक जटिलताओं के विश्लेषण की गुंजाइश बढ़ी है. कहना अत्यावश्यक है, कि प्रेमचंद ने मुन्नी के किरदार के साथ न्याय की फरसक कोशिश की है. वह तो कहानी का वितान है, केवल घटना क्रम, जो ऐसे दुखांत और फौलादी चारित्रिक वर्णन में परिणत होता है. निस्संदेह, यह चरित्र प्रधान और नायिका प्रधान कहानी है. गांव में मुन्नी की इच्छा और झोपड़े की मर्यादा का सम्मान, लोक चरित्र के साथ साथ लोक मान्यताओं को भी दर्शाता है. मुन्नी गांव में अकेली रहती है और कभी असुरक्षित नहीं होती। इस कहानी में, मुसाफिर के संवादों के माध्यम से धन दौलत द्वारा जन जीवन पर आक्रमण की त्रासदी दिखाई गयी है. मुन्नी को दिए गए प्रलोभन में भी धन दौलत का अहंकार झलकता है, जिसमें क्षति पहुंचाने की अपार क्षमता है.
इसी तरह, 'वासना की कड़ियाँ' कहानी घोड़े की टापों से लबरेज, शौर्य, पराक्रम, युद्ध, और जीत के बीच बुनी गयी एक लाजवाब प्रेम कहानी है. कहानी की भाषा न केवल उर्दू ज़दा है, बल्कि शायराना और बेहद कशिश भरी. अपने अंत तक पहुँचते पहुँचते कहानी इतनी ऊर्जा पैदा कर देती है कि जब जांबाज़ दिलेर आशिक का सर कलम होता है, तो दिल्ली के शहंशाह के कदमों में उसके लुढ़कने की आवाज़ तक सुनाई देती है!
बहादुर और भाग्य शाली कासिम मुल्तान की लड़ाई जीत कर आ रहा था. अगले दिन दिल्ली पहुंचकर शहर भर के शाही स्वागत से गुज़र कर, अपने हाकिम की शाबाशी लेने को आतुर, वह घोड़े को तेज़ दौड़ाता जाता था. तभी, उसे लश्कर की पालकी से झांकती दो जोड़ी आँखें दिखाई दीं---और वह उनके वशीभूत हो गया. इस कहानी में इस वशीकरण का जो वर्णन है, वह इस तरह से स्वर्गिक है कि पाठक को वशीभूत कर ले. इस तरह बाँध ले, जैसे जासूसी कथा का रोमांच या शायद उससे भी अधिक। प्रेम का रोमांच सर्वोपरि है. यहाँ इस रोमांच को पढ़कर, एक और ही प्रेमचंद से तआरुफ़ होता है.
कासिम जिसकी बहादुरी के चर्चे थे, जिसपर बड़ी लड़ाई की जीत का सुरूर पहले से छाया था, जो राजसी इनामों और शाही खिताबों की सुध में मतवाली सवारी कर रहा था, उसे न कोई बरछी लगी, न कटार, न किसी ने उसपर जादू किया, न मंतर, न टोना, बस, यूँ ही दिल में एक मज़ेदार सी बेसुधी, दर्द की एक लज्जत, मीठी की एक कैफियत, एक सुहानी चुभन की वह टीस महसूस हुई कि जी भर आया, रोने को आमादा हो गया, उन्हीं पलकों की पनाह तलाशने लगा. जो दो जोड़ी आँखें, सितारों सी चमककर कासिम को मोह गयी थीं, मुल्तान के राजा की बेग़मो और शहजादियों के खेमे से उठी थीं, जिनके आगे पीछे हथियार बंद ख्वाजा सराओं की एक बड़ी जमात चल रही थी. जिस कासिम ने गति बढ़ाने के लिए अपने घोड़े को एर लगाई थी, उसने तत्काल रात्रि विश्राम का ऐलान किया। किन्तु, कासिम को अपने तम्बू में चैन कहाँ ? जिन आँखों के देखे जाने से वह बेचैन हुआ था, वो शहजादी की आँखें थीं ! क्या यही इश्क़ की पहली मंज़िल थी ? कासिम अपने पहरेदारों को गश्त का हुक्म दे, शहजादी के खेमे में जा पहुँचता है.
