बदलते वक्त के साथ जहां किताबों के पन्नों में कमी आयी है, वहीं समीक्षकों को भी पाठकों के दर्द को समझते हुए, किसी किताब की समीक्षा सीमित रूप से करनी चाहिए, क्योंकि वक़्त के इस बहाव में जहां फेसबुक, ट्विटर में जुमले प्रसिद्ध हो रहे हैं, वहीं ज्ञानी लोगों की कद्र लोग कम करने लगे हैं । पिछले कई सालों से 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' और उनके संपादक द्वारा #justice4rakhiyan मुहिम चलाई जा रही है । इस मुहिम पर जहाँ भाइयों ने बहनों की कलाई पर राखी बाँधकर नई परंपरा की शुरुआत किये, वहीं सोशल मीडिया पर बहनों ने खुलकर अपने भाइयों से मिले इस प्यार को फ़ोटो के साथ शेयर की । यह मुहिम अभी शुरुआत भर है, लेकिन काफी लोगों ने जब इस मुहिम के प्रसंगश: अपने-अपने विचार रखे, तो हमें लगा कि इन लोगों के चुनिंदा विचारों को मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट में जगह दूँ ।
ध्यातव्य है, कुछ दोस्तों ने फेसबुक पोस्ट पर विचार रखा, तो किसी ने मैसेज बॉक्स में, तो किसी ने अपने टाइमलाइन पर .....! हमारे प्यारे पाठकगण सोच रहे होंगे कि यह मैं यहां क्यों कह रहा हूँ, इसके लिए स्त्री मन के अंदर झांकना होगा । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं गंभीर कवयित्री सुश्री पंखुरी सिन्हा की कविता-संग्रह पर समीक्षक उमाशंकर सिंह परमार जी की समीक्षा, आइये देर न करते हुए, पढ़ ही डाले ---
विमर्श के दायरे को तोड़ती कवितायें :--
पंखुरी सिन्हा समकालीन कविता की जरूरी कवयित्री हैं ।दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में निरन्तर छपती रहती हैं ।समकालीन कविता में सबसे बडी समस्या है कि कवियों की बहुत बड़ी भीड़ काम रही है । इस भीड़ से हानि यह होती है कि गैरजरूरी रचनाएँ पाठकों तक पहुँच जाती हैं और जरूरी रचनाएँ पाठ से छूट जाती हैं । पाठ से वंचित होना कवि और कविता दोनों के लिए त्रासद है । पंखुरी सिन्हा इस त्रासदी से अभी तक बची हुईं हैं ।वह बहुपठित और बहुश्रुत कवयित्री हैं । कविता का एक ऐसा चेहरा है,जो भीड़ में बिल्कुल साफ-साफ अपनी पहचान बता देते हैं। उनका कविता-संग्रह 'रक्तिम सन्धियाँ' समकालीन कविता में उनकी समझ और चेतना की संस्थापना एवं उनके रचनात्मक हस्तक्षेप को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है । मुझे लगता है यह कविता संग्रह उनकी प्रतिभा का सर्वोत्कृष्ट प्रतिफलन है । "रक्तिम सन्धियाँ" वर्ष 2015 के आखिर में प्रकाशित हुआ था ।इसमें साठ से अधिक कविताएँ संग्रहीत हैं । प्रकाशन साहित्य भंडार से हुआ है और भूमिका अशोक वाजपेयी जी ने लिखी है । इस कविता संग्रह को पढ़कर पहली बात यह कही जा सकती है कि पंखुरी सिन्हा की भावुकता और संवेदना आम तौर पर प्रचलित "युवा" या किशोर "मन" की संवेदना नहीं प्रतीत होती है । युवा आवेग में अपरिपक्वता व भावुक भटकाव की मात्रा अधिक होती है ।यह भटकाव अधिकतर कविताओं को कथ्य और मौलिक भाषा से विरत कर देता है । पंखुरी की ये कविताएं परिपक्व और प्रौढ़ हैं । भाषा , शिल्प , भंगिमा और कहन की गम्भीरता व वैविध्यपूर्ण प्रसंगों , मुद्दों , जीवन की झलकियों . वस्तुओं , अपरूपों की आवाजाही और उनके प्रति सधा हुआ नजरिया इन कविताओं को अतार्किक भावुकता की बजाय परिपक्व करुणा एवं सार्वभौमिक चिन्ता में तब्दील कर देता है और दूसरी विशिष्टता इन कविताओं में यह दिखी कि ये कविताएं विषय और भाषा की चौहद्दियों को तोड़ती हैं ही साथ विमर्श की चौहद्दी भी तोड़ती है । विषयों की विविधता है । भाषा भी बार बार अपनी टोन बदल देती है । रही बात विमर्शों की तो ये कविताएं विमर्शों की संकुचित सीमाओं को लाँघकर मनुष्य विमर्श की प्रतिस्थापना करती हैं । इन कविताओं को विमर्श की आँख से देखना और विमर्श की जरूरत से परखना कविता के साथ अन्याय होगा । इन कविताओं को जीवन और जीवन के वर्गीय सन्दर्भों के आधार पर पढना चाहिए इन्हें कविता की तरह समझना चाहिए इसी पाठ की माँग पंखुरी की कविताएँ करती हैं ।आजकल आलोचना में एक रूढ़ि सी बन गयी है यदि लेखक दलित है तो बगैर सोचे समझे पढ़ें दलित विमर्श की सैद्धांतिकी थोप दी जाती है यदि लेखिका है, तो बलात् स्त्रीविमर्श का चश्मा चढ़ा लिया जाता है । यह अमूमन होता है और इसी होने में सबसे बडा नुकसान कविता का होता है। कवि की चिन्तनधारा का नुकसान होता है । कविता को कविता की तरह परखकर ही कवि की मनोरचना और सामाजिक आयामों व जीवन सन्दर्भों को विश्लेषित किया जा सकता है । पंखुरी का कविता संग्रह 'रक्तिम सन्धियाँ' किसी आग्रह या पूर्वाग्रह के आधार पर या किसी वाह्य वैचारिक संरचनाओं के आधार पर विश्लेषित नहीं हो सकता है । इन कविताओं को युग और जीवन व युग की अपवर्जनकारी शक्तियों , उपक्रमों , सांस्कृतिक प्रतिफलनों व जीवन की चिन्ताओं आशंकाओं के आधार पर ही समझा जा सकता है ।