छायावादी पीढ़ी के बाद प्रगतिवादी युग की शुरुआत हुई, जो आधुनिकतावादी युग का आग़ाज़ था ! हर युग में कविता-कला नियमित ढर्रे से अलग होती चली गयी । नई कवयित्री हो या नए कवि कुछ अलग ही कहना चाहते हैं, लेकिन पुरानी कविता में लोग अक्षरशः, शब्दशः और भावश: उनके अर्थ समझ लेते थे, परंतु इस अतिआधुनिकतावादी युग में जहां कविताओं ने गतिशीलता पायी, वहीं साधारण से साधारण शब्द बड़े अर्थ दे देते हैं !
बचपन में दादाजी के मुखारविंद से सुना करता था--
"कभी अकेला हो और किसी न किसी प्रसंगश: या कारणश: भय व डर सताने लगे, तो अंतर्मन से 'माँ' को याद कर लेना ।" मैंने भी माँ के अंदर स्थापित 'ममता' को लिए अभियांत्रिकी-से अन्वेषण कर उनसे निःसृत स्वकविता में अपनी भावना डाल दिया हूँ, यथा--
"माँ तो माँ है,
सार्थ शमाँ है ।
'पड़ौस की आँटी'
चाहे हो कितनी सुंदर ?
पर, अपनी माँ ! बस, माँ होती है ।"
आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं कवयित्री किरण यादव की दो कविता, एक तो माँ की स्मृति में और दूजे 'लिबास' में रमते हैं, दर्दीली दास्ताँ सुनाते-सुनाते तथा दरियादिली दिखाते-दिखाते.... तो देर न करते हुए आइये पढ़ते हैं ....
बचपन में दादाजी के मुखारविंद से सुना करता था--
"कभी अकेला हो और किसी न किसी प्रसंगश: या कारणश: भय व डर सताने लगे, तो अंतर्मन से 'माँ' को याद कर लेना ।" मैंने भी माँ के अंदर स्थापित 'ममता' को लिए अभियांत्रिकी-से अन्वेषण कर उनसे निःसृत स्वकविता में अपनी भावना डाल दिया हूँ, यथा--
"माँ तो माँ है,
सार्थ शमाँ है ।
'पड़ौस की आँटी'
चाहे हो कितनी सुंदर ?
पर, अपनी माँ ! बस, माँ होती है ।"
आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं कवयित्री किरण यादव की दो कविता, एक तो माँ की स्मृति में और दूजे 'लिबास' में रमते हैं, दर्दीली दास्ताँ सुनाते-सुनाते तथा दरियादिली दिखाते-दिखाते.... तो देर न करते हुए आइये पढ़ते हैं ....
कवयित्री किरण यादव |
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