कासिम के तम्बू की रस्सियां काट कर दाखिल होने पर भी शहजादी नहीं जागती, कासिम काफी देर उसके निद्रामग्न रूप की मदिरा का पान करता है, उसकी लटों में छिपा उसका चेहरा ऐसा है, जैसे काले अक्षरों में कोई शायराना ख़याल ! लम्बी उहा पोह के बाद, गुलाबपोश से कासिम न केवल उसे जगाता है, बल्कि अपने इश्क का इज़हार भी कर डालता है. शहजादी के पिता भाइयों के क़त्ल ए ख़ास, और उसकी रियाया के कत्ले आम के माफ़ीनामे के साथ साथ, वह समूचा हाले दिल सुना डालता है ! वह यहाँ तक कह देता है कि जिस बादशाह के हुक्म से उसने खून का यह दरिया बहाया, वे उसकी हुकूमत से दूर भाग, जंगलों में प्रेमी की तरह रह सकते हैं, लेकिन शहजादी के दिल में हरम ही में शामिल होकर सही, मलिका बनने का ख्वाब है. वह दोस्ती का हाथ बढ़ाती कहती है, हम हरम की ज़िल्लतें उठाएंगे, और आपकी तारीफ़ करेंगे शहंशाह से. न केवल उसके दिल में, शाही दीदार, शाही आगोश के मंसूबे हैं बल्कि राजनैतिक सपने भी ! लेकिन कासिम बार बार इल्तज़ा करता है और आखिरकार, शहजादी के हाथों मदिरा की प्रत्यक्ष मांग कर अपनी प्यास मिटाता है. जब वह पौ फटे, खेमे से निकलता है, तो दर्द और नशे में चूर! मुमकिन है, उसने भाँप लिया हो कि ऐसे में पारितोषिक के बजाये मिलने वाली सजाये मौत, कम दर्दनाक होगी !
कासिम शहजादी के साथ न ज़बरदस्ती करता है, न एक रात का प्रस्ताव देता है, लेकिन, उसका प्रेम वासना इसलिए कहलाता है क्योंकि शहजादी बादशाह के लिए जीती गयी थी. वैसे, एक तरफा प्रेम भी प्रेम होता है. कहानीकार ने, शाही हुक्म, शाही फरमाबरदारी, शाही गुप्तचरों, के साथ साथ शाही खून और सल्तनत के अनुशासन को सबसे अधिक तवज्जो दी है. साथ में, वो कहीं कहीं तुलसीदास की कथनी 'नारी नर्क का द्वार है' से भी प्रभावित हैं. लेकिन, उस चुंबकीय आकर्षण का कथाकार ने बड़ी ईमानदारी के साथ वर्णन किया है. बहरहाल, मानव मन की जटिलताएं लैला मजनू और शीरी फरहाद की प्रेम कथा में क्या, आये दिन जाति के आधार पर प्रेम विवाहों में आयी अड़चनों में देखा जा सकता है. एक तरफ़ा प्रेम, मौन हो, खामोश हो, बलिदानी हो, आधुनिक कहानी इसे भी नहीं स्वीकारती। बहरहाल, जिस शायराना अंदाज़ में फतह और लश्कर के कूच के बीच, शहजादी और बादशाह के बीच के आकर्षण के चटकते धागे दिखाए गए हैं, काबिले तारीफ़ हैं. प्रेमचंद ने यह कहानी ठीक ठीक कब लिखी, मालूम करना कठिन है. लेकिन मुग़लिया सल्तनत की सारी शानो शौकत यहाँ बयां है. बीतते हुए, मध्य युगीन ज़माने का रुतबा और उसकी कशिश जैसे दर्ज़ है. लेकिन, प्रेम चंद द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ने से पहले १९३६ में दुनिया से कूच कर गए. इस युद्ध के दौरान, समय, संसाधन, मानवता, प्रेम, वासना, वहशियत की वह रेखाएं पार की गयीं कि नात्सी सैनिकों की कचहरी में सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा कि क़त्ल के जो तरीके उन्होंने अपनाये, वो केवल अपने सेना नायकों का हुक्म बजाते।
गौर तलब है, कि अंग्रेज़ों के साथ आधुनिकता के आने का जो वर्णन प्रेमचंद ने 'शतरंज के खिलाड़ी' में किया है वह अनेकार्थी और बहुआयामी है. वह कहानी, हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कहानियो में गिनी जाती है. हिंदी साहित्य में द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका से अधिक विभाजन की त्रासदी का चित्रण है. जाहिर सी बात है, विभाजन की त्रासदी वह सबसे बड़ी त्रासदी थी, जो इस भू भाग ने झेली, लेकिन उससे पहले अकाल से लेकर तमाम तरहों की विभीषिकाओं का दंश लोग झेल रहे थे. आश्चर्य है, कि लगान, बिगड़ी हुई खेती आदि विषयों पर बहुत कम लिखा गया है.