अपनी इस कविता समझ का संकेत पंखुरी अपनी दो तीन कविताओं में करती भी हैं एक कविता है "आमार आदमी" इस कविता में वह अपनी कविताओं में परिव्याप्त "मैं" का स्पष्टीकरण देती हैं कि इस मेरे मैं में मेरी आवाज नहीं है अर्थात यह आवाज हर आम हिन्दुस्तानी की आवाज है । आम आदमी की भाषा है । दूसरी कविता है "खामोश" इसमें भी वह कहती हैं "भाषा संवाद नहीं / भाषा विवाद नही / भाषा प्रहरी है / भाषा दुहरी है" ( पृष्ठ 68) इसका आशय है कि किसी सैद्धांतिक अवधारणा में आबद्ध भाषा से इन कविताओं के विश्लेषण से कुछ भी हाथ नही लगेगा । ये कविताएं जीवन की प्रहरी हैं इसलिए भाषा के दोहरेपन को समझना जरूरी है। भाषा के "दोहरेपन" से मेरा आशय है कि पंखुरी की भाषा और विषय के अभिधा व्यापार को कविता समझना बडी भूल होगी । विषयों की अधिकता है जो भी दिखता है वह कविता का विषय हो गया है मगर सबसे जरूरी बात यह है कि इस वैविध्यता में भी एक अन्तर्लय है। विषयों की कथ्यात्मक अभिव्यंजना लगभग एक जैसी है ।लोकजीवन व निजी जीवन के सन्दर्भों को लेकर सार्वजनिकीकरण करना व किसी युगीन प्रसंग से जोड देने से कविता विषय परक नहीं रह जाती वह चेतनापरक हो जाती है।
ऐसी कविताओं को कवि की चिन्ता व उसके सामाजिक उत्तरदायित्व के आधार पर ही विश्लेषित किया जा सकता है । पंखुरी की भाषा का दोहराव यही है ।रक्तिम सन्धियाँ की संवेदना का विषय व्यक्ति नहीं है मानव है । एक ऐसा मानव जो समाज मे रहता है और समाज से टकराता है वह समाज को साथ भी लेना चाहता है और समाज से पीड़ित भी होता है एक तरफ वह अपने भीतर संघर्ष का अनुभव करता है, तो दूसरी तरफ वह सामाजिक स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए भी संघर्ष करता है । अपने भीतर का संघर्ष उसे रचनात्मक बनाता है तो वाह्य संघर्ष उसे विद्रोही बनाता है ।ये दोनों स्थितियाँ पंखुरी की कविताओं में हैं । संघर्षों की यह दोहरी स्थिति किसी एकान्तप्रिय शान्तिप्रिय साधू सन्यासी का संघर्ष नहीं है । महानगरीय जीवन में फँसे , घिरे हुए , विशाल मध्यमवर्ग का संघर्ष है । एक समूची पीढ़ी का संघर्ष है । पंखुरी ने अपनी कविताओं में इस मध्यमवर्गीय घुटन व पीड़ा को महसूस किया जा सकता है उनकी कई कविताएं हैं जहाँ पर वह अपने "मूलशहर" में वापसी की हद तक घुटन का शिकार हैं । यह सवाल जीवन का नही है लगाव का सवाल है । व्यक्ति जिस जमीन मे पलता बढता है जिस जमीन और माहौल का हवा पानी ग्रहण करता है वहाँ की संस्कृति और जमीन से वहाँ के लोगों से उसका आत्मीय रिश्ता कायम हो जाता है । जब व्यक्ति अपनी जमीन को छोडकर कहीं विस्थापित होता है तो वह अकेले नही विस्थापित होता अपने साथ अपनी आत्मीयता अपनी भाषा और अपने रिश्तों का भी विस्थापन कर देता है ।वह इस विस्थापन को महसूस करती हैं और कहती हैं " अपनाने का सवाल नही / न मेरे , न उनके / जो वहीं के हैं / बस रहने भर का है" ( पृष्ठ 29) सवाल केवल रहने भर का है अपनाने का नही है । यह साफ संकेत है कि वह अपनी संस्कृति और अपनी भाषा के साथ विस्थापित है । जब व्यक्ति अपनी संस्कृति और अपनी पहचान को बरकरार रखते हुए किसी दूसरी जमीन में विस्थापित होता है तो वह खुद को अकेला और अजनबी पाता है । पंखुरी बार बार अपनी कविताओं में "अजनबीपन" की बात उठाती हैं ।उनकी एक कविता है "अजनबी सुरक्षा" इस कविता के आखिरी बन्द में वह अजनबियत को जस्टिफाई करती हैं ।अजनबियत के इस आग्रह को कवयत्री द्वारा व्यक्त किया जाना अपनी पहचान को बरकरार रखने का आग्रह समझना चाहिए " पूर्णतः सुरक्षित एक अजनबीपन में / कमस्कम ख्याल में उसके / अजनबी सुरक्षा / अज्ञात राहें / सब अनजान / सब अजान" (पृष्ठ 31) अजनबी बनकर सुरक्षा महसूस करना प्रथम दृष्टया विलोम प्रतीत हो सकता है ।इस विलोम को भाषा का सौन्दर्य समझना चाहिए वास्तविकता है कि यहाँ पहचान का संकट है ।महानगरीय संस्कृति और आधुनिकता की बेरंगी संस्कृति के विरुद्ध आज्ञात भय है जो व्यक्ति की मौलिक चेतना व उसकी अपनी संस्कृति को नष्ट कर सकता है । इस नष्ट होने से अपने आपको बचाने का एक ही उपाय है अपनी चतुर्दिक संस्कृति से अपने आपको "अजनबी" कर लेना ।अजनबी होने पर ही अपनी पहचान सुरक्षित है । यहाँ सुरक्षा को व्यापक सन्दर्भों में देखा गया है । यही चिन्ता पंखुरी की कविताओं का मूल अभिकथन है ।यहीं से समय और उसकी भयावह आवस्थितियों का प्रतिरोध समझा जा सकता है प्रेम और लगाव के विरुद्ध हिंसक गतिविधियों की शिनाख्त की जा सकती है । प्रेम और प्रतिरोध दोनो पक्षों का विस्तार व उनकी अनुषांगिक आपेक्षित गति का अनुमान पंखुरी की कविताओं से होता है । चूँकि अजनबीपन प्रेम की उपज है इसलिए प्रतिरोध को भी प्रेम की उपज स्वीकार करना चाहिए प्रेम का बहुआयामी एवं बहुसन्दर्भ युक्त वर्णन इन कविताओं में हैं। और सारे आयामों का मार्ग आन्ततः मानवीय सत्ता की बेहतरी में खतम होता है । प्रेम की इस अभिव्यक्ति में जिन उपकरणों , उपमाओं स्थापनाओं का प्रयोग किया किया गया है वह सब अपनी स्थूल व्यंजना से मुक्त होकर युगयुग्म का निर्धारण करती है व सत्ता और शक्ति के नीचे दबे असहाय कराहते मानव से सवाल करती हैं । इस बात को समझने से पूर्व कविताओं में विन्यस्त प्रेम और लगाव की संरचना को समझना बेहद जरूरी है । एक तरफ यह अपने "मूल" का लगाव है तो दूसरी तरफ सामाजिक जडता , रूढियों , और तन्त्र की हिंसक गतिविधियों का प्रतिरोध करता है ।इस प्रतिरोध में भागीदारी वह अकेले नहीं करती है यह वर्गीय भागीदारी है ।यहाँ "लड़की" का उल्लेख खूब हुआ है कई कविताओं में वह चरित्र के रुप में है मगर वह विशिष्ट नहीं है, सामान्य है ।प्रणय युद्ध , टीन एज प्रेम , बेरहमी ,प्रतिबद्धता , कतई नहीं , काठ की मल्लिका , देवदासी , हमदर्दी ,अनारकली , जैसी कविताओं में उपस्थित स्त्री एक ही है और उसकी पीड़ा यन्त्रणा व दुखों का कारण भी एक है और वह है प्रेम । इन कविताओं में अन्तर्ग्रथित प्रेम किसी न किसी स्पेस की तलाश कर रहा है ।वह पीड़ा और द्वन्द की यन्त्रणामयी अवस्थितियों को मात्र इस कारण भोग रहा है कि उसके पास स्पेस नहीं है ।उसकी अपनी उपस्थिति और हक नहीं है। इन कविताओं के माध्यम से पंखुरी स्त्री होने की नियति और सामन्ती मर्दवादी वर्चस्ववाद व पुरुषवर्चस्ववाद को पोषित करने वाली आदतों व व्यवस्थाओं का रहस्य खोल कर रख देती हैं ।
