आज विश्व साक्षरता दिवस है, लेकिन पढ़े-लिखे लोग भी आज, असाक्षर होने की पहचान दे रहे हैं । परंतु आज का दिन मैं और हमारे सभी दोस्तों के लिए कुछ खास भी है। खास इसलिए की इंजीनियरिंग के 4 वर्षों को नौटंकी अंदाज में जीना हमने इसी दिन से सीखा । हर साल की तरह आज फिर से मैं पेश करता हूँ कुछ यादें, जो हमेशा याद आती हैं । आइये,पढ़ते हैं उन स्मृतियों को अग्रांकित शब्द अंकन के साथ......
'सब कुछ पीछे छूट गया, इंजीनियर बनते-बनते !'
प्यारा 'ब्रूनी' और उनकी 'माँ' |
'सब कुछ पीछे छूट गया, इंजीनियर बनते-बनते !'
सब कुछ पीछे छूट गया, अभियंता बनते-बनते,
जिम्मेदार कब हम बन गये, मालूम भी न चला ।
जिम्मेदार कब हम बन गये, मालूम भी न चला ।
जब भी याद आती है, इंजीनियरिंग कॉलेज के वह 4 साल,
मन सुपरसोनिक स्पीड से भी अरबों गुना तेज,निकल पड़ती है ।
मन सुपरसोनिक स्पीड से भी अरबों गुना तेज,निकल पड़ती है ।
उन लम्हों की खोज में,
जो भूली-बिसरी यादें बन,कभी हमें गुदगुदाती है, तो कभी रुलाती है ।
जो भूली-बिसरी यादें बन,कभी हमें गुदगुदाती है, तो कभी रुलाती है ।
कितना किया था, मेहनत उस जुनून को पाने के लिए..!
कितना किया था, इंतजार उन दोस्तों से मिलने के लिए ।
कितना किया था, इंतजार उन दोस्तों से मिलने के लिए ।
जिन्हें तो जानता तक नहीं था, मैं ...?
पर साल खत्म होते-होते अपनन-सा बिछुड़न दे गए ।
पर साल खत्म होते-होते अपनन-सा बिछुड़न दे गए ।
अजीब सी थी वह दुनिया, कोई सुबह तो कोई दोपहर में जगते थे,
बाथरूम जाने के लिए, हम हमेशा लड़ते थे ।
बाथरूम जाने के लिए, हम हमेशा लड़ते थे ।
12th में था जब, मेहनतकश-मजदूरी ही था रास्ता,
पढ़ते-पढ़ते इंजीनियरिंग कॉलेज आने का और अच्छा नौकरी पाने का ।
पढ़ते-पढ़ते इंजीनियरिंग कॉलेज आने का और अच्छा नौकरी पाने का ।
पर पता ही न चला हम सभी को, की कब 4 साल गुजार गए,
हम इतने बड़े कब हो गए, छुटकन से बड़कन लोग बोल गए ।
हम इतने बड़े कब हो गए, छुटकन से बड़कन लोग बोल गए ।
लेकिन उन सालों में अजीब संस्कार हमें मिले,
किसी के पैंट उतारने का, किसी के गिरेहबान में झांकने का ।
किसी के पैंट उतारने का, किसी के गिरेहबान में झांकने का ।
ये हँसी मजाक था, जो क्लास बंक कर हम कर लिया करते थे,
कॉमन रूम में फ़िल्म कम ही चला करते थे ।
कॉमन रूम में फ़िल्म कम ही चला करते थे ।
वो अजीब हालात थे, खाने के लिए हम मेस में लड़ा करते थे,
खाना मिल जाने पर, डस्टबिन में फेंका करते थे ।
खाना मिल जाने पर, डस्टबिन में फेंका करते थे ।
क्लास की क्या ? जब भी घंटी बजा करती थी, राम-रहीम याद आते थे,
वैसे न, तो कभी इन्सां मिले, न ही हनी..प्रीत ।
वैसे न, तो कभी इन्सां मिले, न ही हनी..प्रीत ।
प्रोजेक्ट के नाम पर, बस पन्नों को हम भरा करते थे,
एग्जाम की सुबह micro कर लिया करते थे ।
एग्जाम की सुबह micro कर लिया करते थे ।
यह अपना कॉलेज था, यहां सब माफ था,
अन्ना की अनशन को भी पार्टी में हम बदल दिया करते थे ।
अन्ना की अनशन को भी पार्टी में हम बदल दिया करते थे ।
कोई घास हमें नहीं देती थी, वैसे भी ...भला कोई क्यों दे घास...?
क्योंकि घास के नाम पर, यहां बस जंगल हुआ करता था ।
क्योंकि घास के नाम पर, यहां बस जंगल हुआ करता था ।
रिजल्ट की खबर मिलते ही, लालजी की थाली सजती थी,
मार्क्स पर चर्चा, गदहे ही किया करते थे ।
मार्क्स पर चर्चा, गदहे ही किया करते थे ।
लालजी नाम आते ही, उनके परिवार याद आते हैं,
अपना खाना में हमें, प्रेम के गूढ़ अर्थ समझाते थे ।
अपना खाना में हमें, प्रेम के गूढ़ अर्थ समझाते थे ।
Snapdeal का डिब्बा, न कभी हम भूला करते हैं,
ब्रूनी का ताजमहल, जो वहां सजा करता था ।
ब्रूनी का ताजमहल, जो वहां सजा करता था ।
मुमताज, तो उन्हें न मिला...?
पर हमारी खुशियों में, वह खुश रहा करता था ।
पर हमारी खुशियों में, वह खुश रहा करता था ।
याद आते है वो लम्हें, बीत जाने के बाद,
बस साथ रहते है फेसबुक और what's app का साथ ।
बस साथ रहते है फेसबुक और what's app का साथ ।
-- प्रधान प्रशासी सह संपादक ।
Wah bhut badhiya
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