लेखन की दुनिया और प्रेम की एक और दिलचस्प दास्ताँ, जो एक शायर की है, प्रेमचंद की कलम से जैसे जीवित हो उठी है. 'अमृत' शीर्षक यह कहानी 'मैं' की शैली में कही गयी है. कमाल कि बात कि यहाँ भी दर्द के मज़े की बात कही गयी है. नायक की उठती जवानी थी जब लेखन के दर्दीले फन से उसका परिचय हुआ. कुछ समय तक वह शायरी का अभ्यास ही करता रहा, फिर इस शौक ने तल्लीनता का रूप इस तरह अख्त्यार किया, कि सामजिक संबंधों से मुंह मोड़कर कलम की दुनिया में आ बसा. तीन साल के भीतर कल्पना ने वो जौहर दिखाए कि शायर महोदय ने बड़े बड़ों से टक्कर ले ली. उन्होंने अपनी शायरी को फारस से निकालकर यूरोप तक पहुंचा दिया। लेखक के इस वर्णन से साफ़ जाहिर है, कि लेखन की स्थिति अच्छी थी. शायर ये तक कह डालता है, कि किसी उस्ताद के आगे सर झुकाये बिना, उसकी कल्पना और शायरी किसी पौधे की तरह छंद और पिंगल की कैद से आज़ाद बढ़ती रही, और ऐसे में निराले शेर गढ़ लिए. शोहरत अपने साथ दौलत भी लायी। सुंदरियों की संगति जैसे उन्हें विह्वल करती, किन्तु उन्होंने अपने दिल को किसी ख़ास की तलाश में खाली रख छोड़ा था. जनाब की पहली किताब, 'दुनिया ए हुस्न', के प्रकाशन के दो साल बाद, किन्तु उन्हें जैसे किसी रोग ने धर लिया।
शायरी ने जैसे उनसे मुंह मोड़ लिया, कलम जैसे बैरी बन गयी, दिमाग की ज़मीन जैसे उसर, धूसर, बंजर। पहाड़ घूम आये, पर लाभ न हुआ. ऐसे में, कई हथकंडे अपनाने के बाद, शायर महोदय ने अपनी मृत्यु की खबर अखबारों में भेज दी. कुहराम मच गया. अखबार ने जिस उदारता के साथ, उनकी कला को जीवित रखते हुए, उन्हें श्रद्धांजलि दी थी, उससे उन्हें संतोष हुआ. लेकिन शायरी पलटकर उनके करीब नहीं आयी. एक दिन, अपनी प्रेत दुनिया से निकलकर, अजमेर की लाइब्रेरी में भटकते हुए उन्हें एक शायरा की किताब मिली जिसपर उनका नाम लिखा था, 'कलाम-ए-अख्तर'. हमारे शायर जनाब जा कर मिलते हैं, और कुछ समय के बाद, शायरा मिस आयशा दुल्हन बन कर अख्तर साहब के घर आ जाती हैं. कुछ समय के बाद, शायर जी की अधूरी पड़ी किताब 'नैरंग' भी पूरी हो जाती है।
प्रेमचंद के यहाँ अगर दुर्योग हैं, तो सुयोग भी, अगर बड़ी घटनाएं हैं, तो उनकी नक़ल की कॉपी भी. प्रेमचंद के लेखन संसार में गंभीर चिंतन है, दिलेरी भी और किस्म किस्म के पेंच। कितनी ही ऐसी कहानियां हैं, जो अपनी कलाबाज़ी और जोखिम भरे कथानक से मोहित कर लेती हैं. गैरत की कटार, इज़्ज़त का खून, वफ़ा का खंजर कुछ ऐसी ही चमत्कृत कर देने वाली कहानियां हैं. कातिल एक विरल विषय पर दुर्लभ कहानी है, जो लम्बी व्याख्या गहन अध्ययन की मांग करती है. दरअसल, प्रेमचंद की कथाओं में अगर समय के अनेकानेक चेहरे देखने को मिलते हैं, तो मानव मन के भी गूढ़ रहस्य खुलते हैं।
नमस्कार दोस्तों !
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