इन कविताओं को विमर्श और प्रतिरोध दोनो नजरिए से पढ़ा जा सकता है ।स्त्री विमर्श के प्रगतिशील नजरिए में भागीदारी का सवाल बडी शिद्दत से उठाया जाता है । यह बात दीगर है जिनकी सोच बाजारवादी है वह लोग भागीदारी के सवाल को "मुक्ति" का सवाल बनाकर इसे "देह" की आजादी का नाम देते हैं । देह की आजादी और भागीदारी दोनो अलग अलग अवधारणाएं हैं जो किसी भी लेखक की वर्गीय चिन्तनधारा से जुडी होती है । भागीदारी का सवाल बडा सवाल है हम जिस समाज और तन्त्र में रह रहे हैं वहाँ का नियन्त्रण केवल पुरुष के हाथ मे है सम्पत्ति सत्ता और सरकार व व्यवस्था में स्त्री विस्थापित सी रही है। इस भागीदारी की माँग को पंखुरी ने अपनी कविताओं में उठाया है वह "ऐसी साजिस नही रचते" कविता में लिखती हैं " आज यह बहाना , कल वह प्रस्ताव / ये नहैं होता / और होना इसका सोची समझी साजिश है / ऐसी साजिश नहीं रचते / नौकरी पेशा को नौकरी करने दें / और लडकी को आगे बढने दें" ( पृष्ठ 28) । यह रोजगार की भागीदारी है । जिसे अभी तक हमारे समाजों मे पुरुष का हक समझा जाता है । अब स्थितियाँ बदल रही हैं मगर परम्परागत सामाजिक संरचनाओं और आदिम समूहों , ग्राम्य समाजों में व्यवसायिक भागीदारी अभी भी दूर की कौड़ी है । इस भागीदारी की माँग को समकालीन स्त्रीवाद ने हासिए पर ढकेल दिया है ।बहुत कम कवयित्रियाँ हैं, जो इस सवाल पर बात करती हैं युवा कवयित्रियों में तो और भी कठिन है । कारण है कि हिन्दुस्तानी समाजिक संरचना का वह अनुभव, जो हमारे ग्राम्य समाओं और आदिम समूहों में विद्यमान है वह अनुभव उनके पास नही है, क्योंकि महानगरीय जीवन बोध इन अनुभवों को उनकी मौलिकता से पृथक कर देता है । प्रज्ञा रावत , सीमासंगसार , गायत्री प्रियदर्शिनी , सन्ध्या नवोदिता , जैसे दो चार नाम हैँ जो इस सन्दर्भ में अच्छी कविताएं लिख रही हैं । व्यवसायिक भागीदारी के साथ साथ सामाजिक भागीदारी की माँग भी पंखुरी की कविताओं में संकेतित है । इस तरह की भागीदारी का पता तब चलता है जब कोई लड़की प्रेम करती है तब समाज और तन्त्र उसको और उसके हक को कैसे दबोच लेता है यहीं से शक्ति और व्यवस्था की यन्त्रणादायी भयावह परिस्थितियों का अन्तहीन सिलसिला आरम्भ होता है जिसे आजकल समाचार पत्रों व खबरों में सुना और देखा जा रहा है ।
पंखुरी ने समाजिक चिन्ता के इस पक्ष को बखूबी समझा है प्रेम और रूढि के मध्य जो संघर्ष होता है वह प्रेम की समाजिक स्वीकृति से अधिक भागीदारी का सवाल है यदि स्त्री सम्पत्ति और सत्ता व व्यवस्था में बराबर की भागीदार होती तो क्या प्रेम करने पर कभी खाप पंचायतों के बहाने , कभी लव जेहाद के बहाने या जातीयता के बहाने हत्याएँ होती ? बिल्कुल नही होती और स्त्री को अपने जीवन का हक भी प्राप्त होता पंखुरी ने अपनी कविता बेरहमी में प्रेम की बन्दिशों का यथार्थ खाका खींचा है जो पाठक की रूह तक घर लेता है " इतनी बेरहमी से उखाड़े गये / नाखून मेरे / कि कुछ का कुछ हो गया / इतना ज्यादा कबूलाया गया मेरा प्यार / कि प्यार की जगह स्वाभिमान छा गया" प्यार की बन्दिशों और बलात् कबूलनामें में स्वाभिमान का जाग्रत होना एक स्त्री की अन्तर्विष्ठ चेतना का परिणाम है । पंखुरी अपनी कविताओं में तमाम विरोधों और यन्त्रणाओं , त्रासदियों के बीच कहीं न कही अपने लिए एक छोटा सा स्पेस एक सपना एक जगह की खोज रही है इस कविता में स्वाभिमान का आना "बन्दिशों" के विरुद्ध "निडरता" का आगाज़ है । प्रेम के सामाजिक आयामों में यन्त्रणा के साथ पुरुषवादी आदतों का भी गहराई से विश्लेषण है । यह विश्लेषण इकहरा नही है इसमे नियतिवादी आशावाद का व्यामोह नही है । बल्कि सत्ता समाज और वर्ग की थरथराती आवेगमय छवियाँ हैं जो पुरुषवादी नजरिए की समाजिक स्वीकृति के करण प्रतिरोध और आक्रोश का ताना बाना बुनती हैं । एक सफल और सार्थक भाषा मे कही गयी ये कविताएँ अपने समय और परिवेश की जडताओं और आदतों की पहचान कराती हैं । जो अमूर्तता , जटिलता , दुरूहता से बचते हुए संवेदना और पठनीयता से लैस हैं उनकी एक कविता है "प्रणय युद्ध" इस कविता मे सामाजिक आदतों का बेहतरीन अंकन है प्रेम और युद्ध दो विरोधी अवधारणाएं हैं एक अवधारणा कैसे दूसरी अवधारणा मे तब्दील होती है इस कविता मे बताया गया है "उसकी उस जरा सी अनमन पर / बीती बीती सुलझन पर / साथ चलती उलझन पर / कि सुलझा ले सब आगे पीछे / ऊपर नीचे दाएँ बाँए / वह तिल का ताड बना लेगा / प्रेम का व्यापार बना देगा" । अफवाहों का जन्म इसी प्रविधि से होता है और जब एक पक्ष स्त्री का हो उस पर भी प्रेम का मामला हो तो अफवाहों का बाजार और भी गर्म होता है । यहीं से सच और झूठ , प्रेम और युद्ध का विभेद समाप्त होने लगता है और हिंसा व यन्त्रणा का अमानवीय दौर प्रारम्भ होता है ।पंखुरी सिन्हा ने समाजिक अन्तर्वृत्ति पर बडी गहराई से लिखा है यह कविता लम्बी तो नहीं कही जा सकती है मगर बाकी कविताओं से थोडा बड़ी जरूर है और पूरी कविता अपनी बुनावट व शिल्प मे सादी सपाट बयान की तरह लगती है लेकिन अपनी अन्तर्वस्तु के कारण यह सामाजिक तन्त्र पर वर्चस्ववादी शक्तियों , गोयबल्सों की मौजूदगी की मुखालफत करती है । प्रेम के इस सामाजिक प्रतिरूपण का विस्तार ही प्रतिरोध और मोहभंग की अवस्थिति तक पहुँचता है ।
पंखुरी सिन्हा के कविता संग्रह रक्तिम आभा की प्रारम्भिक कविताएं इस विस्तार का साक्ष्य है । कविता संग्रह की अधिकांश कविताएं व्यवस्था और तन्त्र के विरुद्ध विद्रोही स्वर का आगाज है यह आगाज परिवर्तन कामी है । इन कविताओं मे सत्ता की पथभृष्टता जटिलता ,नृशंसता सब कुछ कर प्रकट हो गया है । पंखुरी की एक कविता है "हमारी तकलीफों की रिपोर्ट" इस कविता को केवल स्त्री के दुखों से जोडकर देखने की जरूरत नही है यह हर उस हिन्दुस्तानी की तकलीफ़ है जो व्यवस्था के छद्म आचरण व जनविरोधी स्वरुप को भुगत चुका है ।पंखुरी की कविताओं की सामाजिक विनिर्मिति और स्त्रीवाद के दायरे की टूटन यहीं से समझी जा सकती है यह स्त्रीवाद मे आम आदमी के प्रवेश का संसूचक है "जिन तकलीफों की रिपोर्ट लिखाई हमने / क्या हुआ उनका / फाईल बनकर रह गयी / रिपोर्ट हमारी" पुलिस , प्रशाशन , सत्ता , नेता और समूचे लोकतन्त्र के खिलाफ अनास्था से भरा यह स्वर महज एक स्त्री का स्वर नही है यह हमारी पीढी का स्वर है । पंखुरी इस स्वर को जनान्दोलन तक ले जाती हैं । जनान्दोलन और दमन की भी आलोचना करती है यह पंखुरी की कविताओं का प्रतिरोधी स्वर है जब आवाज मे भाषा में जनान्दोलन की भूमिका तय होने लगे व्यवस्था का चाल चरित्र और चेहरा उजागर होने लगे तो समझिए कि कविता अपनी सही रहा पर जा रही है उनके इस संग्रह की पहली कविता "FIR दायर करो" करो इसी पृष्ठभूमि पर लिखी गयी है । इसमें आन्दोलन के दौरान दमक चक्र में मारे गये एक अजनबी के पहचान का आग्रह है । इस भाव भंगिमा की बहुत सी कविताएं हैं विशेषकर अनहद , आरोपित आवाजों की कहानी , चुप्पी के अन्तर ,ताना बाना , सुडकने चबाने के स्वर , क्या करें क्या न करें , ये सारी कविताएं प्रेम और प्रतिरोध की साझी भूमिका का निर्वहन कर रही हैं और इन कविताओं मे व्यवस्था व युग का अनास्थावादी आलोचन प्रखरता के साथ उपस्थित हुआ है ।
कविता संग्रह रक्तिम सन्धीयाँ में एक भी लम्बी कविता नहीं है । चूँकि लम्बी कविता नहीं है तो किसी भी प्रकार का करेक्टर भी कविताओं में नहीं हैं ।मैं का उल्लेख है, लेकिन यह "मैं" अनुभव की विनिर्मित है यह कविताओं को चरित्र का स्वरूप नहैं दे पाता है । मैं की उपस्थिति और अनुभव की आत्मगत आभा सिद्ध कर देती है कि पंखुरी लम्बी कविताओं की अपेक्षा छोटी कविताओं की कवयत्री है ।हुआ भी यही है ते छोटी कविताएँ कहीं भी बौद्धिकता और दर्प से युक्त नहीं है , सहज और नैसर्गिक बिम्बों से निर्मित संवेगात्मक लय न तो आवेग का खण्डन करती है न आवेग को कमजोर करती है । नाटकीयता , चमत्कार , कलात्मक विस्तार का किसी भी तरह का कोई आग्रह नही है यही सादगी इन कविताओं का सौन्दर्य है इनका शिल्प है । नपे तुले वाक्य और उनका विन्यास लय बद्ध शब्द विधान , बाहरी और आन्तरिक तनावों को रचनात्मक विस्तार देने में सक्षम हैं जैसे "वह फक्कड था / आवारा था / वह पढता भी इसीलिए था" यहाँ पर "था" शब्द एक विधान है जो कलात्मक न होते हुए भी इस कविता की लय और गति को बाँध रहा है ।पंखुरी की कविताओं में शब्दाधारित बन्ध खूब मिलते हैं यह बँधाव कविता के रचाव का नया प्रयोग है । जो कला से रहित होकर भी कला की जमीन सृजित करता है । यही कारण है कि कविताएँ अपना पैटर्न और प्रारुप बदलने के साथ ही अचानक लय नहीं बदलती बल्कि पाठ प्रक्रिया वही रहती है । जिससे जकड़बन्दी विहीन आयतन और भावों के घनत्व को महसूसा जा सकता है ।यह घनत्व बिना भाषा की मौलिकता के सम्भव नहीं है । भाषा वही सार्थक होती है जो खामोश रहे चुप रहे और मुकम्मल कविता बन जाए पंखुरी की भाषा मे यह गुण देखा जा सकता है विविधता , शब्द संयोजन ,उपयुक्तता , प्रासांगिकता , और खनक ऐसी है कि कविता की निर्भरता शब्दों से अधिक भावविधान पर अधिक हो जाती है । सब कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पंखुरी भाषा और भाव दोनो के निर्धारित परिक्षेत्र का अतिक्रमण करती हुई प्रयोगधर्मी कवयत्री है । प्रयोग नवीनता बोध के साथ साथ कवयित्री के अन्तःकरण को भी उघाड कर रख देता है । बहु आयामी विस्तार , विषय वैविध्यता , और प्रेम की सामाजिक व शक्तिपरक अवधारणा इन कविताओं को किसी वैचारिक खाँचे से बचाकर विमर्शों की जकडबन्दी से बहुत आगे ले जाती है । जिसमें यथार्थ आग में तपते तवे की सतह पर पड़ी पानी की बूँद की तरह छलछला जाता है और कवयित्री का व्यक्तित्व पानी की सतह पर तैरते तेल की तरह उभर कर सामने आ जाता है।
नमस्कार दोस्तों !
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ध्यातव्य है, कुछ दोस्तों ने फेसबुक पोस्ट पर विचार रखा, तो किसी ने मैसेज बॉक्स में, तो किसी ने अपने टाइमलाइन पर .....! हमारे प्यारे पाठकगण सोच रहे होंगे कि यह मैं यहां क्यों कह रहा हूँ, इसके लिए स्त्री मन के अंदर झांकना होगा । आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं गंभीर कवयित्री सुश्री पंखुरी सिन्हा की कविता-संग्रह पर समीक्षक उमाशंकर सिंह परमार जी की समीक्षा, आइये देर न करते हुए, पढ़ ही डाले ---
विमर्श के दायरे को तोड़ती कवितायें :--
पंखुरी सिन्हा समकालीन कविता की जरूरी कवयित्री हैं ।दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में निरन्तर छपती रहती हैं ।समकालीन कविता में सबसे बडी समस्या है कि कवियों की बहुत बड़ी भीड़ काम रही है । इस भीड़ से हानि यह होती है कि गैरजरूरी रचनाएँ पाठकों तक पहुँच जाती हैं और जरूरी रचनाएँ पाठ से छूट जाती हैं । पाठ से वंचित होना कवि और कविता दोनों के लिए त्रासद है । पंखुरी सिन्हा इस त्रासदी से अभी तक बची हुईं हैं ।वह बहुपठित और बहुश्रुत कवयित्री हैं । कविता का एक ऐसा चेहरा है,जो भीड़ में बिल्कुल साफ-साफ अपनी पहचान बता देते हैं। उनका कविता-संग्रह 'रक्तिम सन्धियाँ' समकालीन कविता में उनकी समझ और चेतना की संस्थापना एवं उनके रचनात्मक हस्तक्षेप को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है । मुझे लगता है यह कविता संग्रह उनकी प्रतिभा का सर्वोत्कृष्ट प्रतिफलन है । "रक्तिम सन्धियाँ" वर्ष 2015 के आखिर में प्रकाशित हुआ था ।इसमें साठ से अधिक कविताएँ संग्रहीत हैं । प्रकाशन साहित्य भंडार से हुआ है और भूमिका अशोक वाजपेयी जी ने लिखी है । इस कविता संग्रह को पढ़कर पहली बात यह कही जा सकती है कि पंखुरी सिन्हा की भावुकता और संवेदना आम तौर पर प्रचलित "युवा" या किशोर "मन" की संवेदना नहीं प्रतीत होती है । युवा आवेग में अपरिपक्वता व भावुक भटकाव की मात्रा अधिक होती है ।यह भटकाव अधिकतर कविताओं को कथ्य और मौलिक भाषा से विरत कर देता है । पंखुरी की ये कविताएं परिपक्व और प्रौढ़ हैं । भाषा , शिल्प , भंगिमा और कहन की गम्भीरता व वैविध्यपूर्ण प्रसंगों , मुद्दों , जीवन की झलकियों . वस्तुओं , अपरूपों की आवाजाही और उनके प्रति सधा हुआ नजरिया इन कविताओं को अतार्किक भावुकता की बजाय परिपक्व करुणा एवं सार्वभौमिक चिन्ता में तब्दील कर देता है और दूसरी विशिष्टता इन कविताओं में यह दिखी कि ये कविताएं विषय और भाषा की चौहद्दियों को तोड़ती हैं ही साथ विमर्श की चौहद्दी भी तोड़ती है । विषयों की विविधता है । भाषा भी बार बार अपनी टोन बदल देती है । रही बात विमर्शों की तो ये कविताएं विमर्शों की संकुचित सीमाओं को लाँघकर मनुष्य विमर्श की प्रतिस्थापना करती हैं । इन कविताओं को विमर्श की आँख से देखना और विमर्श की जरूरत से परखना कविता के साथ अन्याय होगा । इन कविताओं को जीवन और जीवन के वर्गीय सन्दर्भों के आधार पर पढना चाहिए इन्हें कविता की तरह समझना चाहिए इसी पाठ की माँग पंखुरी की कविताएँ करती हैं ।आजकल आलोचना में एक रूढ़ि सी बन गयी है यदि लेखक दलित है तो बगैर सोचे समझे पढ़ें दलित विमर्श की सैद्धांतिकी थोप दी जाती है यदि लेखिका है, तो बलात् स्त्रीविमर्श का चश्मा चढ़ा लिया जाता है । यह अमूमन होता है और इसी होने में सबसे बडा नुकसान कविता का होता है। कवि की चिन्तनधारा का नुकसान होता है । कविता को कविता की तरह परखकर ही कवि की मनोरचना और सामाजिक आयामों व जीवन सन्दर्भों को विश्लेषित किया जा सकता है । पंखुरी का कविता संग्रह 'रक्तिम सन्धियाँ' किसी आग्रह या पूर्वाग्रह के आधार पर या किसी वाह्य वैचारिक संरचनाओं के आधार पर विश्लेषित नहीं हो सकता है । इन कविताओं को युग और जीवन व युग की अपवर्जनकारी शक्तियों , उपक्रमों , सांस्कृतिक प्रतिफलनों व जीवन की चिन्ताओं आशंकाओं के आधार पर ही समझा जा सकता है ।अपनी इस कविता समझ का संकेत पंखुरी अपनी दो तीन कविताओं में करती भी हैं एक कविता है "आमार आदमी" इस कविता में वह अपनी कविताओं में परिव्याप्त "मैं" का स्पष्टीकरण देती हैं कि इस मेरे मैं में मेरी आवाज नहीं है अर्थात यह आवाज हर आम हिन्दुस्तानी की आवाज है । आम आदमी की भाषा है । दूसरी कविता है "खामोश" इसमें भी वह कहती हैं "भाषा संवाद नहीं / भाषा विवाद नही / भाषा प्रहरी है / भाषा दुहरी है" ( पृष्ठ 68) इसका आशय है कि किसी सैद्धांतिक अवधारणा में आबद्ध भाषा से इन कविताओं के विश्लेषण से कुछ भी हाथ नही लगेगा । ये कविताएं जीवन की प्रहरी हैं इसलिए भाषा के दोहरेपन को समझना जरूरी है। भाषा के "दोहरेपन" से मेरा आशय है कि पंखुरी की भाषा और विषय के अभिधा व्यापार को कविता समझना बडी भूल होगी । विषयों की अधिकता है जो भी दिखता है वह कविता का विषय हो गया है मगर सबसे जरूरी बात यह है कि इस वैविध्यता में भी एक अन्तर्लय है। विषयों की कथ्यात्मक अभिव्यंजना लगभग एक जैसी है ।लोकजीवन व निजी जीवन के सन्दर्भों को लेकर सार्वजनिकीकरण करना व किसी युगीन प्रसंग से जोड देने से कविता विषय परक नहीं रह जाती वह चेतनापरक हो जाती है।
ऐसी कविताओं को कवि की चिन्ता व उसके सामाजिक उत्तरदायित्व के आधार पर ही विश्लेषित किया जा सकता है । पंखुरी की भाषा का दोहराव यही है ।रक्तिम सन्धियाँ की संवेदना का विषय व्यक्ति नहीं है मानव है । एक ऐसा मानव जो समाज मे रहता है और समाज से टकराता है वह समाज को साथ भी लेना चाहता है और समाज से पीड़ित भी होता है एक तरफ वह अपने भीतर संघर्ष का अनुभव करता है, तो दूसरी तरफ वह सामाजिक स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए भी संघर्ष करता है । अपने भीतर का संघर्ष उसे रचनात्मक बनाता है तो वाह्य संघर्ष उसे विद्रोही बनाता है ।ये दोनों स्थितियाँ पंखुरी की कविताओं में हैं । संघर्षों की यह दोहरी स्थिति किसी एकान्तप्रिय शान्तिप्रिय साधू सन्यासी का संघर्ष नहीं है । महानगरीय जीवन में फँसे , घिरे हुए , विशाल मध्यमवर्ग का संघर्ष है । एक समूची पीढ़ी का संघर्ष है । पंखुरी ने अपनी कविताओं में इस मध्यमवर्गीय घुटन व पीड़ा को महसूस किया जा सकता है उनकी कई कविताएं हैं जहाँ पर वह अपने "मूलशहर" में वापसी की हद तक घुटन का शिकार हैं । यह सवाल जीवन का नही है लगाव का सवाल है । व्यक्ति जिस जमीन मे पलता बढता है जिस जमीन और माहौल का हवा पानी ग्रहण करता है वहाँ की संस्कृति और जमीन से वहाँ के लोगों से उसका आत्मीय रिश्ता कायम हो जाता है । जब व्यक्ति अपनी जमीन को छोडकर कहीं विस्थापित होता है तो वह अकेले नही विस्थापित होता अपने साथ अपनी आत्मीयता अपनी भाषा और अपने रिश्तों का भी विस्थापन कर देता है ।वह इस विस्थापन को महसूस करती हैं और कहती हैं " अपनाने का सवाल नही / न मेरे , न उनके / जो वहीं के हैं / बस रहने भर का है" ( पृष्ठ 29) सवाल केवल रहने भर का है अपनाने का नही है । यह साफ संकेत है कि वह अपनी संस्कृति और अपनी भाषा के साथ विस्थापित है । जब व्यक्ति अपनी संस्कृति और अपनी पहचान को बरकरार रखते हुए किसी दूसरी जमीन में विस्थापित होता है तो वह खुद को अकेला और अजनबी पाता है । पंखुरी बार बार अपनी कविताओं में "अजनबीपन" की बात उठाती हैं ।उनकी एक कविता है "अजनबी सुरक्षा" इस कविता के आखिरी बन्द में वह अजनबियत को जस्टिफाई करती हैं ।अजनबियत के इस आग्रह को कवयत्री द्वारा व्यक्त किया जाना अपनी पहचान को बरकरार रखने का आग्रह समझना चाहिए " पूर्णतः सुरक्षित एक अजनबीपन में / कमस्कम ख्याल में उसके / अजनबी सुरक्षा / अज्ञात राहें / सब अनजान / सब अजान" (पृष्ठ 31) अजनबी बनकर सुरक्षा महसूस करना प्रथम दृष्टया विलोम प्रतीत हो सकता है ।इस विलोम को भाषा का सौन्दर्य समझना चाहिए वास्तविकता है कि यहाँ पहचान का संकट है ।महानगरीय संस्कृति और आधुनिकता की बेरंगी संस्कृति के विरुद्ध आज्ञात भय है जो व्यक्ति की मौलिक चेतना व उसकी अपनी संस्कृति को नष्ट कर सकता है । इस नष्ट होने से अपने आपको बचाने का एक ही उपाय है अपनी चतुर्दिक संस्कृति से अपने आपको "अजनबी" कर लेना ।अजनबी होने पर ही अपनी पहचान सुरक्षित है । यहाँ सुरक्षा को व्यापक सन्दर्भों में देखा गया है । यही चिन्ता पंखुरी की कविताओं का मूल अभिकथन है ।यहीं से समय और उसकी भयावह आवस्थितियों का प्रतिरोध समझा जा सकता है प्रेम और लगाव के विरुद्ध हिंसक गतिविधियों की शिनाख्त की जा सकती है । प्रेम और प्रतिरोध दोनो पक्षों का विस्तार व उनकी अनुषांगिक आपेक्षित गति का अनुमान पंखुरी की कविताओं से होता है । चूँकि अजनबीपन प्रेम की उपज है इसलिए प्रतिरोध को भी प्रेम की उपज स्वीकार करना चाहिए प्रेम का बहुआयामी एवं बहुसन्दर्भ युक्त वर्णन इन कविताओं में हैं। और सारे आयामों का मार्ग आन्ततः मानवीय सत्ता की बेहतरी में खतम होता है । प्रेम की इस अभिव्यक्ति में जिन उपकरणों , उपमाओं स्थापनाओं का प्रयोग किया किया गया है वह सब अपनी स्थूल व्यंजना से मुक्त होकर युगयुग्म का निर्धारण करती है व सत्ता और शक्ति के नीचे दबे असहाय कराहते मानव से सवाल करती हैं । इस बात को समझने से पूर्व कविताओं में विन्यस्त प्रेम और लगाव की संरचना को समझना बेहद जरूरी है । एक तरफ यह अपने "मूल" का लगाव है तो दूसरी तरफ सामाजिक जडता , रूढियों , और तन्त्र की हिंसक गतिविधियों का प्रतिरोध करता है ।इस प्रतिरोध में भागीदारी वह अकेले नहीं करती है यह वर्गीय भागीदारी है ।यहाँ "लड़की" का उल्लेख खूब हुआ है कई कविताओं में वह चरित्र के रुप में है मगर वह विशिष्ट नहीं है, सामान्य है ।प्रणय युद्ध , टीन एज प्रेम , बेरहमी ,प्रतिबद्धता , कतई नहीं , काठ की मल्लिका , देवदासी , हमदर्दी ,अनारकली , जैसी कविताओं में उपस्थित स्त्री एक ही है और उसकी पीड़ा यन्त्रणा व दुखों का कारण भी एक है और वह है प्रेम । इन कविताओं में अन्तर्ग्रथित प्रेम किसी न किसी स्पेस की तलाश कर रहा है ।वह पीड़ा और द्वन्द की यन्त्रणामयी अवस्थितियों को मात्र इस कारण भोग रहा है कि उसके पास स्पेस नहीं है ।उसकी अपनी उपस्थिति और हक नहीं है। इन कविताओं के माध्यम से पंखुरी स्त्री होने की नियति और सामन्ती मर्दवादी वर्चस्ववाद व पुरुषवर्चस्ववाद को पोषित करने वाली आदतों व व्यवस्थाओं का रहस्य खोल कर रख देती हैं ।
इन कविताओं को विमर्श और प्रतिरोध दोनो नजरिए से पढ़ा जा सकता है ।स्त्री विमर्श के प्रगतिशील नजरिए में भागीदारी का सवाल बडी शिद्दत से उठाया जाता है । यह बात दीगर है जिनकी सोच बाजारवादी है वह लोग भागीदारी के सवाल को "मुक्ति" का सवाल बनाकर इसे "देह" की आजादी का नाम देते हैं । देह की आजादी और भागीदारी दोनो अलग अलग अवधारणाएं हैं जो किसी भी लेखक की वर्गीय चिन्तनधारा से जुडी होती है । भागीदारी का सवाल बडा सवाल है हम जिस समाज और तन्त्र में रह रहे हैं वहाँ का नियन्त्रण केवल पुरुष के हाथ मे है सम्पत्ति सत्ता और सरकार व व्यवस्था में स्त्री विस्थापित सी रही है। इस भागीदारी की माँग को पंखुरी ने अपनी कविताओं में उठाया है वह "ऐसी साजिस नही रचते" कविता में लिखती हैं " आज यह बहाना , कल वह प्रस्ताव / ये नहैं होता / और होना इसका सोची समझी साजिश है / ऐसी साजिश नहीं रचते / नौकरी पेशा को नौकरी करने दें / और लडकी को आगे बढने दें" ( पृष्ठ 28) । यह रोजगार की भागीदारी है । जिसे अभी तक हमारे समाजों मे पुरुष का हक समझा जाता है । अब स्थितियाँ बदल रही हैं मगर परम्परागत सामाजिक संरचनाओं और आदिम समूहों , ग्राम्य समाजों में व्यवसायिक भागीदारी अभी भी दूर की कौड़ी है । इस भागीदारी की माँग को समकालीन स्त्रीवाद ने हासिए पर ढकेल दिया है ।बहुत कम कवयित्रियाँ हैं, जो इस सवाल पर बात करती हैं युवा कवयित्रियों में तो और भी कठिन है । कारण है कि हिन्दुस्तानी समाजिक संरचना का वह अनुभव, जो हमारे ग्राम्य समाओं और आदिम समूहों में विद्यमान है वह अनुभव उनके पास नही है, क्योंकि महानगरीय जीवन बोध इन अनुभवों को उनकी मौलिकता से पृथक कर देता है । प्रज्ञा रावत , सीमासंगसार , गायत्री प्रियदर्शिनी , सन्ध्या नवोदिता , जैसे दो चार नाम हैँ जो इस सन्दर्भ में अच्छी कविताएं लिख रही हैं । व्यवसायिक भागीदारी के साथ साथ सामाजिक भागीदारी की माँग भी पंखुरी की कविताओं में संकेतित है । इस तरह की भागीदारी का पता तब चलता है जब कोई लड़की प्रेम करती है तब समाज और तन्त्र उसको और उसके हक को कैसे दबोच लेता है यहीं से शक्ति और व्यवस्था की यन्त्रणादायी भयावह परिस्थितियों का अन्तहीन सिलसिला आरम्भ होता है जिसे आजकल समाचार पत्रों व खबरों में सुना और देखा जा रहा है ।
पंखुरी ने समाजिक चिन्ता के इस पक्ष को बखूबी समझा है प्रेम और रूढि के मध्य जो संघर्ष होता है वह प्रेम की समाजिक स्वीकृति से अधिक भागीदारी का सवाल है यदि स्त्री सम्पत्ति और सत्ता व व्यवस्था में बराबर की भागीदार होती तो क्या प्रेम करने पर कभी खाप पंचायतों के बहाने , कभी लव जेहाद के बहाने या जातीयता के बहाने हत्याएँ होती ? बिल्कुल नही होती और स्त्री को अपने जीवन का हक भी प्राप्त होता पंखुरी ने अपनी कविता बेरहमी में प्रेम की बन्दिशों का यथार्थ खाका खींचा है जो पाठक की रूह तक घर लेता है " इतनी बेरहमी से उखाड़े गये / नाखून मेरे / कि कुछ का कुछ हो गया / इतना ज्यादा कबूलाया गया मेरा प्यार / कि प्यार की जगह स्वाभिमान छा गया" प्यार की बन्दिशों और बलात् कबूलनामें में स्वाभिमान का जाग्रत होना एक स्त्री की अन्तर्विष्ठ चेतना का परिणाम है । पंखुरी अपनी कविताओं में तमाम विरोधों और यन्त्रणाओं , त्रासदियों के बीच कहीं न कही अपने लिए एक छोटा सा स्पेस एक सपना एक जगह की खोज रही है इस कविता में स्वाभिमान का आना "बन्दिशों" के विरुद्ध "निडरता" का आगाज़ है । प्रेम के सामाजिक आयामों में यन्त्रणा के साथ पुरुषवादी आदतों का भी गहराई से विश्लेषण है । यह विश्लेषण इकहरा नही है इसमे नियतिवादी आशावाद का व्यामोह नही है । बल्कि सत्ता समाज और वर्ग की थरथराती आवेगमय छवियाँ हैं जो पुरुषवादी नजरिए की समाजिक स्वीकृति के करण प्रतिरोध और आक्रोश का ताना बाना बुनती हैं । एक सफल और सार्थक भाषा मे कही गयी ये कविताएँ अपने समय और परिवेश की जडताओं और आदतों की पहचान कराती हैं । जो अमूर्तता , जटिलता , दुरूहता से बचते हुए संवेदना और पठनीयता से लैस हैं उनकी एक कविता है "प्रणय युद्ध" इस कविता मे सामाजिक आदतों का बेहतरीन अंकन है प्रेम और युद्ध दो विरोधी अवधारणाएं हैं एक अवधारणा कैसे दूसरी अवधारणा मे तब्दील होती है इस कविता मे बताया गया है "उसकी उस जरा सी अनमन पर / बीती बीती सुलझन पर / साथ चलती उलझन पर / कि सुलझा ले सब आगे पीछे / ऊपर नीचे दाएँ बाँए / वह तिल का ताड बना लेगा / प्रेम का व्यापार बना देगा" । अफवाहों का जन्म इसी प्रविधि से होता है और जब एक पक्ष स्त्री का हो उस पर भी प्रेम का मामला हो तो अफवाहों का बाजार और भी गर्म होता है । यहीं से सच और झूठ , प्रेम और युद्ध का विभेद समाप्त होने लगता है और हिंसा व यन्त्रणा का अमानवीय दौर प्रारम्भ होता है ।पंखुरी सिन्हा ने समाजिक अन्तर्वृत्ति पर बडी गहराई से लिखा है यह कविता लम्बी तो नहीं कही जा सकती है मगर बाकी कविताओं से थोडा बड़ी जरूर है और पूरी कविता अपनी बुनावट व शिल्प मे सादी सपाट बयान की तरह लगती है लेकिन अपनी अन्तर्वस्तु के कारण यह सामाजिक तन्त्र पर वर्चस्ववादी शक्तियों , गोयबल्सों की मौजूदगी की मुखालफत करती है । प्रेम के इस सामाजिक प्रतिरूपण का विस्तार ही प्रतिरोध और मोहभंग की अवस्थिति तक पहुँचता है ।
पंखुरी सिन्हा के कविता संग्रह रक्तिम आभा की प्रारम्भिक कविताएं इस विस्तार का साक्ष्य है । कविता संग्रह की अधिकांश कविताएं व्यवस्था और तन्त्र के विरुद्ध विद्रोही स्वर का आगाज है यह आगाज परिवर्तन कामी है । इन कविताओं मे सत्ता की पथभृष्टता जटिलता ,नृशंसता सब कुछ कर प्रकट हो गया है । पंखुरी की एक कविता है "हमारी तकलीफों की रिपोर्ट" इस कविता को केवल स्त्री के दुखों से जोडकर देखने की जरूरत नही है यह हर उस हिन्दुस्तानी की तकलीफ़ है जो व्यवस्था के छद्म आचरण व जनविरोधी स्वरुप को भुगत चुका है ।पंखुरी की कविताओं की सामाजिक विनिर्मिति और स्त्रीवाद के दायरे की टूटन यहीं से समझी जा सकती है यह स्त्रीवाद मे आम आदमी के प्रवेश का संसूचक है "जिन तकलीफों की रिपोर्ट लिखाई हमने / क्या हुआ उनका / फाईल बनकर रह गयी / रिपोर्ट हमारी" पुलिस , प्रशाशन , सत्ता , नेता और समूचे लोकतन्त्र के खिलाफ अनास्था से भरा यह स्वर महज एक स्त्री का स्वर नही है यह हमारी पीढी का स्वर है । पंखुरी इस स्वर को जनान्दोलन तक ले जाती हैं । जनान्दोलन और दमन की भी आलोचना करती है यह पंखुरी की कविताओं का प्रतिरोधी स्वर है जब आवाज मे भाषा में जनान्दोलन की भूमिका तय होने लगे व्यवस्था का चाल चरित्र और चेहरा उजागर होने लगे तो समझिए कि कविता अपनी सही रहा पर जा रही है उनके इस संग्रह की पहली कविता "FIR दायर करो" करो इसी पृष्ठभूमि पर लिखी गयी है । इसमें आन्दोलन के दौरान दमक चक्र में मारे गये एक अजनबी के पहचान का आग्रह है । इस भाव भंगिमा की बहुत सी कविताएं हैं विशेषकर अनहद , आरोपित आवाजों की कहानी , चुप्पी के अन्तर ,ताना बाना , सुडकने चबाने के स्वर , क्या करें क्या न करें , ये सारी कविताएं प्रेम और प्रतिरोध की साझी भूमिका का निर्वहन कर रही हैं और इन कविताओं मे व्यवस्था व युग का अनास्थावादी आलोचन प्रखरता के साथ उपस्थित हुआ है ।
कविता संग्रह रक्तिम सन्धीयाँ में एक भी लम्बी कविता नहीं है । चूँकि लम्बी कविता नहीं है तो किसी भी प्रकार का करेक्टर भी कविताओं में नहीं हैं ।मैं का उल्लेख है, लेकिन यह "मैं" अनुभव की विनिर्मित है यह कविताओं को चरित्र का स्वरूप नहैं दे पाता है । मैं की उपस्थिति और अनुभव की आत्मगत आभा सिद्ध कर देती है कि पंखुरी लम्बी कविताओं की अपेक्षा छोटी कविताओं की कवयत्री है ।हुआ भी यही है ते छोटी कविताएँ कहीं भी बौद्धिकता और दर्प से युक्त नहीं है , सहज और नैसर्गिक बिम्बों से निर्मित संवेगात्मक लय न तो आवेग का खण्डन करती है न आवेग को कमजोर करती है । नाटकीयता , चमत्कार , कलात्मक विस्तार का किसी भी तरह का कोई आग्रह नही है यही सादगी इन कविताओं का सौन्दर्य है इनका शिल्प है । नपे तुले वाक्य और उनका विन्यास लय बद्ध शब्द विधान , बाहरी और आन्तरिक तनावों को रचनात्मक विस्तार देने में सक्षम हैं जैसे "वह फक्कड था / आवारा था / वह पढता भी इसीलिए था" यहाँ पर "था" शब्द एक विधान है जो कलात्मक न होते हुए भी इस कविता की लय और गति को बाँध रहा है ।पंखुरी की कविताओं में शब्दाधारित बन्ध खूब मिलते हैं यह बँधाव कविता के रचाव का नया प्रयोग है । जो कला से रहित होकर भी कला की जमीन सृजित करता है । यही कारण है कि कविताएँ अपना पैटर्न और प्रारुप बदलने के साथ ही अचानक लय नहीं बदलती बल्कि पाठ प्रक्रिया वही रहती है । जिससे जकड़बन्दी विहीन आयतन और भावों के घनत्व को महसूसा जा सकता है ।यह घनत्व बिना भाषा की मौलिकता के सम्भव नहीं है । भाषा वही सार्थक होती है जो खामोश रहे चुप रहे और मुकम्मल कविता बन जाए पंखुरी की भाषा मे यह गुण देखा जा सकता है विविधता , शब्द संयोजन ,उपयुक्तता , प्रासांगिकता , और खनक ऐसी है कि कविता की निर्भरता शब्दों से अधिक भावविधान पर अधिक हो जाती है । सब कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पंखुरी भाषा और भाव दोनो के निर्धारित परिक्षेत्र का अतिक्रमण करती हुई प्रयोगधर्मी कवयत्री है । प्रयोग नवीनता बोध के साथ साथ कवयित्री के अन्तःकरण को भी उघाड कर रख देता है । बहु आयामी विस्तार , विषय वैविध्यता , और प्रेम की सामाजिक व शक्तिपरक अवधारणा इन कविताओं को किसी वैचारिक खाँचे से बचाकर विमर्शों की जकडबन्दी से बहुत आगे ले जाती है । जिसमें यथार्थ आग में तपते तवे की सतह पर पड़ी पानी की बूँद की तरह छलछला जाता है और कवयित्री का व्यक्तित्व पानी की सतह पर तैरते तेल की तरह उभर कर सामने आ जाता है।
नमस्कार दोस्तों !
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